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धार्मिक यात्राओं में बढ़ रही बेरोजगारों की भीड़, पैदल चलना ठीक, लेकिन अक्ल से पैदल होना बहुत खतरनाक


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आर्टिकलधर्म/ज्योतिष

धार्मिक यात्राओं में बढ़ रही बेरोजगारों की भीड़, पैदल चलना ठीक, लेकिन अक्ल से पैदल होना बहुत खतरनाक

आस्था के नाम पर जो लोग यात्राओं पर निकलते हैं, असल में वे अपनी जिम्मेदारियों से भागने वाले लोग हैं। माता-पिता, भाई-बहन, देश- समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को नहीं निभा पाने वाले लोग धर्म का सहारा लेते हैं। अपने मां-बाप को उन के हाल पर छोड़ कर उन की इच्छा के खिलाफ अपनी मौज-मस्ती के लिए जहां मरजी निकल पड़ते हैं, जबकि जो आदमी अपनी जिम्मेदारी व फर्ज निभा लेता है उसे कहीं पर भी जाने की जरूरत नहीं है।

आस्था के नाम पर जो लोग यात्राओं पर निकलते हैं, असल में वे अपनी जिम्मेदारियों से भागने वाले लोग हैं। माता-पिता, भाई-बहन, देश- समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को नहीं निभा पाने वाले लोग धर्म का सहारा लेते हैं। अपने मां-बाप को उन के हाल पर छोड़ कर उन की इच्छा के खिलाफ अपनी मौज-मस्ती के लिए जहां मरजी निकल पड़ते हैं, जबकि जो आदमी अपनी जिम्मेदारी व फर्ज निभा लेता है उसे कहीं पर भी जाने की जरूरत नहीं है।

धार्मिक यात्रा : सावन में होने वाली कांवड़ यात्रा को अब तथाकथित ऊंची जाति के तबके ने तकरीबन छोड़ दिया है। सवर्ण समाज के बच्चे अब इंगलिश स्कूलों यहां तक कि विदेशों तक में पढ़ते हैं। कांवड़ यात्रा अब सिर्फ पिछड़ा वर्ग, दलित और आदिवासियों के बच्चे करते हैं। आप चाहें तो कांवड़ यात्रियों का सर्वे कर सकते हैं, उनके जनेऊ भी चैक कर सकते हैं। मां लोगों के घरों में चौका बरतन कर के घर चला रही है, पिता मजदूरी कर रहे हैं या फिर किसी प्राइवेट कंपनी में छोटी-मोटी नौकरी कर के परिवार के लिए रोजी-रोटी का बंदोबस्त कर रहे हैं और जवान बेटा भगवा गमछा गले में लटका कर धर्म की रक्षा में जुटा है। ऐसे बेरोजगार ज्यादातर एससी, एसटी और ओबीसी में ही बहुतायात से पाए जाते हैं। सावन भादों के मौसम में अकसर लोगों को रंगबिरंगे, पचरंगे, सतरंगे झंडेझंडिया लिए जयकारे लगाते पैदल सड़कों पर यात्रा करते देखा जा सकता है। जयपुर इलाके में कहीं डिग्गी कल्याण की पदयात्राएं, तो कहीं अजमेर की तरफ जाने वाले रास्तों पर ख्वाजा के जायरीन, कहीं सवाईभोज के दीवाने, तो कहीं जोगमाया के चाहने वाले.. सब से ज्यादा भीड़ सड़कों पर इन दिनों रामदेवरा जाने वाले जातरुओं की होती है। भगवा रंग में रंगे कांवड़िए तो देशभर में नजर आते ही हैं। झंडा उठाए इन भक्तगणों की सोशल प्रोफाइल देखने, इन के चेहरे पढ़ने, इन की माली, सामाजिक बैकग्राउंड पर ध्यान देते हैं, तो साफ जाहिर होता है कि ये दलित, पिछड़े व आदिवासी जमात गरीबगुरबे, किसान मजदूर ही होते हैं। हालांकि यह कीमती समय इन के खेतों में होने का है। इस समय फसलें आकार ले रही होती हैं, खेतों को निराई गुड़ाई की सख्त जरूरत रहती है, नदी नाले, तालाब एनीकट व खेतों के भरने फूटने के दिन होते हैं, जलसंचय का मौसम होता है, अपनी आजीविका के साधन संसाधनों को सहेजने संभालने का समय होता है, लेकिन ये अपना घर बार छोड़ कर निकल पड़ते हैं। इन गरीबों, मेहनतकशों को ईश्वर की तथाकथित कृपा चाहिए, इन्हें देवी-देवताओं का आशीर्वाद हासिल करना है, सो ये झंडा ले कर निकल पड़ते हैं।

