प्रतिस्पर्धा घातक है ! “ना किसी से प्रतिस्पर्धा, ना किसी से होड़, मेरी अपनी मन्ज़िले, मेरी अपनी दौड़…”
प्रतिस्पर्धा घातक है ! "ना किसी से प्रतिस्पर्धा, ना किसी से होड़, मेरी अपनी मन्ज़िले, मेरी अपनी दौड़..."

कैसी विचित्र मानसिकता है ना मनुष्य के अहंकार की, वो किसी और से प्रतिस्पर्धा ना रखने की उदघोषणा करते हुए स्वयं को “संत” भी बनाए रखना चाहता है, और स्वयं से ही प्रतिस्पर्धा जारी रखते हुए मैदान में भी बने रहता है।कुल मुद्दा इतना ही है, कि एक विद्यार्थी पिछली कक्षा में स्वयं अर्जित प्राप्तांक से ज्यादा, एक व्यापारी गत वर्ष के लाभ से ज्यादा इस बरस अर्जित करना चाहता है।अद्वैतवाद की इस थ्योरी में कॉम्पिटिटर किसी दूसरे को ना मानते हुए “स्वयं” से ही जंग जारी है, कभी सोचा है यह सिद्धांत कितना घातक है।आपका धुर्र विरोधी कॉम्पिटिटर हो सकता है पूरे दिन, महीने अथवा साल में आपको कभी कभार मिले या दिखे, लेकिन स्वयं के साथ तो सदैव रहना है, ऐसे में आप किसी भी क्षण शांत, आनंदित कैसे रह पाएंगे।दशकों तक “स्वस्थ प्रतिस्पर्धा” जैसा लुभावना, चाशनी में डूबा मगर मूल रूप से कड़वा शब्द प्रचलन में रहा, फिर विकासशील मनुष्य ने अपने चित्त को शांत रखने हेतु एक नया बहाना ढूंढ लिया, “स्वयं से प्रतिस्पर्धा…”!
बहाना चाहे ये हो या वो हो, केवल रंग बदलता है, मूल रूप से बहाना ही रहेगा, और बहाने कभी स्थायी शांति के स्त्रोत नही हो सकते।एक एथलीट जो बीस बरस की आयु में कर सकता है, चालीस में नही। एक पचास वर्षीय लेखक की लेखनी में जो मैच्योरिटी दिखेगी, उसकी ही बीस वर्ष की आयु में लिखी कहानी में नही दिख सकती, फिर किस तरह वह स्वयं का कॉम्पिटिटर हो सकता है।कुछ मामलों में वक़्त के साथ निखार आएगा, कुछ स्किल्स उम्र के साथ ढीले पड़ जाते हैं। इसमें नम्बर एक पर बने रहने की जिद्द और होड़ कैसी ?याद रखिए, सफलता एक पिरामिड की तरह है, जो चरम पर है, ज्यादा देर रुक नही सकेगा, ढलान ढलना प्राकृतिक है।बॉलीवुड के दो दिग्गज़ अभिनेता सफलता के शिखर पर पहुंचने के बाद उसे केवल स्वयं का स्थायी पता समझने लगे, उम्र ढ़ल जाने के बावजूद भी अपनी चॉकलेटी, रोमांटिक छवि को ना तोड़ने के असफल प्रयासों के तहत अभी भी नौजवान क़िरदारों को निभाने में तल्लीन हैं, नतीजन जिनकी फ़िल्मे कतार से ब्लॉकबस्टर हुआ करती थी, पिछले एक दशक से दर्शकों की भीड़ जुटाने में नाकाम है।यदि आप समय के साथ चलते रहें, बिल्कुल प्राकृतिक ढंग से बिना किसी प्रतिस्पर्धा के तो जीवन बेहद सरल, आनंदमय हो जाएगा।होड़, प्रतिस्पर्धा चाहे स्वयं से हो अथवा किसी और से, इसका स्वभाव ही ईर्ष्या, जलन पैदा करना है, और स्वयं से ही ईर्ष्या करते हुए जीवन जीना, जीवन का ही सबसे बड़ा निरादर है…!
~~~ लेखक- डॉ अनिल झरवाल मलसीसर