परमात्मा को तुम्हारी बुलंदी से क्या सरोकार है ?
" ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले, ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है ।"

मनुष्य का “अहंकार” चरम पर है, अब वो अनन्त ब्रम्हांड के रचयिता से भी बड़ा होना चाहता है, ताकि स्वयं परमात्मा उससे आज्ञा ले लेकर काम करें।कैसी विचित्र सोच है, कैसे विचित्र लोग है, युट्यूब, इंस्टा आदि सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर अनेकानेक तथाकथित मोटिवेशनल गुरु ऐसी बातों को कभी चिल्ला कर, कभी गम्भीर लहज़े में, कभी हाथ हवा में घूमा कर इतने लच्छेदार तरीके से बोलते हैं कि बेचारा “युवा” जो अभी परमात्मा को समझ भी नही पाया, उससे महान बनने की असफ़ल कवायद में लग जाता है।असल मे मानव अहंकार ऐसी बातों से बड़ा सेटिस्फाइड होता है, इसे ऐसे समझिए, भीड़ में कोई अपना 100 रुपये का नोट खो दे, अब हजारों बरसो से चली आ रही परम्परा के अनुसार वो परमात्मा से प्रार्थना करता है कि उसे उसका नोट वापिस दिलवाए, किसी संयोग से अगर उसे वही नोट जमीन पर पड़ा दिख जाए तो उसे लगता है, परमात्मा उसके एक सौ रुपए के लिए भी चिंतित है, उसकी सुनता है, उसके कहे पर नोट ढूंढने लगता है। किसी किशोरी के मुँह पर आया पिम्पल जब प्रार्थना से चला जाता है तो उसे लगता है परमपिता परमात्मा केवल उसी के व्यक्तिगत कामो के लिए अप्पोइन्ट किए हुए हैं ! अनन्त जगत के स्वामी को तुम्हारे सौ रुपये, तुम्हारे पिम्पल, तुम्हारे पेट दर्द आदि से भला क्या सरोकार होगा, क्या उन्हें कोई और काम नही है। असल मे मनुष्य अपने हिसाब से परमात्मा को चलाना चाहता है।मानव सभ्यता भूल चुकी है, परमात्मा एक ‘ऊर्जा’ है, और ऊर्जा को केवल बहते रहने से मतलब है, यही उस ऊर्जा का धर्म है, यही स्वभाव। यही ऊर्जा जिसे हम प्राण कहते हैं, यही ऊर्जा जिसपर हम सब जीवित है, यही ऊर्जा हम सब का जीवन है।
इस बहती हुई ऊर्जा का पात्र होना पड़ता है, पात्र जो सच मे इस ऊर्जा लाभ के लायक हो, सही जगह हो सही अवस्था मे हो। मान लीजिए एक शांत नदी के बीचों बीच कोई मनुष्य बस जाता है तो उसका बह जाना सुनिश्चित है, अगर बिल्कुल किनारे पर बसेगा तो खतरा हमेशा बना रहेगा, जरा दूरी पर बसने वाला फसल भी अच्छी लेगा, पीने का पानी भी आराम से ले सकेगा और सुंदर दृश्यों का आनंद भी। नदी वही है, उसे केवल स्वभाविक रूप से बहना आता है, केवल बहना, पात्र को सुनिश्चित करना है, कहाँ पर बसे ताकि पूर्ण आनन्द जीवन भर प्राप्त कर सके।
किन्तु यहाँ तो धारा ही विपरीत बह रही है, मंदिर, मस्जिदों, गिरजे, गुरुद्वारों में लोग इस तरह भेंट स्वरूप पैसे चढ़ा रहे हैं, मानो परमात्मा के लिए धन कोई मायने रखता हो, उसे अगर रुपये, पैसे, चढ़ावे की जरूरत होती तो सब कुछ बनाने वाला क्या अपने लिए जो चाहे पलक झपकते ही नही बना सकता।नरम नास्तिकता और मध्यम मार्ग आपको यही सीखा सकते हैं, कोई कुछ भी करे आप स्वयं अपने प्रश्नों के उत्तर खोजें, जिस दिन आप खोजी होकर अपने अंदर की यात्रा पर निकलेंगे पाएंगे कि परमात्मा कहीं बाहर, कहीं दूर था ही नही। अहंकार की सब दीवारें गिर जाएंगी। एक नई रोशनी, नया सवेरा, नया दृष्टिकोण आपकी प्रतीक्षा में है।यकीन मानिए फिर कभी आप अपने आप को परमात्मा से ज्यादा बुलन्द करने की नही सोचेंगे, ना ही सोच पाएंगे ।
डॉ अनिल झरवाल, मलसीसर