[pj-news-ticker post_cat="breaking-news"]

हुसैनी ब्राह्मण: वे हिंदू जो करबला युद्ध में इमाम हुसैन के साथ लड़े


निष्पक्ष निर्भीक निरंतर
  • Download App from
  • google-playstore
  • apple-playstore
  • jm-qr-code
X
टॉप न्यूज़धर्म/ज्योतिषराज्य

हुसैनी ब्राह्मण: वे हिंदू जो करबला युद्ध में इमाम हुसैन के साथ लड़े

करबला का युद्ध सिर्फ मुसलमानों के लिए ही नहीं बल्कि एक वर्ग के ब्राह्मणों के लिए भी बहुत मायने रखता है. बहुत ही कम लोग हैं जो ये जानते हैं कि दक्षिण एशिया, खासकर भारत में ऐसा समुदाय भी रहता है जिसका इमाम हुसैन की लड़ाई में बहुत बड़ा योगदान रहा है.

हुसैनी ब्राह्मण : 1400 साल पहले इराक की सरजमी पर एक ऐसी जंग लड़ी गई थी, जिसे ‘कर्बला की जंग’ के नाम से जाना जाता है. यजीद के पत्थर दिल फरमानों से इमाम हुसैन के साथ उनके काफिले के कई लोगों ने ये जंग लड़ी थी, जिसमें सिर्फ मुसलमान ही नहीं, बल्कि ब्राह्मण हिंदू भी शामिल थे. उन्हें हुसैनी ब्राह्मण के नाम से जाना जाता है.

इमाम हुसैन को करबला के मैदान में दलजा नदी के किनारे क्रूर बादशाह यज़ीद की फ़ौज ने घेर लिया था. जहां इस्लाम धर्म को निर्दयी हाथों में जाने से रोकने के लिए हुसैन ने मदद के लिए दो खत लिखे. इसमें से एक ख़त भारत भी पहुंचा. ख़त मिलते ही माथे पर तिलक लगाए, जनेऊ धारी हिंदुस्तानी पंडितों का एक जत्था, इतिहास के पन्नों में अपनी ख़ास जगह बनाने के लिए करबला की ओर निकल पड़ा.

कर्बला की जंग में हुसैनी ब्राह्मण
जब तक वीरों को ये जत्था करबला पहुंचता, उससे पहले ही हुसैन शहीद हो चुके थे. फिर क्या… इन्होंने दोगुने हौसले के साथ यज़ीद की फ़ौज से लड़ाई लड़ी और उसे जीता भी. करबला में इमाम हुसैन के लिए लड़ने वाले ये वीर कोई और नहीं बल्कि ‘हुसैनी ब्राह्मण’ थे. ऐसे में जानना दिलचस्प हो जाता है कि आखिर ये हुसैनी ब्राह्मण कौन हैं? जो इमाम हुसैन की मदद के लिए अपनी जान की परवाह किए बगैर हज़ारों मील दूर करबला पहुं गए.

हवा से बात करता हुआ, रेत के सीने को चीरता हुआ, बिजली की रफ्तार से… कुछ हिंदुस्तानी सपूतों का एक छोटा सा कारवां तारीख़ के पन्नों में अपनी ख़ास जगह बनाने जा रहा था. जिनकी आंखों में अज़ीम मकसद थे. वो अरब की ज़मीं कर्बला की तरफ रवाना हुए. नबी मोहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन ने जब सभी लोगों से इंसानियत को ज़िंदा रखने के लिए जंग-ए-कर्बला में शामिल होने का ऐलान किया था, तो उस जंग में शरीक होने के लिए ये हक़ परस्त जांबाज हिंदुस्तान से कर्बला जा पहुंचे. कंधे पर जनेऊ डाले, माथे पर तिलक लगाए ये जांबाज ‘हुसैनी ब्राह्मण’ थे. ये वही वीर सपूत थे, जो मदद की शक्ल में हिंदू और मुसलमानों के बीच संबंंधों की नई इबारत लिखने कर्बला जा रहे थे.

