अस्पृश्यता के खिलाफ़ जंग लड़ने वाली गाँधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता और महिला सशक्तिकरण की प्रतीक थी: स्वतंत्रता सेनानी जानकी देवी बजाज
अस्पृश्यता के खिलाफ़ जंग लड़ने वाली गाँधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता और महिला सशक्तिकरण की प्रतीक थी: स्वतंत्रता सेनानी जानकी देवी बजाज

सूरजगढ़ : जानकी देवी बजाज “पद्म विभूषण” से सम्मानित देश की महिला स्वतंत्रता सेनानी और गाँधीवादी महान सामाजिक कार्यकर्ता थीं। जानकी देवी बजाज महाराष्ट्र के वर्धा के बेहद सम्पन्न घराने की बहू प्रसिद्ध उद्योगपति व गाँधीवादी स्वतंत्रता सेनानी जमनालाल बजाज की धर्मपत्नी थीं। जिन्होंने देश के लिए स्वेच्छा से अपने सारे स्वर्ण आभूषणों का त्याग कर दिया था और आजीवन कभी कोई स्वर्ण आभूषण नहीं पहना था। जानकी देवी बजाज भारत के प्रमुख सामाजिक परिवर्तन निर्माताओं में से एक थीं। उन्होंने महात्मा गाँधी और विनोबा भावे के साथ पर्दा प्रथा और अस्पृश्यता को खत्म करने के लिए अथक प्रयास किया। उन्होंने भारत की आज़ादी के लिए लड़ाई लड़ी और जेल गई। वह एक ऐसे देश की कामना करती थीं, जो सभी महिलाओं का सम्मान करता हो और सामाजिक बुराइयों से मुक्त हो। ऐसे देश में जहाँ स्त्री को देवी माना जाता है, लेकिन वही स्त्री जीवन-भर अपने सम्मान के लिए जूझती रहती है। जानकी देवी ने न सिर्फ़ स्त्रियों को जागरूक किया, एक पुरुष की सोच से भी आगे जाकर उन्होंने छूआछूत, पर्दा-प्रथा, स्वदेशी जागरूकता, भूदान, कूपदान और गौसेवा जैसे आंदोलनों से जुड़ी रहीं। उनकी सजगता, सक्रियता और ज़िंदादिली से आचार्य विनोबा भावे इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने जानकी देवी को बड़ी बहन का दर्जा दे दिया। एक अमीर परिवार में जन्मीं और देश के सबसे बड़े उद्यमी परिवार में ब्याही जानक देवी के सामने आराम की ज़िंदगी जीने का चुनाव खुला पड़ा था, लेकिन उन्होंने अपने पति जमनालाल बजाज के नक्श-ए-क़दम पर चलने का निश्चय किया और देश को आज़ाद करवाने में अपनी अहम भूमिका निभाई। महात्मा गाँधी ने उनके जीवन को काफी प्रभावित किया, उन्होंने पहले गाँधीजी के दर्शन को समझा और फ़िर उनकी विचारधारा को अपने जीवन में उतारा। जानकी देवी बजाज गाँधीवादी जीवन शैली की कट्टर समर्थक थीं। उन्होंने कुटीर उद्योग के माध्यम से ग्रामीण विकास में काफी सहयोग किया। वह एक स्वावलंबी महिला थीं, जिन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रूप से भाग लिया था। उनके व्यक्तित्व में एक विरोधाभास-सा था। जानकी देवी बजाज जहाँ दानी, मित्तव्ययी और कठोर थीं, वहीं दूसरी ओर दयालु भी बहुत थीं।\
