जयंती विशेष 7 जनवरी : स्वतंत्रता सेनानी जानकी देवी बजाज की जीवन यात्रा
महिलाओं व अछूतों के उत्थान और देश की आजादी के लिए जीवन समर्पित करने वाली

स्वतंत्रता सेनानी जानकी देवी बजाज : आज एक ऐसी महान महिला स्वतंत्रता सेनानी और पद्म विभूषण से सम्मानित महान सामाजिक कार्यकर्ता की जयंती है, जिन्होंने भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन में सक्रिय भूमिका निभाने के साथ-साथ महिला शिक्षा व उनके सामाजिक उत्थान और हरिजनों के जीवन की बेहतरी के लिए, उनके मंदिर में प्रवेश के लिए महत्वपूर्ण काम किया था। पहली बार 17 जुलाई 1928 के ऐतिहासिक दिन को जानकी देवी ने वर्धा में अपने पूर्वजों द्वारा बनवाये गये लक्ष्मीनारायण मंदिर के दरवाजे हरिजनों के लिए खोलने का महत्वपूर्ण काम किया। उस जमाने में अछूतों को स्वतंत्र रूप से स्वीकार करने वाला यह देश का पहला मंदिर था। जानकी देवी बजाज प्रसिद्ध उद्योगपति गाँधीवादी स्वतंत्रता सेनानी जमनालाल बजाज की धर्मपत्नी थीं, जिन्होंने देश के लिए स्वेच्छा से अपने सारे स्वर्ण आभूषणों का त्याग कर दिया और आजीवन कभी कोई स्वर्ण आभूषण नहीं पहना। उन्होंने महात्मा गाँधी के विचारों से प्रेरित होकर सामाजिक कुरीतियों के अंत का शुभारंभ किया था। भारत सिर्फ अंग्रेजों का गुलाम नहीं था। सदियों से फैली सामाजिक बुराईयों, कुप्रथाओं, अंधविश्वास-पाखंडवाद और सामाजिक कुरीतियों के हम ज्यादा गुलाम थे।

जानकी देवी बजाज भारत के प्रमुख सामाजिक परिवर्तन निर्माताओं में से एक थीं। उन्होंने महात्मा गांधी और विनोबा भावे के साथ पर्दा प्रथा और अस्पृश्यता को खत्म करने के लिए अथक प्रयास किया। उन्होंने भारत की आज़ादी के लिए लड़ाई लड़ी और जेल की सजा भोगी। महात्मा गाँधी के प्रभाव में और विनोबा भावे की सच्ची शिष्या के रूप में, वह दूसरों के अनुसरण के लिए प्रेरणा का स्रोत बन गईं। उनका व्यक्तित्व अनेक उत्कृष्ट विशेषताओं से निखरता चला गया और उनके कार्यों को उनकी दृढ़ स्वीकृति प्राप्त हुई। महात्मा गाँधी और विनोबा भावे दोनों ने उनके विकास में सक्रिय रुचि ली। जानकी देवी के पूरे चरित्र को बापू के सानिध्य, सद्परामर्श, विनोबा के स्नेह और आशीर्वाद तथा स्वयं के आत्म-अनुशासन और रचनात्मकता के कारण एक अद्भुत आभा प्राप्त हुई। वह अपने समय की गाँधीवादी सामाजिक कार्यकर्ताओं में प्रथम बनीं। आजादी के बाद भी समाज सेवा के क्षेत्र में उनका योगदान उल्लेखनीय रहा। विनोबा भावे के भूदान आंदोलन में उन्होंने बढ़-चढ़कर भाग लिया और दलित- वंचित वर्ग व भूमिहीन किसानों को भूमि दिलाने का कार्य किया।
जानकी देवी का जन्म 7 जनवरी 1893 को मध्य प्रदेश के जरौरा में एक संपन्न वैष्णव-मारवाड़ी परिवार में हुआ था। प्रारंभिक शिक्षा के कुछ सालों बाद ही उनके छोटे-छोटे कंधों पर घर गृहस्थी की जिम्मेदारी डाल दी गयी। मात्र आठ साल की कच्ची उम्र में ही उनका विवाह, संपन्न बजाज घराने में कर दिया गया। विवाह के बाद उन्हें 1902 में जरौरा छोड़ अपने पति जमनालाल बजाज के साथ महाराष्ट्र के वर्धा आना पड़ा। जमनालाल बजाज, महात्मा गाँधी से प्रभावित थे और उन्होंने उनकी सादगी को अपने जीवन में उतार लिया था। जानकी देवी भी स्वेच्छा से अपने पति के नक़्श-ए-कदम पर चलीं और त्याग के रास्ते को अपना लिया। इसकी शुरुआत स्वर्णाभूषणों के दान के साथ हुई। गाँधीजी के आम जनमानस के लिए दिए गए जनसंदेश का जिक्र जमनालाल जी ने एक पत्र में जानकी देवी से किया था। उस वक़्त वह 24 साल की थीं।
