मुसलमानों को चुनाव के वक्त ही कौम याद क्यों आती है ?
मुसलमानों को चुनाव के वक्त ही कौम याद क्यों आती है ?
● कमजोर कौम नहीं बल्कि इसके तथाकथित नेता हैं जिनको जीतने के लिए केवल मुसलमानों की जरूरत होती है ।
● हक का रोना मुसलमानों के सामने ही क्यों ,उन सबके सामने क्यों नहीं जिनका साल भर आपने सहयोग किया है।
● आम मुसलमान जो अपना घर मेहनत मजदूरी करके चला रहा है, वह अपने मत का अधिकार भी अपनी मर्जी से करेगा, उसे गुलाम या गद्दार कहना अनुचित है ।
● खुद के राजनैतिक वर्चस्व पर आँच आने पर ही कौम क्यों याद आती है । बड़े-बड़े मंचों पर पढ़ें लिखें और प्रतिष्ठित लोगों तक ही शिर्फ़ समाज या कौम सीमित नहीं है ।
भारत में चुनाव एक त्योहार ही नहीं बल्कि एक विशेष ड्रामा भी है , इन दिनों वो सारी घटनाएं हम देखते हैं जो हमें आश्चर्यचकित करती है । किसी नेता की रिकॉर्डिंग लीक हो रही है, कभी कोई नेता दूसरे नेता को अंदरूनी समर्थन दे रहा है, कोई नेता गुप्त रूप से अपनी जाति का सम्मेलन कर रहा है, दो गुटों में लड़ाई हो रही है, देहात में शराब ना मिलने पर वॉटर नाराज हो जाता है, छोटा-मोटा काम खुद प्रत्याशी अपने खर्चे से करवा रहा है, पुलिस को नाकाबंदी पर रुपयों से भरा बेग मिल जाता है, जो दुकानों की उधार नहीं चुका पाते वो लोग भी चुनावो में मटन तंदूरी की बात करते हैं आदि ऐसी तमाम बातें हमें चुनाव के दिनों में देखने को मिलती है ।
लेकिन मुझे खास लगती है वो मुस्लिम मजलिसें जो केवल पांच साल में चुनाव के समय देखने को मिलती है, औऱ इनके शीर्ष मंच पर नेता भी वही देखने को मिलते हैं जो पिछले पांच साल में अन्य उन्हीं पार्टियों की माला डाले हुए घूम रहे थे जिनका सभा में विरोध करना होता है । ये क्षणिक विरोध केवल आम मुसलमानों के दैनिक जीवन को उथल पुथल करने जैसा ही होता है क्योंकि इनके जीवन मे ना तो पहले कोई विशेष बदलाव आए ना आगे आने वाले हैं क्योंकि इन्हें केवल आंखों का कांटा बनना होता है, कभी किसी पार्टी का तो कभी किसी पार्टी का, विकल्प भी तो नहीं है, विकल्प उठते ही सिर्फ चुनाव के एक महीने में ही जिनका ना आधार होता है ना भविष्य, महीने भर में भला वर्षों की पार्टी के साथ समर्थन या बगावत का फैसला कोई भला कैसे लेले ? अब इस स्थिति में कोई मानव स्वभाव की बात क्यों नहीं करता ?