अध्यात्म नहीं बर्बादी का रास्ता इस जंजाल में फंसे लोग बड़ी मासूमियत से कहते हैं कि उन्होंने बाबा के पैदल जाने की मनौती कर रखी है। पैदल चलना ठीक है, पर अक्ल से पैदल होना बहुत खतरनाक है। अपने समय और संसाधनों की ऐसी बरबादी मत कीजिए। हर साल पैदल निकल कर क्या हासिल हुआ है? जब आज तक नहीं हुआ तो आगे भी नहीं होगा। यह आध्यात्म का नहीं, बल्कि बरवादी का रास्ता है। अपने खेत खलिहान, रोजी-रोटी और घर-परिवार को संभालने-संवारने के इस कीमती अंधभक्ति की अंधेरी सुरंग में नहीं धंसना चाहिए। इस मसले पर कार्यकर्ता व विचारक कहते हैं, ‘ये पदयात्रा या कांवड़ यात्रा नहीं वक्त में सामाजिक, बल्कि अपनी दुर्गति को बुलावा है। सिर्फ राम-रसोड़ों के चाय-नाश्ते और खान-पीने के चक्कर में अपना कीमती वक्त बरबाद करना है। इस तरह चलने से कुछ भी हासिल नहीं होगा। थोड़ा ठहर कर सोचिए और घर लौट जाइए. अच्छा काम कीजिए, मस्त रहिए, कानून को मानिए, सभ्य नागरिक बनिए, क्योंकि मेहनत से ही खुशहाली आएगी।’

बेकारी में कामकाजी होने का भरम – पैदल और कांवड़ यात्राएं ही नहीं, बल्कि मेहनतकश दलित, पिछड़े व आदिवासी समाज के नौजवान आजकल घर-घर घूम कर चंदा जमा कर के भजन संध्याओं का आयोजन कर रहे हैं। भागवत व सत्यनारायण की कथाओं के बड़े-बड़े पंडाल खड़े कर रहे हैं। रामलीलाओं में जयकारे लगा रहे हैं। शोभा यात्राओं की झांकियां कंधों पर उठाए घूम रहे हैं। मंदिर निर्माण के लिए चंदा जमा कर के बड़ेबड़े झंडे चढ़वा रहे हैं। धार्मिक जुलूसों में रंगबिरंगे झंडे लहरा रहे हैं। लेकिन इन सब का नतीजा कुछ नहीं निकलता है। नेताओं की रैलियों में झंडे जयकारों का भार उठा रहे हैं। रातदिन सोशल मीडिया पर धर्मरक्षा की जंग लड़ रहे हैं। अपने धार्मिक और राजनीतिक आकाओं के लिए अपने परिवार और रिश्तेदारों तक से लड़ाई लड़ कर रहे हैं, जबकि होना तो यह चाहिए था कि किसान, गरीब, दलित, पिछड़ी जमात के नौजवान बेहतर स्कूल व कालेज के लिए लड़ें। बेहतर डाक्टरी इंतजामों के लिए जद्दोजेहद करें। सर्दी-गरमी में तड़पते किसानों के बेहतर इंतजाम के लिए काम करें। नाइंसाफी व जोरजुल्म के खिलाफ आवाज उठाएं। नए रोजगार पैदा करें. देश की हिफाजत के लिए बेहतर तकनीक व हथियार बनाएं।

कमाई की नई तरकीब अकसर धर्म को कर्म, सेवा व भक्ति-भाव से जोड़ कर देखा जाता है. कांवड़ उत्सव हो या पदयात्राएं, इन में भी आखिर सवर्ण तबका ही बाजी मार रहा है। पिछड़े, दलित और कमेरे लोग सोचते हैं कि पसीना निकालने से ही धर्म कमाया जाता है, पसीना निकालना ही भक्ति भावना है। सवर्ण तबके के लोग जो हमेशा दिमाग से खेलते हैं, हार्डवर्क की बजाय सौफ्टवर्क में यकीन रखते हैं। इस सवर्ण तबके ने कांवड़ उत्सव में भी धर्म कमाने की, भोले को मनाने की नई तरकीब खोज निकाली है। इन्होंने तदबीर बनाई है कि जितने भी कांवड़िए आते हैं, उन की सेवा के लिए शिविर लगाए जाएं। शिविरों में कांवड़ियों के लिए खाने पीने की हर तरह का इंतजाम किया जाता है। ये अपनी औरतों समेत कांवड़ियों के पैर गरम पानी से धोते हैं। इनका मानना होता है कि यह सेवा कांवड़ लाने से भी बड़ी सेवा व भक्ति है। गरीब कांवड़िए इन की इस सेवा में ही खुश हो लेते हैं और मारे खुशी के अरंड के पौधे पर चढ़ जाते हैं कि असली शिवभक्त तो हम ही हैं। ये शिविर और सेवा देहातियों को कांवड़ लाने के लिए और ज्यादा बढ़ावा देती है, जिस से हर बार कावड़ उत्सव में कांवड़ियों की तादाद बढ़ती जाती है, जिस से ऊंची जाति के इन बामण-बाणियों के बाजारों में रौनक आती है. उस रौनक में से वे कुछ हिस्सा शिविरों में लगा देते हैं।

