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‘स्त्री से चंद सवालात’


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लाइफस्टाइल

‘स्त्री से चंद सवालात’

'स्त्री से चंद सवालात'

‘स्त्री से चंद सवालात’

हे स्त्री ! क्यों ओढ़ रखे हैं तुमने लबादे वर्जनाओं के
क्या बिसरा गई है तू डगरिया तेरे घर की
जो पूछा करती है मां बापू से मिलने अजनबी से अपनों से

क्यों लिपटी है तू बंदिसो के परिधान में
क्यों केवल तूने ही उठा रखी है परंपराओं की गठरी अपने सर

क्या तुम्हें सच में लगता है जो बेतरतीब जीवन
तू जीने को अभिशप्त है,
उससे समाज की किताब छपेगी
तुम्हें अपने आवरण पर

क्यों तू नहीं कर पाती अपने हृदय के उद्गारों को
उन्मुक्त भयमुक्त परंपरामुक्त

बांध रखे हैं तुमने ‘स्वेदशिक्त’ केश
क्या तुम्हें द्रोपदी के रक्तशिक्त केशों की प्रतिज्ञा का ज्ञान नहीं

या तुझे नहीं है भान खुद के व्यक्तित्व का
क्यों तेरा स्वाभिमान किसी और के लिए महज अभिमान है

क्यों नहीं तू खोल लेती अदृश्य बेड़ियों को
क्यों नहीं हंस लेती पल भर
क्या तू शापित है दांतों को भींचने को

क्यों तुम्हें याद नहीं है अपना नाम भी
या मिट गया है तेरी ओढ़ी जिम्मेदारियों के तले
और रह गया है महज मां दादी पत्नी
वैसे क्या नाम था तुम्हारा ?

क्या तुमने स्वयं भी पुकारा खुद को उस नाम से
जब तुझ में तू ही नहीं है तो कैसे बसायगी
यह संपूर्ण जहां खुद में ?

क्यों तुझे चाह नहीं एक निरपेक्ष व्यक्तित्व की
कभी लगता है तुझे अभ्यास है
पुरुष की सहगामिनी सहमार्गी कहलाने कि

क्या तू है उसकी सहस्वपना
तुमने खुद ही स्थापित कर ली है परंपरा
पुरुष के सापेक्ष व्यक्तित्व की

फिर तू ही बता कैसे करें तेरा आकलन
घर के रोटी बाटी के जुगाड़ में
तू करती रहती है उधेड़बुन
जब टूटे शीशे में तेरा अक्स है पूर्ण
फिर तू कैसे अपूर्ण बिन पुरुष के

फिर कैसे मांग लिया तुमने स्वयं को बेबस बेचारी
क्या यही है परिभाषा तेरे स्त्रीत्व की अस्तित्व की
स्वयं को खोकर औरों को खोजना
क्या तुझसे तेरी तन्हाई ना आशना हो
नहीं पूछा करती स्वयं को द्वितीयक बने रहने की वजह

तू किस रूप में तू स्वयं है क्या पता है तुम्हें
पूर्णता अपूर्णता के विलोम में
तू खुद का ही कभी उचित पर्याय खुद नहीं बन पाई

बीतती उम्र के साथ भी तू नहीं भूला करती
ओढनी की ओट करना और इस ओट में न जाने
कितने आंसुओं को छुपाने की कला है तुझ में

यौवना से वार्धक्य की दहलीज पर आकर भी
क्या जिया है तूने जीवन जो केवल तेरा था
या उसके भी हिस्सेदार थे
तेरी मुट्ठी भर अचल संपत्ति की तरह

अब तो खोल ले पल्लू की गांठ
इसमें भी संजो रखे हैं तुमने अपने हिस्से के चंद सिक्के
देखना सिक्कों का भी नगण्य हिस्सा है
नोटों के बंडलों की दुनिया में
वह एहसास करा पाते हैं अपनी खनक
पर तू तो वह भी नहीं जता पाई
तेरे हिस्से का निर्णय तू नहीं ले पाई

क्या अब भी देके जा रही है
तू वही सीख तेरी बेटी को
अपने सपने कुचलने की
कि बेटा तू ही संभाल लेना अपना कर घर
बिखेर के खुद को, तोड़ के खुद के सपनों को

पर देखना जाते-जाते तू भी कितना पुरुषवादी हो गई
संबोधित बेटी को बेटा करके
कर नहीं पाई बेटी को बेटी संबोधन
यह नगण्य स्त्रीकरण भी तेरे बस में नहीं रहा
तेरी यह थाती

हे स्त्री ! तेरे इस अनकहे अनसुने आसहनीय
रौंदे हुए जीवन को मेरा आखिरी सलाम !

हां पर तेरे जाने के बाद ढूंढ लिया है मैंने पर्याय तेरा
तू त्याग ही थी ना
यही पर्याय यही उपनाम था ना तुम्हारा- उमा व्यास (एसआई, राज.पुलिस) कार्यकर्ता, श्री कल्पतरु संस्थान

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