1921 में महात्मा गाँधी के स्वदेशी आंदोलन से प्रेरित होकर जानकी देवी ने घर और बाहर इस्तेमाल होने वाले विदेशी कपड़ों को जला दिया। उन्होंने सभी को खादी के वस्त्र पहनाये। संत विनोबा भावे बजाज परिवार के आध्यात्मिक गुरु थे। जानकी देवी की बच्चों सी निश्चलता से आचार्य विनोबा भावे इतने प्रभावित हुए कि उनके छोटे भाई ही बन गये। जानकी देवी के तीन पुत्री व दो पुत्र कुल पांच संतान थीं। एक संपन्न घराने की बहू होने के बावजूद जानकी देवी ने देश की आजादी के लिए हर सुख-सुविधाओं का खुशी-खुशी त्याग कर दिया। बच्चों सहित जानकी देवी का पूरा परिवार महात्मा गाँधी के साथ आजादी के आंदोलन में सक्रिय था। जानकी देवी बजाज देश की प्रसिद्ध स्वतंत्रता सेनानी थीं, जिनका महिलाओं के सामाजिक उत्थान और ‘हरिजनों’ की जीवनशैली में सुधार के क्षेत्र में योगदान सराहनीय है।
सविनय अवज्ञा आंदोलन में सक्रिय भागीदारी के लिए उन्हें वर्ष 1932 में अंग्रेजों द्वारा कैद कर लिया गया था। जानकी देवी बजाज ने ‘खादी’ और ‘चरखा’ पर सूत कातने की स्वदेशी अवधारणा को अपनाने के अलावा, 1928 के दौरान मंदिरों और अन्य धार्मिक स्थानों में हरिजनों को प्रवेश की अनुमति दिलानें में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। जानकी देवी की प्रसिद्धि बहुत दूर तक थी। उन्होंने महिलाओं की शिक्षा को बढ़ावा दिया। आचार्य विनोबा भावे के साथ वह कूपदान, ग्रामसेवा, गौसेवा और भूदान जैसे आंदोलनों से जुड़ी रहीं। गौसेवा के प्रति उनके जुनून के चलते वह 1942 से कई सालों तक अखिल भारतीय गौ सेवा संघ की अध्यक्ष रहीं।
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उनका जन्म 7 जनवरी 1893 को एक संपन्न मारवाड़ी परिवार में हुआ था। महज आठ साल की उम्र में उनका विवाह जमनालाल बजाज से कर दिया गया और 1902 में वे महाराष्ट्र के वर्धा नगर आ गईं। जमनालाल जी – जिन्हें गाँधीजी अपना पांचवा पुत्र मानते थे, सादगी भरा जीवन व्यतीत कर रहे थे। उनका परिवार संपन्न था लेकिन तब तक वे उद्योगपति नहीं बने थे।
आत्मकथा में जानकी देवी लिखती हैं कि पति के त्याग और सादगी ने उन्हें भी गाँधी के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित किया। जानकी देवी ने जमनालाल के कहने पर सामाजिक वैभव और कुलीनता के प्रतीक बन चुकी पर्दा प्रथा का त्याग करने में ज़रा भी झिझक नहीं दिखाई। उन्होंने अन्य महिलाओं को भी पर्दा प्रथा त्यागने के लिए प्रोत्साहित किया। यह 1919 की बात है, जब जानकी देवी की उम्र 26 साल थी। दो वर्ष बाद उन्होंने अपने रेशम के वस्त्रों को त्याग कर खादी को अपनाया। वो अपने हाथों से सूत काततीं और सैकड़ों लोगों को भी सूत कातना सिखातीं।
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वर्धा में जब विदेशी सामानों की होली जलायी जा रही थी, जानकी देवी ने तब विदेशी कपड़ों के थान आग में झोंकने में महिलाओं की अगुवाई की। तब तक गाँधी की प्रेरणा का पारस – स्पर्श पाकर बजाज परिवार की पूरी तरह स्वदेशी आंदोलन में उतर चुका था। असहयोग आन्दोलन के दौरान गाँधी जी ने किसी जनसभा में भारतीयों – विशेषकर महिलाओं से, स्वर्णाभूषण दान करने की अपील की। यह बात जमनालाल जी ने अपनी पत्नी को चिट्ठी में लिखकर बताई। जानकी जी ने उसी वक़्त अपने स्वर्णाभूषण त्याग दिए और जीवन में फिर कभी सोना धारण नहीं किया।
