ईद पर निबंध
ईद इस्लाम धर्म को मानने वालों का प्रमुख त्योहार है। यह साल में दो बार, ईद-उल-फितर व ईद-उल-जुहा के रूप में मनाया जाता है। ईद-उल-फितर सबसे बड़ा मुस्लिम त्योहार है।
ईद-उल-फितर
ईद-उल-फितर रमजान के पवित्र माह के अंत का सूचक है। रमज़ान में पूरे एक माह तक प्रतिदिन उपवास रखा जाता है, जिसे रोज़ा भी कहते हैं। रोजा के दिनों में मुसलमान भाई सूर्यास्त से सूर्योदय तक कुछ नहीं खाते-पीते।
इस दौरान बड़ी श्रद्धा के साथ आचार-विचार के नियमों का पालन किया जाता है। माना जाता है कि इसी पवित्र महीने में हज़रत मुहम्मद पर पवित्र ग्रंथ ‘कुरान’ अवतरित हुआ था।
इस माह में उपवास रखने का उद्देश्य यही है कि हम अल्लाह को ‘कुरान’ देने के लिए धन्यवाद करते हैं। इसके अलावा ये दिन हमें उन निर्धनों व भूखे लोगों के बारे में भी सोचने का अवसर देते हैं जिन्हें पेट-भर रोटी भी नहीं मिलती। लोग दया भाव से ऐसे लोगों की देख-रेख करने का संकल्प लेते हैं।
इस्लामिक कैलेंडर के हिसाब से, ईद-उल-फितर शव्वाल (दसवां ) माह के पहले दिन पड़ता है। नए चांद का दिखना ही रमजान माह के आरंभ की सूचना देता है। अरबी भाषा में ‘ईद’ का अर्थ है ‘त्योहार’ तथा ‘फितर’ का अर्थ है ‘दान’।
इस प्रकार ईद-उल-फितर का अर्थ है, दान करने का त्योहार। रोज़ों के खत्म होने के बाद बड़ी उमंग व उल्लास से ईद मनाई जाती है।
दान करना इस्लाम के पांच स्तंभों में से एक है। प्रत्येक मुस्लिम से पांच प्रकार के कर्तव्य निभाने की उम्मीद की जाती है- कलमा-ए-शहादत (एक रब में विश्वास का साक्ष्य), नमाज़ (प्रार्थना), रोज़ा (व्रत रखना), ज़कात (दान देना) और हज (तीर्थ यात्र)।
ईद-उल-फितर का इतिहास
ईद-उल-पि फ़तर की रोचक कथा महान इस्लामी हज़रत मुहम्मद से संबंध रखती है। 610 ई. में एक बार हज़रत मुहम्मद हीरा पर्वत पर ध्यान कर रहे थे कि एक रात देवदूत जिब्राइल उनके सामने प्रकट हुए।
देवदूत ने हज़रत मुहम्मद से कहा कि वह अल्लाह का संदेशवाहक है। अल्लाह ने उसे धरती पर मानवजाति के कल्याण के लिए भेजा है। देवदूत ने यह भी भविष्यवाणी की कि हज़रत मुहम्मद एक महान धार्मिक व आध्यात्मिक पैगंबर हैं।
इसके बाद देवदूत ने कुछ पवित्र शब्द बोलकर उनसे कहा कि वे उन्हें दोहराएं। हज़रत मुहम्मद ने कहा, “मैं नहीं कह सकता।”
देवदूत ने उन्हें गले से लगाया और फिर से दोहराने को कहा। उन्होंने फिर से कहा कि वे दोहरा नहीं सकते। इस तरह देवदूत ने तीसरी बार उन्हें गले से लगाया और दोहराने को कहा।
उस समय हज़रत मुहम्मद चालीस साल के थे। अगले तेईस वर्षों तक देवदूत बार-बार उनके पास आते रहे और उन्हें आयतों (पद्यों) में पवित्र ज्ञान देते रहे। इस पवित्र ज्ञान में वे सब बातें शामिल थीं, जो अल्लाह अपने बंदों से चाहता था। बाद में यही सब उपदेश पवित्र कुरान में संकलित किए गए।
हज़रत मुहम्मद ने सारे समुदाय को यह ज्ञान सौंपा। उन्होंने लोगों से कहा कि वे रमज़ान के महीने में रोज़े रखें ताकि अल्लाह का शुक्र अदा हो सके। उन्होंने ही गरीबों व जरूरतमंदों को दान देने के लिए भी कहा। इसके बाद ईद-उल-फितर नामक त्योहार आरंभ हो गया। लोग ईद-उल-फितर का त्योहार हर्षोल्लास के साथ मनाने लगे।
प्रेम, शांति, एकता व भाईचारे का संदेश देने वाला यह त्योहार बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता है।
ईद-उल-फितर के दिन चांद का महत्त्व
चांद दिखने के अनुसार ही रमजान का दिन तय होता है, जिसे ‘हिलाल’ कहते हैं। इसी तरह माह के अंत में, हिलाल दिखने के अनुसार ही ईद का त्योहार तय होता है।
रमज़ान के अंतिम दिन अर्थात चांदरात में ईद का चांद देखने को बड़ा पुण्प माना जाता है। चांद दिखते ही ईद की तैयारियां शुरू होने लगती हैं।