कर्बला में ज़ालिम बादशाह यज़ीद अपनी हुकूमत के नशे में चूर होकर इंसानियत का चेहरा बिगाड़ देना चाहता था. लेकिन उसे पता था जब तक नबी मोहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन ज़िंदा हैं तब तक वो अपनी मर्ज़ी की नहीं कर सकता. उसके इसी डर ने इमाम हुसैन को उनके परिवार के साथ कर्बला में घेर कर उनसे हुकूमत के सामने सर झुकाने को कहा. लेकिन उन्होंने यज़ीद की गुलामी करने से साफ इनकार कर दिया. इमाम को दरिया-ए-फ़रात के किनारे घेर लिया गया.

पैगम्बर ए इस्लाम के नवासे ‘इमाम हुसैन’

बात उस वक्त की है, जब इस्लाम के संस्थापक पैगंबर हजरत मुहम्मद के बाद अरबी कबीलाई संस्कृति के अनुसार, 4 खलीफा यानी राष्ट्राध्यक्ष चुने गए. वह चार खलीफ़ा अबू बकर, उमर, उस्मान और हजरत अली थे. ‘हजरत अली’ पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद के दामाद थे. जिनसे उनकी बेटी फ़ातिमा का निकाह हुआ था. ‘हज़रत अली हुसैन’ इन्हीं के पुत्र थे. बाद में हजरत अली की हत्या कर दी गई. इसके बाद इस्लामी दुनिया में एक ऐसा वक़्त आया, जब इस्लाम में ‘बादशाह’ और शहंशाह दिखने लगे. जो इस्लामी दर्शन के खिलाफ था. बादशाह और शहंशाह से इस्लाम धर्म बचाने की तमाम जद्दोजहद हुई.

यज़ीद और हुसैन के बीच ‘जंग-ए करबला’

इसी कड़ी में इराक और मक्का से दूर सीरिया में सत्ता के नशे में धुत ‘यज़ीद’ ने खुद को इस्लाम धर्म का शहंशाह घोषित कर दिया. जिसे ‘इमाम हुसैन’ और उनके अनुयायियों ने मानने से साफ़ इंकार कर दिया. यजीद की कार्यपद्धति क्रूर बादशाहों जैसी थी. यज़ीद समझ गया था कि हुसैन के जिंदा रहते वह कभी भी बादशाह नहीं बन सकता. तभी यज़ीद ने एक ख़त लिखकर जंग का ऐलान कर दिया. हुसैन उस वक्त मक्का में थे. और क्रूर शहंशाह बने यज़ीद को चुनौती देने के लिए इराक वासियों के भरोसे अपने परिवार के साथ मक्का से निकल पड़े.

इस समय तक इराक में ही यज़ीद की फ़ौज ने धोखे से हुसैन के समर्थकों को रोक लिया. साथ ही रास्ते में करबला के मैदान में दजला नदी के किनारे हुसैन के काफिले को भी रोक दिया. उस दिन मुहर्रम की दूसरी तारीख थी. इसके अगले 9 दिनों तक जो घटना घटी, वह इस्लामी इतिहास की सबसे दर्दनाक घटना थी. हुसैन के बच्चों और औरतों को प्यासा रखने का हुक्म दिया गया. यह सभी जुल्म यज़ीद के ख़त मिलने के बाद उसका सूबेदार इब्ने ज़ियाद हुसैन ढा रहा था.

हुसैन ने भारतीय राजा को लिखा खत

इमाम हुसैन ने मुसीबत में अपनों को याद किया और मदद के लिए दो खत लिखे. एक खत उन्होंने अपने बचपन के दोस्त हबीब को और दूसरा खत करबला से हजारों मिल दूर भारत के एक हिंदू राजा के पास भेजा. यह राजा कोई और नहीं बल्कि भारत के मोहयाल राजा राहब दत्त थे.

