पितृ दिवस : पिता एक छांव
पितृ दिवस : पिता एक छांव

पिता एक छांव की तरह है इर्दगिर्द मेरे
नहीं लगने दी तपिश उन्होंने बनकर वटवृक्ष मेरे ।
सच्चाई, ईमानदारी और कठोर मेहनत के वो हिमायती
पाला ऐसे उन्होंने हमें कि न जीना पड़े रियायती।
मेहनतकश किसान ने, कैसे हमें पढ़ाया लिखाया
शायद निष्काम कर्म उनसे ज्यादा कोई समझ न पाया ।
रत्ती ,पाव का सिखाया हमें पहाड़ा ,शायद दुनियादारी की
पाठशाला का यह भी था प्रथम अध्याय ,चाहे हो जीवन या हो स्वाध्याय ।
वो मुझसे कहते है कि बेटा !
मैंने तो सीखा है रेत पे उंगलियों की कलम से
ताकि तुम करो मेहनत शिद्दत और लगन से ।
अधिक न पढ़कर भी वैज्ञानिक सोच वो हैं रखते
हर वार ,त्योहार अच्छा है बेटा
अंधविश्ववास को कभी न जगह देते
बने हम पहले सही मायनों में इंसान इसी बात को तरजीह देते ।
करके कांदा रोटी का सीरावन वो जोता करते हल दिन रात
शायद बैलों से ज्यादा उनकी जुगत, उनका परिश्रम होता
फिर किसी दिन आता लाटा निकलने का वक्त
तभी पश्चिम विक्षोभ की गुस्सैल छींटे पड़ जाती धान के ढेर पे
और पिताजी की तरह न जाने कितने किसानों का सर्वस्व लुट जाता
साथ में बह जाते सपने
जो किसी को थे चुकाने ,
भरना था मायरा ,
लगाने थे दो पत्थर मकान के किसी बिखरते कोने में ,
करना था ब्याह बिटिया का,
मनाना था त्योहार दीवाली का
पर विक्षोभ ने तो जैसे बरस के जला दिए हो जागती आंखों के सपनों को ।
तोड़ के कमर किसान की , तोड़ दिया हो अपनों को ।
अब काले मूंग कहकर
बिचौलिया तोलेगा आधा
टूटे मन से वो काले मूंग वापस ले आते घर
कौन खरीदेगा इन्हें ,
भीग गए हैं मेह मैं अब कौन इन्हें बाजार में गिने।
इतने में आ गया है बड़ी बुआ का मायरा
यह भी निभानी है कसम
पुरखों की है जो चली आ रही है रसम,
मृत्यभोज जैसी कई कुरीतियों को पड़ा है उन्हें निभाना
चाहे उठ जाए किसी की भस्म ।
वो बताते है हमें
प्रचलित साहूकारी और छपनियाअकाल की बातें ,
कभी टूटती नाडी की पाल तो कभी टपकती रातें ,
मालवा की और ले जाते पशुओं की लंबी बारातें ,
सूखते गले और चिपकती आंतें।
गांव में बस खेती और पशु पे आश्रित अर्थव्यवस्था की बातें,
सूत कातकर चारपाई बनाने की बातें,
सामूहिक होली_ दिवाली मनाने की बातें ।
मां का ताउम्र हर परिस्थिति में साथ चलने की बातें ।।
पुरखों के खेजड़ी के छाल खाके जीने की जिजीविषा ।
इस बार वक्त पे बरसेगा मेह की अभिलाषा ।।
जब दादी गई समा जमीन में
पिता न रो पाए , अब वो अपनी दुनिया में सबसे बड़े थे ,
उनको भी कोई कहता था बेटा
अब वो अकेले खड़े थे ।।
जब विदा हुई उनकी बेटियां, वो आंसु फिर छिपा गए
शायद उन्हें नहीं आता जताना प्रेम या दुख आंसुओं से
यह भी शायद उनके पुरुष होने का है यथार्थ ,
या कोई जीवन का सत्यार्थ ।
मुझे हर मुश्किल में है वो थामते
रहे स्वयं उनके हाथ चाहे कांपते
हमारी स्थिरता के लिए जिंदगी भर रहे वो भागते ,
उनके जज्बे के आगे दुख भी है हाँपते।
पिता से ही हैं ’उमा’ का अस्तित्व,
मेरा आज, मेरा कल
रहूं बस उनकी छांव में
यहीं है मेरा स्वप्न हर पल।
– उमा व्यास (एसआई, राज.पुलिस)
वॉलिंटियर, श्री कल्पतरु संस्थान