17 जुलाई 1928 को जानकी जी जमनालाल बजाज जी के साथ वर्धा के लक्ष्मीनारायण मंदिर पहुंची और उसके दरवाज़े सर्वसाधारण के लिए खोल दिए । छुआछूत के खिलाफ यह एक क्रांतिकारी कदम था। लेकिन अस्पृश्यता के विरुद्ध लड़ाई में वे यहीं नहीं रुकीं। उन्होंने अपने घर में रसोई के लिए एक दलित स्त्री को रखा और उसे भोजन पकाना सिखाया। धीरे – धीरे जानकी देवी का समाज सुधारक के रूप में स्वतंत्र व्यक्तित्व सामने आने लगा। गांधी जी का सन्देश देने के लिए वे सार्वजनिक गतिविधियों में पूरी तरह व्यस्त हो गईं। उनकी प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैलने लगी।
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जानकी देवी राजनीतिक आंदोलनों से ज्यादा सामाजिक सुधार के कार्यक्रमों में दिलचस्पी लेती थीं। यही वजह उन्हें विनोबा भावे के करीब ले आई। भूदान आंदोलन के प्रणेता के साथ उन्होंने कूप दान, ग्राम सेवा, गौसेवा और भू दान जैसे आन्दोलनों में बढ़चढ़कर हिस्सा लिया। महिला शिक्षा के मुद्दे पर भी उन्होंने बहुत काम किया। वे 1942 से कई वर्षों तक अखिल भारतीय गौ सेवा संघ की अध्यक्ष रहीं। आत्मकथा में उन्होंने ज़िक्र किया है कि गायों के लिए उनमे बचपन से ही अपार प्रेम था। उन्होंने कुटीर उद्योग के माध्यम से ग्रामीण विकास में काफी सहयोग किया। उनके व्यक्तित्व में एक विरोधाभास सा था। वे दानी भी थीं और मितव्ययी भी, कठोर भी थीं लेकिन दयालु भी। इस विरोधाभास को विनोबाजी ने आत्मकथा की प्रस्तावना में रेखांकित किया है।
देश आज़ाद होने के बाद भी जानकी देवी की सामाजिक कार्यों में व्यस्तता कम नहीं हुई। वर्ष 1956 में सामाजिक कार्यों के लिए भारत सरकार ने उन्हें पद्म विभूषण से सम्मानित किया। 21 मई 1979 को 86 वर्ष की उम्र में उनका देहांत हो गया। उल्लेखनीय है कि प्रख्यात उद्योगपति राहुल बजाज एवं शेखर बजाज उनके पौत्र हैं। फ़िक्की अर्थात फ़ेडेरेशन ऑफ़ चैम्बर्स ऑफ़ कॉमर्स ऑफ़ इंडिया की महिला विंग ने ग्रामीण उद्यमियों के लिए सन 1992-93 में (जानकी जी की जन्म शताब्दी के अवसर पर) आई.एम.सी महिला विंग जानकी देवी पुरस्कार की स्थापना की है।
जानकी देवी बजाज सचमुच काम के प्रति समर्पित, सच्ची कर्मयोगिनी थीं। 1956 में उन्हें भारत सरकार द्वारा ‘पद्म विभूषण’ के सम्मान से सम्मानित किया गया, जो उन्हें भारत के राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद द्वारा प्रदान किया गया था। उनके व्यक्तित्व के आगे पुरस्कार और आभूषण फीके पड़ गये। वास्तव में, यह कृतज्ञता और सम्मान की अभिव्यक्ति थी, जिसे भारत सरकार ने भारत के लोगों की ओर से प्रदर्शित किया। 1965 में जानकी देवी बजाज की आत्मकथा “मेरी जीवन यात्रा” प्रकाशित हुई। 21 मई 1979 को 86 वर्ष की उम्र में उनका देहांत हो गया। उनकी स्मृति में कई शैक्षणिक संस्थान और पुरस्कार स्थापित किये गए हैं। जिनमें – “जानकी देवी बजाज इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेन्ट स्टडीज” और बजाज द्वारा स्थापित “जानकी देवी बजाज ग्राम विकास संस्थान” शामिल हैं। सन् 1992- 93 में भारतीय व्यापारियों की महिला विंग ने ग्रामीण उद्यमियों के लिए “महिला विंग जानकी देवी बजाज पुरस्कार” की स्थापना की है। ऐसी महान विभूति, क्रांतिकारी महिला को आदर्श समाज समिति इंडिया परिवार नमन करता है।