राहब सिद्ध दत्त एक मोहयाल ब्राह्मण थे.

फिर क्या… जैसे ही इमाम हुसैन की ख़बर राहब दत्त को मिली, वह अपनी मोहयाल ब्राह्मणों की सेना के साथ इमाम हुसैन की मदद के लिए करबला निकल पड़े. इससे पहले कि वो करबला पहुंचते, इस्लाम धर्म का वह काला दिन लिखा जा चुका था.

कुर्बान हुए इमाम हुसैन

क्रूर यज़ीद ने अपने लाखों सैनिकों के साथ मिलकर हुसैन के भूखे-प्यासे पुरुष साथियों और परिजनों की बड़ी बेरहमी से हत्या कर दी. इस तरह से मुहर्रम की 10वीं तारीख़ को हुसैन भी शहीद हो गए. जिसके बाद यजीद ने इमाम हुसैन के परिवार की महिला सदस्यों को गिरफ्तार करने का हुक्म दे दिया. उनकी बाजुओं पर रस्सियां बांधकर उन्हें बेपर्दा घुमाया गया. इतना ही नहीं, उसी जुलूस में आगे-आगे इमाम हुसैन के बेटों, भाई अब्बास व अन्य शहीदों के कटे हुए सरों को भाले में टांग कर आम लोगों के बीच प्रदर्शित किया गया. हुसैन की 4 साल की बेटी सकीना को सीरिया के कैदखाने में कैद कर दिया गया, जहां उसकी भी मौत हो गई.

कर्बला की जंग पर एक ईरानी पेंटिंग

यह सब जानकर राहब दत्त का हौसला टूट गया और उन्होंने अपनी तलवार को अपने गले पर रख लिया. वह कहने लगे, “जिसकी जान बचाने आए थे, वही नहीं बचा तो हम जी कर क्या करेंगे!” इमाम हुसैन के समर्थक ‘अमीर मुख़्तार’ ने उन्हें ऐसा करने से रोक दिया. तारीख़ 10 अक्टूबर 680 ईसवी को दोंनों इमाम हुसैन के ख़ून का बदला लेने के लिए निकल पड़े.

ब्राह्मणों ने लिया हुसैन की शहीदी का बदला

उस समय यज़ीद की फौज़ ‘इमाम हुसैन’ के सिर को लेकर कूफा में ‘इब्ने जियाद’ के महल की ओर जा रही थी. राहब दत्त ने यजीद की फ़ौज का पीछा किया. वह फ़ौज के महल पहुंचने से पहले ही हुसैन का सिर छीनकर दमिश्क की ओर कूच कर गए. शाम ढल चुकी थी, रात में विश्राम के लिए दमिश्क पहुंचने से पहले राहब दत्त बीच में ही रुक गए. यहां यजीद की फौज़ ने उन्हें घेर लिया औऱ हुसैन का सिर मांगने लगे.

इमाम हुसैन के सिर को बचाने के लिए राहब दत्त ने वह हिम्मत दिखाई, शायद ही ऐसा कोई बाप अपने बच्चे के साथ कर पाए. राहब दत्त ने इमाम का सिर बचाने के लिए अपने बेटे का सिर काट कर यजीद की सेना को दे दिया. यज़ीद की फ़ौज ने चिल्लाते हुए कहा कि यह इमाम हुसैन का सिर नहीं है. फिर क्या.. हुसैन का सिर बचाने के लिए राहब दत्त ने एक एक कर अपने सातों बेटों के सिर काट डाले, लेकिन फौज ने उन्हें भी हुसैन का सिर मानने से इंकार कर दिया.

राहब दत्त इससे ज्यादा इंतजार नहीं कर सकते थे. उन्होंने इमाम हुसैन के लिए लड़ रहे बाक़ी लोगों के साथ यजीद के खिलाफ जंग का ऐलान कर दिया. देखते ही देखते हिन्दुस्तान की धारदार तलवारों ने चुन-चुन कर हुसैन के कातिलों से बदला लिया. इसी बीच कई मोहयाल सैनिकों ने भी इमाम हुसैन की मदद के लिए अपनी शहादत दी.