जानकी देवी का जन्म 7 जनवरी 1893 को मध्य प्रदेश के जरौरा में एक संपन्न वैष्णव-मारवाड़ी परिवार में हुआ। प्रारंभिक शिक्षा के कुछ सालों बाद ही उनके छोटे-छोटे कंधों पर घर गृहस्थी की जिम्मेदारी डाल दी गयी। मात्र आठ साल की कच्ची उम्र में ही उनका विवाह, संपन्न बजाज घराने में कर दिया गया। विवाह के बाद उन्हें 1902 में जरौरा छोड़ अपने पति जमनालाल बजाज के साथ महाराष्ट्र के वर्धा आना पड़ा। जमनालाल बजाज गाँधीजी से प्रभावित थे और उन्होंने उनकी सादगी को अपने जीवन में उतार लिया था। जानकी देवी भी स्वेच्छा से अपने पति के नक़्श-ए-कदम पर चलीं और त्याग के रास्ते को अपना लिया। इसकी शुरुआत स्वर्णाभूषणों के दान के साथ हुई। गाँधीजी के आम जनमानस के लिए दिए गए जनसंदेश का जिक्र जमनालाल बजाज ने एक पत्र में जानकी देवी से किया था। उस वक़्त वह 24 साल की थीं। संत विनोबा भावे बजाज परिवार के आध्यात्मिक गुरु थे। जानकी देवी की बच्चों सी निश्चलता से आचार्य विनोबा भावे इतने प्रभावित हुए कि उनके छोटे भाई ही बन गये। जानकी देवी ने जमनालाल बजाज के कहने पर सामजिक वैभव और कुलीनता के प्रतीक बन चुके पर्दा प्रथा का त्याग कर दिया था। उन्होंने सभी महिलाओं को भी इसे त्यागने के लिए प्रोत्साहित किया। साल 1919 में उनके इस कदम से प्रेरित होकर हज़ारों महिलाएं आज़ाद महसूस कर रही थीं, जो कभी घर से बाहर भी नहीं निकलीं थीं। 1920 में महात्मा गाँधी द्वारा शुरू किये असहयोग आंदोलन में जानकी देवी ने बढ़ चढ़कर भाग लिया। वर्ष 1921 में गाँधीजी से प्रेरित होकर जानकी देवी ने घर के अंदर और बाहर इस्तेमाल होने वाले विदेशी कपड़ों को जला दिया। उन्होंने सभी को खादी पहनाई। वह दिन-रात चरखा और तकली पर काम करती थीं और घर-घर जाकर चरखा चलाना सिखाती थीं। उनके भीतर छिपी क्षमता बापू के सानिध्य में कई गुना अधिक अभिव्यक्त हुई। उनकी रचनात्मक प्रतिभा ने रचनात्मक मोड़ लिया और मातृभूमि के प्रति प्रेम उनके भीतर प्रबल हो गया। मितव्ययिता और प्रत्येक वस्तु का अधिकतम उपयोग उनकी जीवन शैली का हिस्सा बन गया। उन्होंने अपने जीवन का हर क्षण रचनात्मक कार्यों में बिताया और अपने दृढ़ विश्वास को जीवन में उतारा। गाँधीजी से प्रेरित होकर उन्होंने भेदभाव और छुआछूत जैसी बुराई को जड़ से उखाड़ कर फेंकने का संकल्प लिया। भारत में पहली बार 17 जुलाई, 1928 के ऐतिहासिक दिन को जानकी देवी बजाज अपने पति और हरिजनों के साथ वर्धा के लक्ष्मीनारायण मंदिर पहुँचीं और मंदिर के दरवाजे हर किसी के लिए खोल दिये। अस्पृश्यता के ख़िलाफ उनकी ये जंग लोगों के लिए एक नया सबक थी। उन्होंने अपने घर में खाना बनाने के लिए एक दलित महाराजिन को रखा और उसे खाना बनाना सिखाया। उनके कदम जो बढ़े तो फिर रुके नहीं। जानकी देवी अपने मजबूत क़दमों से ग्रामीण भारत के इलाकों में भी उन तमाम लोगों को जागरूक करने में लगीं हुयी थीं जो स्वतंत्र भारत के ख़्वाब देखते थे। जानकी देवी ने वर्धा में अपने घर की चार दीवारी से निकल कर गाँधीजी के जनसंदेश को हजारों लोगों के दिलों तक पहुँचाया। जब वह जन सैलाब के बीच स्वराज का भाषण दिया करती थी, तो श्रोता मंत्रमुग्ध होकर उन्हें सुनते थे। स्वतंत्रता संग्राम के दिनों में वह कई बार जेल भी गयीं। उस वक़्त उनके अंदर एक सच्ची नायिका जन्म ले चुकी थी। जानकी देवी की प्रसिद्धि बहुत दूर तक थी। उन्होंने महिलाओं की शिक्षा को बढ़ावा दिया। आचार्य विनोबा भावे के साथ वह कूपदान, ग्रामसेवा, गौसेवा और भूदान जैसे आंदोलनों से जुड़ी रहीं। गौसेवा के प्रति उनके जूनून के चलते वह 1942 से कई सालों तक ‘अखिल भारतीय गौसेवा संघ’ की अध्यक्ष रहीं।
