नामी कैलीग्राफिस्ट की मौजूदगी में कला प्रदर्शनी शुरु:कैलीग्राफी के नायाब नमूने देखने को मिले
नामी कैलीग्राफिस्ट की मौजूदगी में कला प्रदर्शनी शुरु:कैलीग्राफी के नायाब नमूने देखने को मिले

टोंक : जिला मुख्यालय पर शनिवार से दो दिवसीय वर्कशॉप एवं प्रदर्शनी का शुभारंभ अहमद शाह मस्जिद गुलजार बाग के पास किया गया है। वर्कशॉप एवं प्रदर्शनी का आगाज मुख्य अतिथि अरबी फ़ारसी शोध संस्थान के पूर्व निदेशक सौलत अली खान ने फीता काटकर किया। कार्यक्रम की अध्यक्षता मौलाना जमील ने की।
कार्यक्रम में मुफ्ती आसिम, कैलीग्राफी के क्षेत्र में विदेशों तक टोंक का नाम रोशन करने वाले कैलीग्राफिस्ट खुर्शीद आलम, जफर रजा, मुरली अरोडा सहित कई प्रबुद्धजन मौजूद रहे। प्रदर्शनी को देखने कई लोग आए तथा वहां मौजूद कैलीग्राफी के कई नायब नमूने भी देखने को मिले। ये प्रदर्शनी रविवार दोपहर 12 बजे तक रहेगी।
कैलीग्राफी क्या है
कैलीग्राफी ऐसी अक्षर कला है, जो आपनी खूबसूरती की ओर लोगों को आकर्षित करती है। अक्षरांकन या कैलीग्राफी (Calligraphy) जिसमें ब्रश, क्रोकिल, विभिन्न तरीके कलम व स्ट्रोक के फाउण्टेन पेन व निब की सहायता से एक विशिष्ट शैली की स्वयं की लिखाई की डिजाइन प्रक्रिया को सीखा व अपनाया जाता हैं। कैलीग्राफी को पॉपकॉर्न (बब्लगम जैसे स्वाद वाली) लेखनशैली भी कहते हैं| कलाकार ‘क़लम’ या पेन का उपयोग करता है जो बम्बू से बना होता है। दवात के रूप में रंगों का उपयोग करता है।

टोंक का अपना अलग मुकाम रहा
सऊदी अरब जहां उर्दू एवं अरबी फारसी की कैलीग्राफी का भले ही अपना उच्च मुकाम रहा है। लेकिन इस क्षेत्र में टोंक में पैदा हुए खत्तात खलीक टोंकी भी किसी से कम नहीं रहे। जिनको सऊदी अरब ने सुल्ताने कलम के खिताब से नवाजा, वहीं भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भी उनको नेशनल एवार्ड प्रदान किया। साथ ही उनकी काबिलियत के प्रशंसा की तथा 1980 में उनकी कैलीग्राफी कला से ओत प्रोत एक डाक टिकट भी जारी हुआ। उनको दिल्ली उर्दू अकादमी, सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय भारत सरकार सहित कई जगह एवार्ड प्रदान किए गए। खलीक टोंकी शायर भी थे, लेकिन उनकी पहचान कैलीग्राफी एवं डिजाइनिंग की वजह से अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक रही। खलीक टोंकी के शागिर्द खुर्शीद आलम का कहना है कि खलीक टोंकी को इसमें इतनी महारत हांसिल थी कि देश में उनका कोई सानी नहीं था। टोंक की सरजमीन पर खलीक टोंकी 1932 में पैदा हुए। 13 साल की कम उम्र से ही कैलीग्राफी में वह महारत हांसिल करने लगे थे। 1948 में वो मुंबई चले गए। बाद में वो अहमदाबाद एवं दिल्ली भी रहे वहां पर भी उनके शागिर्दों की लंबी फेरिस्त रही है। 1994 में उनका इंतकाल हो गया। लेकिन उनकी कैलीग्राफी कला आज भी जिंदा है। इस बारे में पुस्तक शान-ए-बनास व प्राचीन रहस्यों का जिला टोंक में भी कई जानकारियां समाहित की गई है।