हिंदुस्तानियों की याद में उस जगह को हिंदिया नाम मिला

इस तरह से हिंदुस्तानी वीरों ने इमाम हुसैन की शहीदी का बदला लिया. अब जंग खत्म हो चुकी थी. मोहयाली ब्राह्मणों को जीत मुक्कमल हुई. इसके बाद कुछ मोहयाली सैनिक वहीं बस गए और बाकी सैनिक हिंदुस्तान वापस लौट आए. इन वीर मोहयाली सैनिकों ने करबला में जहां पड़ाव डाला था, उस जगह को आज ‘हिंदिया’ कहते हैं.

“दर-ए-हुसैन पर मिलते हैं हर ख़याल के लोग
ये इत्तेहाद का मरकज़ है आदमी के लिए”

…और यह हुसैनी ब्राह्मण कहलाए!

इतिहास इन वीर मोहयाल ब्राह्मणों को ‘हुसैनी ब्राह्मण’ के नाम से जानता है. इस कुर्बानी को याद रखने के लिए हुसैनी ब्राह्मण मोहर्रम के दिन अपने घरों में नोहे पढ़ते हैं. नोहा का अर्थ होता है, करबला की जंग में शहीद हुए लोगों को याद करना. कुछ लोगों का यह भी मानना है कि जो ब्राह्मण करबला की लड़ाई में हुसैन के साथ लड़े थे. आज उन्हें ‘हुसैनी ब्राह्मण’ कहा जाता है. पहले ज्यादातर हुसैनी ब्राह्मण लाहौर में रहते थे, लेकिन देश के बंटवारे के बाद भारत के पुष्कर, दिल्ली और इलाहाबाद जैसे क्षेत्रों में बस गए.

राहब दत्त और इमाम हुसैन के बीच संबंध..!

यह पढ़ते हुए आपके जेहन में एक सवाल जरूर आ रहा होगा कि राहब दत्त इमाम हुसैन को कैसे जानते थे! मान्यताओं के अनुसार, राहब दत्त के पास एक भी संतान नहीं थी. तब वह हुसैन के पास गए और उनके सामने संतान प्राप्ति की इच्छा जाहिर की. इमाम हुसैन ने बताया कि वह ऐसा नहीं कर सकते क्योंकि राहब दत्त की किस्मत में संतान नहीं है.

ऐसा सुनकर दत्त काफी दुखी हुए और रोने लगे. राहब दत्त का दुख देखकर हुसैन ने एक बेटा होने का वरदान दे दिया. ऐसा होते देख किसी ने हुसैन को कहा कि वो अल्लाह की मर्जी के खिलाफ जा रहे हैं. ऐसा सुनने पर हुसैन ने फिर कहा कि दत्त को एक और बेटा होगा. ऐसा करते-करते ‘हुसैन’ राहब दत्त को 7 बेटों का वरदान दे चुके थे.

वारदान प्राप्त करने के बाद राहब दत्त वापस भारत लौट आए.

इसके बाद इन्हें 7 बेटों की प्राप्ति हुई. यह वही बेटे हैं, जिन्होंने इमाम हुसैन के साथ शहीद हुए 72 अनुयायियों के साथ अपना सिर कुर्बान कर दिया था.

कौन हैं हुसैनी ब्राह्मण..

