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गुटखा खाने वाली औरतें : जिन्हें लगता है यह भी है तरीका है नारीवादी होने की परम्परा निभाने का।


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गुटखा खाने वाली औरतें : जिन्हें लगता है यह भी है तरीका है नारीवादी होने की परम्परा निभाने का।

गुटखा खाने वाली औरतें : जिन्हें लगता है यह भी है तरीका है नारीवादी होने की परम्परा निभाने का।

गुटखा खाने वाली औरतें
जिन्हें लगता है यह भी है तरीका है नारीवादी होने की परम्परा निभाने का।

वो थूक के पीलापन ,थूक देती है
समाज के उस ढर्रे पे जो भेद
करता है ,उनके पसीने को कमतर आंकने में

वो थूक देती है हर उन परेशानियों को जो उनको हर दिन होती है,
पोछा लगाने में रह गए किसी कोने के लिए,
बर्तन मांजते वक्त रह गए किसी कटोरी पे जमी खुरचन के लिए,
साथ में आए बच्चों के मालकिन के बच्चों के साथ घुल मिलने के लिए ,
उसकी काख़ से आती पसीने की बास के लिए

सीमेंट से भरी बड़ी तगारी गिर जाने के लिए
कभी थोड़ा देरी से आने पे तो कभी बीमार होने के लिए
किसी त्योहार पे छुट्टी मांगने या
कभी बची बासी सब्जी बिना पूछे ले जाने के लिए

वो हर बात पे डाँटी जाती है
वैसे मैंने देखा है
इन्हें कोई हक़ नहीं कोई वार ,कोई त्योहार मनाने का
उनके लटके हाथों और पेट निकले बच्चों को देखकर लगता है
शायद प्रोटीन के पैर इनके बच्चों तक आते आते थक जाते होंगे।

न जाने कितने घरों की सफाई का जिम्मा लिए
वो खुद के छप्पर से उस घरौंदे को साफ करना क्यों भूल जाती हैं
उनका कब्जा ऐसे ही फंसा रहता है शरीर से, जैसे चमड़ी चिपकी हो
उनकी हड्डियों से
उसी से वो चोर नजर से निकाल के पुड़िया
निचले होठ पे रख लेती है कुछ दाने
और कुछ चुना भी
वो कर्क रोग से बेपरवाह है
उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता
क्योंकि उनकी नजर में जीवन और मृत्यु में जो सूक्ष्म अंतर हैं उसे ही वो जी रही है
उसे किसी में भेद करना स्वीकार्य नहीं
चाहे वो मौत हो या हो जीवन ।
उसे सुबह काम पे जाने से मिलने वाली दिहाड़ी से मतलब है
ताकि वो फिर खरीद सके वही पुड़िया

उन्हें ताज्जुब है भारत ,भारत से इंडिया हो गया
उनकी जिंदगी में बिना तब्दीली यह कैसे हो गया

उन्हें शायद यह पता नहीं
प्रति व्यक्ति आय की गणना में
उनकी कोई गणना नहीं
मुझे हैरत होती है कि कैसे
वो दो ढाई हजार बचा के उसमें
भी पुड़िया का खर्चा बचा लेती है

शायद उनके आदमी जिन्हें मैने अक्सर सुना उन्हें मर्द संबोधित करते हुए

शायद वो कटाक्ष करती हैं उनपर ’मर्द’ कहकर
पड़े रहते है वो पव्वा पीकर

बिहारी की नायिका के वक्र में ”उमा” महज़ पतली कमर ही उनके गुटखा खाने वाली औरतें
जिन्हें लगता है यह भी है तरीका है नारीवादी होने की परम्परा निभाने का।

वो थूक के पीलापन ,थूक देती है
समाज के उस ढर्रे पे जो भेद
करता है ,उनके पसीने को कमतर आंकने में

वो थूक देती है हर उन परेशानियों को जो उनको हर दिन होती है,
पोछा लगाने में रह गए किसी कोने के लिए,
बर्तन मांजते वक्त रह गए किसी कटोरी पे जमी खुरचन के लिए,
साथ में आए बच्चों के मालकिन के बच्चों के साथ घुल मिलने के लिए ,
उसकी काख़ से आती पसीने की बास के लिए

सीमेंट से भरी बड़ी तगारी गिर जाने के लिए
कभी थोड़ा देरी से आने पे तो कभी बीमार होने के लिए
किसी त्योहार को छुट्टी मांगने या
कभी बची बासी सब्जी बिना पूछे ले जाने पे

वो हर बात पे डाँटी जाती है

वैसे मैंने देखा है
इन्हें कोई हक़ नहीं कोई वार ,कोई त्योहार मनाने का
उनके लटके हाथों और पेट निकले बच्चों को देखकर लगता है
शायद प्रोटीन के पैर इनके बच्चों तक आते आते थक जाते होंगे।

न जाने कितने घरों की सफाई का जिम्मा लिए
वो खुद के छप्पर से उस घरौंदे को साफ करना क्यों भूल जाती हैं
उनका कब्जा ऐसे ही फंसा रहता है शरीर से, जैसे हड्डियां चिपकी हो
उनकी चमड़ी से
उसी से वो चोर नजर से निकाल के पुड़िया
निचले होठ पे रख लेती है कुछ दाने
और चुना भी
वो कर्क रोग से बेपरवाह है
उसे कोई फर्क नहीं पड़ता
क्योंकि उसकी नजर में जीवन और मृत्यु में जो सूक्ष्म अंतर हैं उसे ही वो जी रही है
उसे किसी में भेद करना स्वीकार्य नहीं
चाहे वो मौत हो या हो जीवन ।
उसे सुबह काम पे जाने से मिलने वाली दिहाड़ी से मतलब है
ताकि वो फिर खरीद सके

उन्हें ताज्जुब है भारत बढ़ने में चौथा देश हो गया
उनकी जिंदगी में बिना तब्दीली यह कैसे हो गया

उन्हें शायद यह पता नहीं
प्रति व्यक्ति आय की गणना में
उनकी कोई गणना नहीं
मुझे हैरत होती है कि कैसे
वो दो ढाई हजार बचा के उसमें
भी पुड़िया का खर्चा बचा लेती है

शायद उनके आदमी जिन्हें मैने अक्सर सुना मर्द कहते हुए

शायद वो कटाक्ष करती हैं उनपर मर्द कहकर
पड़े रहते है वो दीदी पव्वा पीकर
बिहारी की नायिका की कल्पना में ’उमा’ महज़ पतली कमर ही उनके हिस्से आई हैं
बाकी तो वो इसी देह के भंगुर कंधों पे अनगिनत जिम्मेदारियों ढोने आई हैं।।
उमा व्यास ( सब इंस्पेक्टर,कोटा पुलिस )
वॉलंटियर,श्री कल्पतरु संस्थान

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