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तेरे नाम की ख़ामोशी


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लाइफस्टाइल

तेरे नाम की ख़ामोशी

तेरे नाम की ख़ामोशी

हर पल गुजरता रहा बस इक आस में,
तेरी यादें नहीं, तू होता इस पल पास में,
तेरे साथ बिताया हर पल इस तरह है मेरे साथ,
जैसे जुगनू फिरता है अंधेरे की तलाश में।।
गैरों के शहर में मन अक्सर नहीं लगता,
महफ़िल में तू होता तो दिल रख देते गिलास में।।

सच का क्या है, सच कबूला नहीं जाता,
इश्क़ में इश्क़ से कुछ वसूला नहीं जाता,
सारी रात चांद मुझे समझता रहा,
करवटें बदलने से इश्क़ भुलाया नहीं जाता।

बारिश की बूंदें पूछती हैं मुझसे – तुम यही हो ना?
परिंदों की चहचहाहट पूछती है मुझसे – तुम यही हो ना?
वैसे तुम बता चुके हो मुझे कई दफ़ा,
फिर मेरी रूह पूछती है मुझसे – कि तुम यहीं हो ना?
तुमसे बिछड़ने का डर ज़ेहन पर भारी राहत है,
फिर तुम्हारी यादें मुझसे पूछती हैं – कि तुम यही हो ना?

तेरी यादों पर इतराते हैं, तू जहान थोड़ी है,
तेरे होने के एहसास से ज़मीं पे पाँव थोड़ी है,
एक आशियाना बनाना तो है तेरे साथ,
ऊपर मत ताक, ज़मीं से ऊँचा आसमान थोड़ी है।
और ज़माने की रूसवाइयों से दिल छोटा ना कर,
यह सिर्फ़ दुनिया का चर्बा है, पूरा जहां थोड़ी है।

मौसम में थोड़ी नमी अभी बाकी है,
इज़हार में थोड़ी कमी अभी बाकी है,
मैं ना कहता था – सोच लो दिल लगाने से पहले,
दीवानगी की सनक थोड़ी अभी बाकी है।
तेरी तस्वीर भी बड़ी बातूनी है मेरे साथ,
पर तुझसे थोड़ी बात अभी बाकी है।

आपको हमारी फ़िक्र शायद सज़ा लगती है,
पर हमें तेरी हर बात खुदा की रज़ा लगती है।
तेरे सिवा और किस पर जान छिड़के?
यह दुनिया मुझे कमबख़्त बड़ी बेवफ़ा लगती है।
तेरे सिवा और कौन है मेरा यहाँ?
अब तुझे भी मेरी बातें बकवास लगती हैं।
मालूम है आसान नहीं होता मुझ जैसे पागल को झेलना,
यार, ग़ुस्से में तेरी बातें और भी मुझे ख़ास लगती हैं।
तेरा भी हाल मुझे समझना चाहिए था यार,
पर तेरी आवाज़ मुझे हर मर्ज़ की दवा लगती है।

मैं तो संभल रहा था, पर यह ख़बर आम हो गई,
संभलता क्या, संभालते-संभालते उम्र तमाम हो गई।
यह तल्ख़ लहजा, आवारा मन भी तराना था इश्क़ का,
संभालते-संभालते रिश्ते की शाम हो गई।
ज़माना चीखता रहा – अब तो संभल जा थोड़ा,
पता नहीं चला, कब ज़िंदगी तेरे नाम हो गई।

क्या रखा है इस बुज़दिल संसार में?
देखा कितना दम है इश्क़ के मयार में।
जफ़ा की उम्मीद में ख़ून का पानी करते जाइए,
वफ़ा का सिला थोड़ी मिलता है प्यार में।
हम चाहत के काँटों को फूल करते रह गए,
और बेवफ़ाई धार लगती रही तलवार में।
बेरुख़ी का आलम ये – कि हाल भी न पूछा उसने,
और हम उसके होने का ढिंढोरा पीटते रहे अख़बार में।
उसके आने से तर्ज़-ए-सुख़न तो बेशक़ मिला हमें,
वो ज़िंदगी से गुज़रा, तो इश्क़ भी गुज़र गया गुबार में।

✒️कुँ. पंकज सिंह

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