हुसैनी ब्राह्मण मोहयाल समुदाय के लोग हैं जो हिंदू और मुसलमान दोनों से संबंध रखते हैं. मौजूदा समय में हुसैनी ब्राह्मण सिंध, पंजाब, पाकिस्तान, महाराष्ट्र, राजस्थान, दिल्ली और अरब और भारत के अन्य हिस्सों में रहते हैं. हिस्ट्री ऑफ मुहियाल्स (History of muhiyals) नाम की किताब के अनुसार कर्बला के युद्ध के समय 1400 ब्राह्मण उस समय बगदाद में रहते थे. जब करबला का युद्ध हुआ तो इन लोगों ने याजिद (Yazid) के खिलाफ युद्ध में इमाम हुसैन का साथ दिया था. करीब 125 हुसैनी ब्राह्मणों का परिवार पुणे में रहता है, कुछ दिल्ली में रहते हैं और ये हर साल मुहर्रम भी मनाते हैं.

हुसैनी ब्राह्मण, करबला, इमाम हुसैन, नरेंद्र मोदी, बोहरा मुस्लिमहुसैनी ब्राह्मणों का इतिहास करबला के युद्ध से भी पहले का है

वैसे तो बंटवारे के पहले वाले भारत में हुसैनी ब्राह्मण लाहौर में रहते थे, लेकिन अब उनका एक अहम गढ़ माना जाता है पुष्कर को. अजमेर की दरगाह में जहां मोइनुद्दीन चिश्‍ती ने अपनी आखिरी सांसे ली थीं वहां अब भी कई लोग मिल जाएंगे जो खुद को हुसैनी ब्राह्मण कहेंगे. ये ब्राह्मण न ही पूरी तरह से हिंदू हैं न ही पूरी तरह से मुस्लिम. वो मिली जुली मान्यताओं पर भरोसा करते हैं. ‘दत्त’ ऐसे ही हुसैनी ब्राह्मणों में से एक हैं.

एक और मान्यता भी..

कहा जाता है कि हुसैनी ब्राह्मणों को इमाम हुसैन से मोहब्बद थी. इतनी मोहब्बत कि जब उन्हें इमाम की शहादत के बारे में पता चला तो अमीर मुख्तार के साथ मिलकर हुसैनी ब्राह्मणों ने हुसैन का बदला लिया था. राहिब सिध दत्त पैगंबर का अहसान नहीं भूले थे और इसलिए जब उन्हें पता चला कि याजिद की फौज इमाम का सिर काटकर कूफा शहर ले जा रही है तो अपने जत्थे के साथ वो गए और लड़ाई में इमाम हुसैन का सिर ले आए.

हुसैनी ब्राह्मण, करबला, इमाम हुसैन, नरेंद्र मोदी, बोहरा मुस्लिमहुसैनी ब्राह्मणों के लिए इमाम हुसैन बहुत जरूरी थे.

महाभारत से जुड़ा है हुसैनी ब्राह्मणों का इतिहास..

हुसैनी ब्राह्मणों का कुछ इतिहास महाभारत काल से भी जुड़ा है. कौरवों और पांडवों के गुरू द्रोणाचार्य दरअसल, दत्त ब्राह्मण थे. महाभारत के युद्ध के समय उनका बेटा अश्वत्थामा घायल होकर भूमि पर गिर पड़ा और उसे लोगों ने मरा हुआ समझ लिया. अश्वत्थामा तब शरण लेते हुए ईराक पहुंच गए और वहीं बस गए. महाभारत काल के बचे हुए योद्धाओं में से अश्वत्थामा भी एक थे. उन्हीं के वंशज माने जाते हैं हुसैनी ब्राह्मण.

दत्त या मोहियाल ब्राह्मणों के इतिहास में लिखा है कि ये पुराने जमाने में ब्राह्मण दान लेकर अपनी आजीविका चलाते थे. इस दौरान कुछ लोगों को ये अच्छा नहीं लगा तो वो सैनिक बन गए. इन्हीं को मोहियाल कहा गया. मोहि यानी जमीन और आल यानी मालिक. ये लोग योद्धा थे और अपनी जमीन के मालिक. इतिहास में इस तरह हुसैनी ब्राह्मणों के कई किस्‍से और किरदार दर्ज हैं.

Related Articles