मुसलमान नेताओं को चुनाव के वक्त पर ही मुसलमान याद आते हैं । पांच साल एक नेता इस बात पर ज्यादा ध्यान रखता है कि कोई दूसरे समाज या समुदाय का आदमी मुझसे नाराज ना हो जाए इसलिए उसका काम पहले करवाया जाए, और खुद की जाति या समुदाय को साइडलाइन किया जाता है, और यह काम हर कौम का नेता कर रहा है ,इसमें बुरी बात भी नहीं है, लेकिन चुनाव के समय ये लोग सिर्फ अपनी जाति-समुदाय के सामने दुख क्यों दिखाते हैं ? उन सबके सामने क्यों नहीं जिनको साल भर खुश करने की जीतोड़ कोशिश करी थी ? मुस्लिम नेता जो साल भर गंगा जमुनी तहजीब के नारे लगाते हैं लेकिन अंतिम दिनों में अपने क्षेत्र की उन तमाम वर्गों की जनता को एक छत के नीचे लाने के स्थान पर केवल एक कौम या समुदाय के सामने टिकट या चुनाव की अपील करना कहां तक उचित है ? या तो आपकी साल भर की सेवा झूठी है, या फिर वो जरूरतमन्द स्वार्थी हैं जिन्होंने आपसे कार्य करवाया है । किसी को तो ये बात समझनी होगी ।
चुनाव के दिनों में खुद की ही कौम को दरी बिछाने वाले नामों से जलील क्यों किया जाता है । साल भर ओवैशी को गाली निकालने वाले नेता भी कौम का चेहरा बनने की पूरी कोशिश करते हैं । जब कोसना मुसलमानों को, वोट चाहिए मुसलमानों के तो फिर पांच साल चुनाव से पहले कौम के आम आदमी के हक में क्यों नहीं खड़े रहते ? स्वार्थ जैसा माहौल दिखता हैं उन तमाम सम्मेलनों और सभाओं में जहाँ वो नेता खुद को मुसलमानों का मसीहा दर्शाने की कोशिश करते हैं जिन्होंने कौम के हक के लिए शायद ही जी जान लगाई हो । राजनैतिक वर्चस्व पर आंच आने पर ही कौम याद क्यों आती है ?
गाँधीजी के भारत लौटने के बाद सबसे पहले खुद को नेता के रूप में दर्शाने का पहला प्रयास गाँधीजी ने एक भाषण में किया जो आजादी मिलने से बहुत पहले की बात है तकरीबन 20 साल से ज्यादा । गाँधीजी ने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के उद्घाटन समारोह में जब भाषण दिया तो उन्होंने साफ शब्दों में भारत को बता दिया कि वह किस वर्ग के नेता बनेंगे ,उन्होंने अमीरों की ही आलोचना शुरू करदी जो अधितकर समारोह में मौजूद थे । गांधी ने साफ शब्दों में कहा कि अंग्रेजों से मुक्ति केवल ये अमीर और उच्च वर्ग के लोग नहीं नहीं दिला पाएंगे, अंग्रेजों से आजादी मिलेगी तो भारत के गरीब , निम्न जाति, किसान, मजदूर, शिल्पकार आदि सबकी सहायता से मिलेगी, अन्यथा आजादी केवल किताबी बातें ही रहेगी ।और यहीं से गांधी ने बता दिया कि वो आम लोगों के नेता है केवल उच्च वर्ग और अमीरों के नेता नहीं है । यहीं मैं कहना चाह रहा हूँ कि गांधी अचानक इतने बड़े वर्ग के नेता नहीं बने बल्कि इसके पीछे एक लंबी तपस्या है । तो फिर एक विशेष कौम के आप महीने भर में नेता कैसे बन जाएंगे ?
बड़े -बड़े मंचों पर पढ़ें लिखें और प्रतिष्ठित लोगों तक ही शिर्फ़ समाज या कौम सीमित नहीं है , इस मुस्लिम समाज मे वो लोग भी मौजूद है जिन्हें आप खुद को उनसे बेहतर मानते हैं । साल भर काजी, कुंजड़ा, कसाई, लीलगर, खानी, भटियारा, नट, धोबी, हलालखोर, भंगी, मोची, भाट, डफाली, रंगरेज, हजाम, चूड़ीहार, मछुआरा आदि ओछे नामों से हमारा मुंह भरा रहता है और अंतिम समय में हम एक होने की अपील करते हैं, खुद को विभिन्न कौमों में बांटकर हम एक कौम का नारा लगाते हैं, यह कैसे सम्भव हो सकता है । अगर कोई गरीब वोट के लिए पैसा लेता है तो यह कोई हराम-हलाल का विषय नहीं है, यह मूलभूत सुविधाओं से वंचित एक मतदाता की कहानी है जिन्हें आप लोग गद्दार का टैग देकर छोड़ देते हैं । कमजोर असल में मुस्लिम कौम नहीं है जबकि इनके नेता हैं । साल भर मस्जिदों के चंदे लेने वालों की आलोचना करते रहना, अन्य मुस्लिम जातियों की उपासना पद्धति को गाली निकालते रहना औऱ किसी कौमी सभा में यह कहकर शामिल नहीं होना की अन्य समुदाय नाराज हो जाएगा आदि इन सब बातों के बाद आपका कैसे मन करता है खुद को कौम का मसीहा बताने का ? साल भर सार्वजनिक कार्यों में पैसे लगाते हो, न्यूज छपवाते हो, प्रसिद्धि प्राप्त करते हो, क्या वो सार्वजनिक कार्य केवल किसी एक जाति या समुदाय के लिए थे ? अगर नहीं थे तो फिर उन सबके सामने आप निवेदन क्यों नहीं करते ?
