जाहरपीर, नागराज का अवतार,गौ रक्षक देवता गोगाजी चौहान – गोगाजी, ददेरवा (चूरू)
जाहरपीर, नागराज का अवतार,गौ रक्षक देवता गोगाजी चौहान - गोगाजी, ददेरवा (चूरू)


जाहरपीर, नागराज का अवतार,गौ रक्षक देवता गोगाजी चौहान – गोगाजी, ददेरवा (चूरू), चौहान वीर गोगाजी का जन्म वि.सं. 1003 (946 ई.) में चूरू जिले के ददरेवा गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम जेवरसिंह तथा माता का नाम बाछल देवी था। (मौसी काच्छल, मौसेरे भाई-अर्जुन, सुर्जन), इनके घोड़े का नाम जवाड़िया था जिसका रंग नीला था। ऐसी मान्यता है कि गोगाजी का जन्म गुरु गोरखनाथ के आशीर्वाद से 946 ई. में भाद्रपद कृष्ण 9 (गोगानवमी) के दिन हुआ। उनका विवाह कोलूमण्ड की राजकुमारी केलमदे के साथ होना तय हुआ किंतु विवाह होने से पहले ही केलमदे को एक सांप ने डस लिया। इससे गोगाजी कुपित हो गये तथा मंत्र पढ़ने लगे। मंत्र शक्ति के कारण नाग तेल की कढ़ाई में आकर मरने लगे। तब स्वयं नाग देव तक्षक ने प्रकट होकर केलमदे का जहर निकाला तथा गोगाजी को नागों का देवता होने का वरदान दिया।
आज भी सर्पदंश से मुक्ति के लिये गोगाजी की पूजा की जाती है। लोक धारणा है कि सर्प दंशित व्यक्ति को यदि गोगाजी की नेड़ी (गोगाजी के चबूतरे) तक लाया जाये तो वह व्यक्ति सर्प विष से मुक्त हो जाता है। भाद्रपद कृष्णा नवमी को गोगाजी की स्मृति में मेला लगता है।
पशु मेला: श्रावण पूर्णिमा से भाद्रपद पूर्णिमा तक (राजस्थान का सबसे लम्बी अवधि तक चलने वाला पशु मेला है।) गोगाजी विष्णु के अवतार माने जाते हैं। गोगाजी को नागों का देवता, जाहरपीर (जाहर पीर का अर्थ जिन्दा पीर), नागराज का अवतार, मुस्लिम धर्म में गोगापीर, जीवित पीर व बांगड़ का राजा आदि नामों से जाना नाता है। कवि मेह ने “गोगाजी का रसावला” व जानकवि ने कायम रासो नामक ग्रंथ में गोगाजी व महमूद गजनवी के मध्य संघर्ष का वर्णन किया है। गजनवी ने ही गोगाजी को जाहरपीर (जिंदापीर) कहा था।
पुजारी 11 माह मुस्लिम पुजारी (चायल) जबकि एक माह भाद्रपद में हिन्दू पुजारी होता है। गोगाजी अपने चचरे भाई अर्जुन सर्जुन के विरूद्ध संघर्ष में वीरगति को प्राप्त हुए। गोगाजी का पुत्र केसरिया कुंवर व पौत्र सामंत चौहान था। गोगाजी के भक्त सांकल नृत्य करते है।राजस्थान में किसान वर्षा के बाद हल जोतने से पहले गोगाजी के नाम की 9 गाठों की राखी ‘गोगा राखड़ी’ हल और हाली, दोनों को बाँधते है। रक्षा बंधन पर बांधी गई राखियाँ गोगा जी के घोड़े जवाड़िया के पैरों में अर्पण की जाती है। गोगाजी के ‘थान’ खेजडी वृक्ष के नीचे होते हैं, जहाँ मूर्ति के रूप में एक पत्थर पर सर्प की आकृति अंकित होती है।
कहावत : गांव गांव में खेजड़ी। गांव-गांव में गोगो।।
गोगाजी के जन्म स्थल ददरेवा को ‘शीर्ष मेड़ी’ तथा समाधि स्थल ‘गोगा मेड़ी’ (नोहर-हनुमानगढ़) को ‘धुरमेड़ी’ भी कहते हैं। नोहर की गोगामेड़ी की बनावट मकबरेनुमा है। माना जाता है कि गोगामेड़ी का निर्माण फिरोज तुगलक ने करवाया था, जिसे वर्तमान स्वरूप महाराजा गंगासिंह ने प्रदान किया था। साँचोर में भी ‘गोगाजी की ओल्डी’ नामक स्थान पर गोगाजी का मंदिर है। गोगाजी की ओल्डी को “किल्लिणियों की ढाणी” भी कहते हैं। मंदिर निर्माण राजा राम कुम्हार ने करवाया। गोगाजी की पूजा भाला लिए योद्धा के रूप में या सर्प रूप में होती है। राजस्थान में पाबूजी, हड़बूजी, रामदेवजी, मेहाजी मांगलिया व गोगाजी पंचपीर माने जाते हैं।
इसके लिए एक कहावत भी है- पाबू, हड़बू, रामदे, मांगलिया मेहा। पाँचों पीर पधारजो, गोगाजी जेहा।।
गोगामेड़ी में मुख्य दरवाजे पर “बिस्मिल्लाह” (786) शब्द अंकित है। गोगाजी की फड़ का वाचन डेरू एवं मादल वाद्ययंत्रों के साथ भोपों/भक्तों द्वारा किया जाता है। गोगाजी जी का प्रथम विवाह उत्तरप्रदेश में “सरियल” से हुआ था। यहां मेले में राजस्थान के बाद सर्वाधिक भक्त पीले वस्त्र पहनकर उत्तरप्रदेश से ही आते हैं जिसे “पूरबिया” कहा जाता है। गोगाजी के सहयोगी दोस्तों में जवाहर पाण्ड्या एवं भज्जू कोतवाल थे। गोगाजी के गीत छावले (छावली) कहलाते है।