
क्या तुमने देखा है भागती भीड़ को भागते
वह किस तरफ जाती है ।
क्या तुम्हें पता है,वो गुरूत्वाकर्षण की तरह कौनसा
बल है,जो इतने मुंडो को एक और खींच लेता है।
कभी सामुदायिक द्वेष, कभी छेड़छाड़ या
कभी कोई डीजे वाला धार्मिक मेला
हर तरफ जैसे चलता है रैला ।
कभी भीड़ चढ़ जाती है हाथ, उन्मादी ताकतों के
कभी वो बन जाती है जहर, भीड़ में आके कुछ
शराफत वाले चेहरे भी हो जाते है बेनकाब ।
किसी धार्मिक पर्व की आस्था तो किसी खेल का अंध संग्राम है
किसी जानवर की प्रतिस्पर्धा का बेहिसाब परिणाम है ।
जानवरों के साथ दौड़कर भीड़ भी बन जाती है पशु
वैसे भीड़ व्यक्ति का मूलरूप है, स्वरूप है
पर वो निर्बाध होके जानवर से बदतर है ।
जानवर तो स्वयं अंकुश लगा लेते हैं
भीड़ के पैर तो कइयों को कुचल के रुक पाते हैं
कभी भीड़ उस प्रेमी युगल को रौंद डालती है ।
जो उसके नैतिक पुलिसिंग के प्रतिमान पे खरा न उतर पाए ।
और इसी भीड़ का हिस्सा बनके न जाने कितने
भेड़िए भी इंसानी मुखौटे में चले आते है
कभी यह पंक्तिबंध हो बैंडवेगन इफ़ेक्ट को
साबित कर जाती हैं ।
कभी बन के यह एकता का प्रतीक
सत्ता तक बदला जाती हैं
कभी यह किसी मूक की आवाज बन
उसे इंसाफ दिला जाती हैं ।
कभी बन के चेहरा लोकतंत्र का
अमेरिका ,फ्रांस की क्रांति भी कर जाती हैं।
‘उमा’ तुम्हें बनना ही पड़े अगर हिस्सा भीड़ का
तुम बनो निर्भीक, निडर विवेकशील
जिसका कोई चेहरा हो, कोई नाम हो
– उमा व्यास (SI राज. पुलिस), वॉलंटियर,श्री कल्पतरु संस्थान