कविता : पिता की भावशून्यता
कविता : पिता की भावशून्यता

जंग लगा तंत्र, रद्दी गैंग के मंत्र
या दो नेताओं के जंत्र
हर किसी को चाह थी भर्ती रद्द की
अब कोई तो आगे आके इस प्रायोजित हत्या का भी श्रेय लो।
तुम्हारी तुच्छ राजनीति चमक उठेगी
किसी गरीब के घर अंधेरा करके
पर किसी दिन तो तुम्हारी हस्ती भी मिटेगी
सब लौट के तुम्हारे दरवाजे पे दस्तक देगा
गरीबी, लाचारी न सही
हारी, बीमारी और दुश्वारी ही सही
उस दिन तुम शायद सोच पाओ उस बूढ़ी माँ की
नौ महीने से सत्ताईस साल की कठोर यात्रा को
जो हो सकता है मानसिक विक्षिप्त हो
पर जितने विकृत तुम हो उनसे कई गुना बेहतर है वह माई
तुम उस पिता के दर्द को समझ पाओ जो कभी
मुफलिसी में अपने पुत्र के नौकरी से चट्टान था
और आज उसकी लाश के पीछे खड़ा पत्थर हो चुका है
भाव शून्यता उनके लिए ताउम्र साथ रहेगी
आखिर ऐसा क्या गुनाह किया होगा उनके बेटे ने
झुग्गी झोपड़ी में सपना देखने का
शायद यही उसे नहीं करना था
बजाय उसके वह कहीं दिहाड़ी मजदूर होके
गारा पत्थर उठा रहा होता
बजाय खुद के आज पत्थर सा होके लेट जाने के
यक्ष प्रश्न यह है उसकी मौत का जिम्मेदार कौन है ?
क्या उसकी मौत की जाँच कोई ‘जॉच एजेंसी’ कर पाएगी ?
मैंने देखा है उसकी झोपड़ी के दरवाजा नहीं हैं
वहाँ चार बूढ़ी आँखें राह देख रही हैं कि न्याय कब आता है।
(चयनित एस.आई. स्व. राजेंद्र सैनी को समर्पित) – उमा व्यास, एस.आई. राज. पुलिस, वॉलंटियर, श्री कल्पतरु संस्थान