बेकारी का आईना ऐसी भीड़ – कांवड़ियों की बढ़ती भीड़ के मद्देनजर ‘मानवतावादी विश्व समाज’ के अध्यक्ष व डीआईजी किशन सहाय एक बार कहा था कि कांवड़ियों की जो भीड़ बढ़ी है, वह साबित करती है। कि बेरोजगारी कितनी विकराल हो गई है। किशन सहाय के इस बयान को मीडिया ने भले ही हिंदू धर्म के खिलाफ विवादास्पद व हिंदुओं का अपमान बताया हो, लेकिन एक आम जागरूक नागरिक के नजरिए से देखें तो इस में गलत क्या है? जब लोग व्यवस्था से नाराज होते हैं तो अंधविश्वास में फंसते हैं। जब बेरोजगारों को सत्ता रोजगार नहीं दे पाएगी तो बेरोजगार नौजवान ठाली बैठे क्या करेंगे? कांवड़ लाने ही तो जाएंगे। भांग अफीम के नशे का सुनहरा अवसर व साथ में इस गरमी में नहाने के लिए गंगा का ठंडा पानी हो तो किस का मन नहीं करेगा कांवड़ लाने का। अगर किसी को शक हो तो इन यात्रियों का सामान चैक कर लो, भरम से परदा उठ जाएगा। अगर कोई सचाई को बोल दे तो सारे पाखंडी इकट्ठे हो कर आग उगलने लग जाते हैं। पश्चिमी राजस्थान में रामदेवरा धाम है। वहां पर भी ऐसी ही यात्राओं का हुजूम लगता है। सब बेरोजगार व गरीब, दलित-पिछड़े लोग सड़कों पर झंडा उठाए चलते हुए मिलेंगे। वहां इस मौसम में सांप भी बहुत ज्यादा होते हैं। सांप के काटने के चलते कई लोग मर जाते हैं। वाहनों में भेड़- बकरियों की तरह भरभर कर चलते हैं और हादसे के शिकार हो जाते हैं।

शिक्षाविद शिवनारायण इनाणियां कहते हैं, ‘किसानों-दलितों का काम के समय को इस तरह धर्मांधता में फंस कर बरबाद करना ठीक नहीं है। इस से खुद का ही नुकसान होता है। गरीबों का शोषण होता है। काम ठप होता है। रसोई लगा कर लोग फर्जी धर्मगुरु व नेता बन जाते हैं। वैसे भी जिन को दान करना है, उन्हें अपने गांव के स्कूल में सुविधाएं बढ़ाने के लिए पैसा खर्च करना चाहिए। गांव में किसी गरीब बच्चे की शिक्षा का खर्चा उठाना चाहिए। किसी बेसहारा के इलाज में मदद करनी चाहिए। ऐसी उन्मादी भीड़ यात्राओं के फैशन को बढ़ावा दे कर शोषण की दुकानें चलाने वालों को फायदा नहीं पहुंचाना चाहिए। जब-जब सत्ता की तरफ से लोगों को निराशा मिलती है, तो लोगों का मानसिक स्तर कमजोर होता है। कमजोरी के इस समय का उपयोग धर्मांधता फैलाने वालों को नहीं करने देना चाहिए।

जिम्मेदारियों से भागना – कांवड़ और पैदल यात्रियों के जत्थे डीजे पर भजनों को बेतुकी धुनों पर नशे में चूर हो कर नाचते हैं, तो ऐसा का दौरा पड़ा हो। अगर ये यात्रा में नहीं नाच कर कहीं दूसरी जगह ऐसी हरकत कर रहे होते तो घर वाले कब के किसी अच्छे दिमागी डाक्टर की शरण में ले जाते। आस्था के नाम पर जो लोग यात्राओं पर निकलते हैं, असल में वे अपनी जिम्मेदारियों से भामने वाले लोग हैं। माता-पिता, भाई-बहन, देश-समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारियों को नहीं निभा पाने वाले लोग धर्म का सहारा लेते हैं। अपने मां-बाप को उन के हाल पर छोड़ कर उन की इच्छा के खिलाफ अपनी मौजमस्ती के लिए जहां मरजी निकल पड़ते हैं, जबकि जो आदमी अपनी जिम्मेदारी व फर्ज निभा लेता है उसे कहीं पर भी जाने की जरूरत नहीं है। आज से 40 साल पहले कोई यात्रा नहीं थी, तो क्या हमारे पुरखे धार्मिक नहीं थे? क्या पैदल यात्रा, कांवड़ यात्रा, गणेश उत्सव, गरबा, मटको फोड़, करवाचौथ हमारे पुरखे मनाते थे? क्या ये किसी भी धर्म का हिस्सा थे ? कौन लोग हैं, जिन्होंने ऐसे आयोजन शुरू किए ? इन लोगों का मकसद क्या है? सच तो यह है कि इन आयोजनों को धर्म से जोड़ने वालों का मकसद इस देश के निचले तबके को लूट कर खुद के लिए रोजगार पैदा करना है। ~~रीनू जैन, लेखक 

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