क्या अन्य नेता केवल अपनी ही जाति के दम पर नेता बने हैं ? अगर बने हैं तो उनसे पूछें कि आपने अपनी कौम के लिए क्या किया , जो हमने नहीं किया ,पता चलेगा कि आपने कुछ नहीं किया । मस्जिदों और मदरसों की चटाई ( सफ़ ) तक सीमित यह कौम अगर राजनीति में अपनी पहचान बनाना चाहती है तो आम मुसलमानों की शिकायत को खत्म करना अपनी जिम्मेदारी समझना होगा । रेहड़ी पर समान ढोने वाला, सब्जी बेचने वाला, पंचर निकालने वाले, अनपढ़, घरों में साफ सफाई करने वाले, दिहाड़ी मजदूर आदि भी इस कौम में हैं जिनतक आपका पहुंचना उतना ही मुश्किल है जितना आपका विधायक बनना । या तो कौम की बात करें मत, और करें तो गाँधीजी की तरह उस तबके तक पहुंचे जिनतक कोई पहुंचना नहीं चाहता था ।गाँधीजी ने दलितों को चुना, आप आम गरीब मुसलमान को चुन लेंवे, गाँधीजी ने पीड़ितों को ‘हरिजन’ शब्द दिया आप तो उस नबी की उम्मत में है जिन्होंने मजलूम का सहारा बनना ही दीन का हिस्सा बताया है । सफेद इत्र लगे कुर्ते पहने लोग ही केवल कौम नहीं है, कौम में वो भी हैं जो पसीने की बदबू में पूरे दिन मेहनत करके अपना घर चला रहे हैं, वो भी हैं जिन्हें आप अपने आप से छोटा समझकर उनके मुंह नहीं लगना चाहते हैं, वो भी हैं जिनके घरों की समानता से आप अपने घर की औरतों पर ताने मारते हैं, वो भी हैं जो भद्दे कपड़े पहने व्यक्ति पर आप उनसे समानता करते हैं, वो भी हैं जिन्हें आप कायमखानी शुद्धिकरण के नाम पर आप उन्हें विशेष वर्ग से बाहर निकालना चाहते हैं, वो भी हैं जिनके खुदा को मानने के तरीके आपसे अलग है जिन्हें आप गाली निकालते हैं वगैरह- वगैरह ।
मेरा यही कहना है, अगर असल में ही आपको कौम का नेता बनना है तो आज से ही बनने की शुरुआत कर देंवे । सबको खुश नहीं किया जा सकता क्योंकि जब व्यक्ति कोई कार्य करता है तो आधे गाली निकालते हैं तो आधे वाहवाही करते हैं, लेकिन गांधी जैसा मजबूत लक्ष्य होगा तो पूर्ण रूप से वाहवाही आपकी ही होगी, माहौल बदल देंगे आप, आपको सभाओं और सम्मेलनों की जरूरत नहीं होगी, बल्कि सभाओं को आपके नेतृत्व की जरूरत होगी । औऱ आम मुसलमानों से भी मेरा यही आग्रह रहता है कि जो व्यक्ति पांच साल आपके दुखों में साथ खड़ा रहता है तो उसे वोट देते समय ये ना देखें कि कौनसी पार्टी जीत जाएगी या कौनसी नहीं, क्योंकि उन दोनों के जीतने से आपका भला होने से रहा लेकिन आप उस व्यक्ति को अंदर से मार दोगे जिसने आपके लिए लड़ने की कोशिश की, आपके हक के लिए आवाज उठाई ।
~ आबिद खान गुड्डू ।