ईद मुबारक
ईद-उल-फितर का यह प्यारा-सा त्योहार पूरी दुनिया में हर्षोल्लास से मनाया जाता है। यह दिन ईद की खास नमाज़ के साथ आरंभ होता है, जो ईदगाह में मिलकर अदा की जाती है।
ईदगाह में नमाज़ के लिए जाने से पहले लोग स्नान करके नए वस्त्र पहनते हैं। सुबह के समय हल्का नाश्ता या खजूर खाए जाते हैं। मस्जिदों में ईद की खास नमाज़ अदा की जाती हैं, जहां लोग मिलकर अल्लाह को याद करते हैं। महिलाएं व लड़कियां घर में ही नमाज़ अदा करती हैं।
ईद की नमाज़ से पहले ही गरीबों को पि़फ़तरा और ज़कात (दान) दे दिया जाता है। गरीबों को दान अवश्य देना चाहिए ताकि वे भी ईद का त्योहार मना सकें।
इस त्योहार के लिए कई पकवान बनाए जाते हैं। ईद-उल-पि़फ़तर पर खास तौर से सिवइयां (दूध, मेवे व खजूर डालकर), मटन-कोरमा व नवाबी बिरयानी आदि बनाए जाते हैं। परिवार व मित्र जन इनका आनंद उठाते हैं।
ईद के दिन महिलाओं व लड़कियों को उपहार दिए जाते हैं। बच्चों को ‘ईदी’ देने का भी रिवाज़ है। बच्चे ईदी पाकर बेहद प्रसन्न होते हैं। वे इनसे खिलौने, कपडे़ व मनपसंद चीजें लेते हैं और सबको भेजने के लिए ग्रीटिंग कार्ड भी स्वयं बनाते हैं।
इस त्योहार की तैयारी एक माह पहले से ही आरंभ हो जाती है। लोग नए कपड़े व तोहफे खरीदते हैं। घरों को साफ-सुथरा करके सजावट की जाती है। बाजारों में भी रौनक होती है।
ईद-उल-जुहा
ईद-उल-जुहा हज़रत इब्राहिम की याद में मनाई जाती है, जो अपने बेटे इस्माइल को भी अल्ला के लिए कुर्बान करने को तैयार हो गए थे। यह दिन पवित्र हज करके आने की प्रसन्नता भी प्रकट करता है।
यह इस्लामिक कैलेंडर के आखिरी महीने ‘ज़िल हिज्जा’ के दसवें दिन होता है। इसे पूरी दुनिया में अलग-अलग नामों से पुकारा जाता है, पर लोकप्रिय रूप से यह बड़ी ईद या बकरीद कहलाता है।
ईद-उल-जुहा का इतिहास
माना जाता है कि हज़रत इब्राहिम ने एक बार सपने में अल्लाह को देखा, जो उन्हें मक्का के पवित्र स्थल काबा का आधार ऊंचा करने को कह रहे थे। अल्लाह ने उन्हें अपने बेटे इस्माइल की कुर्बानी देने को भी कहा। अल्लाह के बंदे हज़रत इब्राहिम ने बेटे के साथ मक्का का सफर शुरू किया।
रास्ते में दुष्ट शैतान ने उन्हें अनेक बार पथ से विचलित करना चाहा, पर वे ईमानदारी से अल्लाह के कहे अनुसार चलते रहे। जब वे अपने बेटे इस्माइल को कुर्बान करने वाले थे तो अल्लाह ने उन्हें ऐसा करने से रोक लिया और दुंबा (एक प्रकार की भेड़) की कुर्बानी देने का आदेश दिया।
हज़रत इब्राहिम अल्लाह के हुक्म से बेटे तक की कुर्बानी देने के लिए तैयार हो गए, तभी से बड़े श्रद्धा भाव से कुर्बानी करने की परंपरा शुरू हुई।
ईद-उल-जुहा का समारोह
इस अवसर पर लोग नए वस्त्र पहनते हैं तथा मिलकर नमाज अदा करते हैं। इसके बाद ख़ुतबा पढ़ा जाता है।
इस नमाज़ के बाद बकरी या भेड़ की बलि देने की प्रथा है। यह हज़रत इब्राहिम के नाम से की जाती है। इस कुर्बानी के बाद गोश्त को संबंधियों-मित्रें, पड़ोसियों व जरूरतमंदों में बांटा जाता है।
ईद के दिनों में चारों ओर हर्षोल्लास का वातावरण होता है। लोग उत्सुकता से पूरा वर्ष इन त्योहारों के आने की प्रतीक्षा करते हैं। भारत, पाकिस्तान, मलेशिया व खाड़ी देशों के अलावा दुनिया के अन्य बहुत से देशों में भी इन्हें मनाया जाता है।
कुर्बानी का यह त्योहार पूरी श्रद्धा व विश्वास के साथ मनाया जाता है।
ईद अल्लाह को शुक्रिया कहने का त्योहार है क्योंकि उसने हमें इतना खूबसूरत जीवन दिया। हमें अल्लाह के बताए रास्ते पर चलते हुए पूरी श्रद्धा व सच्चे दिल से इन त्योहारों को मनाना चाहिए।