जानकी देवी बजाज का परिवार आजादी की लड़ाई और राष्ट्र सेवा में समर्पित था। जानकी देवी बजाज के तीन पुत्री और दो पुत्र कुल पाँच संतान थीं। उनके पाँच बच्चों ने जल्द ही अपनी माँ के संरक्षण में सादगी का जीवन जीना सीख लिया। जानकी देवी की दुनिया बदल गई, क्योंकि वे कई परंपराओं को सामाजिक बुराइयों के रूप में देखने लगीं। क्रांति जीवन का एक तरीका बन गई। जानकी देवी बजाज के लिए देश प्रेम ही सब कुछ था। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में अपने पति जमनालाल बजाज का अनुसरण किया और किसी भी रचनात्मक गतिविधियों में पीछे नहीं रहीं। वह बड़ी-बड़ी बैठकों में शामिल होती थीं और बिना किसी डर के जोशीले भाषण देती थीं। उन्होंने अपनी संतानों को भी देश के लिए समर्पित होने के लिए प्रेरित किया। बड़ी बेटी कमला जानकी देवी के साथ उनकी बिहार यात्रा पर गयीं और भाषण दिये; बड़े पुत्र कमलनयन ने भी वर्ष 1930 में स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रूप से भाग लिया और 1932 में उन्हें कारावास में डाल दिया गया और एकान्त कारावास का सामना करना पड़ा। जानकी देवी बजाज की द्वितीय पुत्री मदालसा बजाज नारायण भी महात्मा गाँधी के साथ आजादी के आंदोलन में शामिल थी। सबसे छोटे बेटे रामकृष्ण को शुरू में उनकी कम उम्र के कारण गाँधीजी ने अनुमति देने से इनकार कर दिया था; पर उन्होंने सत्याग्रह में भाग लिया और 1941 तथा 1942 में जेल गये। वर्ष 1942 में भारत छोड़ो आन्दोलन में उनकी पुत्रवधू सावित्री, जो वैभव के वातावरण में जन्मी और पली-बढ़ी थी, वह भी जेल गई और कष्ट सहे। वर्ष 1932 में जानकी देवी स्वयं जेल गईं और उन्हें पुलिस की बर्बरताएं सहनी पड़ीं। इस प्रकार जानकी देवी के पूरे परिवार ने देशभक्ति का मार्ग अपनाया। देशभक्ति की जो छोटी-सी चिंगारी उसने पैदा की थी, वह बढ़ती हुई चमक के साथ चमक उठी। बच्चों ने उन्हें कभी रोते हुए नहीं देखा, इसलिए उनमें हर कठिनाई का मुस्कुराकर सामना करने की क्षमता विकसित की गई। सरल हृदय वाली जानकी देवी पूरी तरह से निस्वार्थ थीं और हमेशा सुर्खियों से दूर रहीं। जानकी देवी बजाज के आजीवन किये गये कार्यों को सम्मानित करने के लिए भारत सरकार द्वारा सन् 1956 में उन्हें दूसरे सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार पद्म विभूषण से नवाजा गया। उनकी आत्मकथा, जिसका शीर्षक है, मेरी जीवन यात्रा, 1965 में प्रकाशित हुई थी। 21 मई 1979 को उनकी मृत्यु हो गई। उनकी स्मृति में कई पुरस्कार और शैक्षणिक संस्थान स्थापित किये गये हैं, जिनमें जानकी देवी बजाज इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट स्टडीज और ‘जानकीदेवी बजाज ग्राम विकास संस्थान’ शामिल हैं। गाँधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता और महान स्वतंत्रता सेनानी जानकी देवी बजाज को आदर्श समाज समिति इंडिया परिवार नमन करता है।
लेखक – धर्मपाल गाँधी
अध्यक्ष, आदर्श समाज समिति इंडिया