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मोहर्रम : तैमूर लंग ने की थी ताजियों की शुरुआत : तैमूर को खुश करने के लिए शुरू हुई ताजियों की परंपरा


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मोहर्रम : तैमूर लंग ने की थी ताजियों की शुरुआत : तैमूर को खुश करने के लिए शुरू हुई ताजियों की परंपरा

देश भर में इमाम हुसैन की शहादत को याद करते हुए मुस्लिम समुदाय के लोग मुहर्रम मना रहे हैं और जगह-जगह ताजिये का जुलूस निकाला जाएगा। क्‍या आपको पता है कि इन ताजियों की शुरुआत कब

मोहर्रम : मोहर्रम के दौरान ताज़िया जुलूस हमेशा से आकर्षण का विषय रहा है. आखिर क्यों निकाला जाता है ये ताज़ियाेें का जुलूस? ताज़िया का जुलूस होता कैसा है और यह कब से निकल रहा है? आज हम इसी को जानने की कोशिश करेंगे. ताज़िया एक अरबी शब्द है जिसका मतलब होता है इमाम हुसैन के मज़ार की नक्ल. ताज़िया की बनावट में भी इस चीज़ का खयाल रखा जाता है कि यह दिखने में इमाम हुसैन की कब्र की याद दिलाए. ताज़िया मुसलमानों के साथ-साथ कई धर्म के लोग अकीदत के साथ उठाते हैं।

इसके इतिहास पर नज़र डाली जाए तो पैगंबर मोहम्मद के जीवन पर नज़र डालनी होगी. मोहम्मद साहब ने अपने जीवन के अंतिम दिनों में ही अपने नवासे इमाम हुसैन की शहादत की खबर दे दी थी. मोहम्मद साहब ने अपनी बीबी उम्मे सलमा को थोड़ी सी मिट्टी देकर कर्बला के बारे में पूरी जानकारी दे दी और बता दिया था कि उस वक्त आप मदीने (सउदी अरब) में होंगी जबकि हज़रत हुसैन को कर्बला यानी ईराक में शहीद किया जाएगा. उस वक्त आप तक खबर आऩे में काफी वक्त लगेगा लेकिन यह मिट्टी आप अपने पास संभाल कर रखियेगा और जिस वक्त हज़रत हुसैन को शहीद किया जाएगा यह मिट्टी खून से सन जाएगी।

इमाम हुसैन (अ.स.) का रौज़ा (करबला)

मोहम्मद साहब के इस दुनिया से जाने के कई साल बाद ऐसा मौका आया जब इमाम हुसैन ने अपना वतन छोड़ दिया और मक्का होते हुए कर्बला पहुंच गए, जहां इमाम हुसैन को उनके 72 साथियों के साथ शहीद कर दिया गया. इमाम हुसैन के शहीद होते ही वहां से कोसों दूर रखी हुई वह मिट्टी खून में तर हो गई, जिससे मदीने में खबर हो गई कि हज़रत हुसैन को शहीद कर दिया गया है। यह खून से तर मिट्टी देख कर ही मोहम्मद साहब की बीबी उम्मे सलमां की चीखें निकल गई और वहीं मातम करना शुरू कर दिया।

भारत (India ) एक धार्मिक देश है जहां सभी धर्म के लोग पूरी आजादी के साथ अपना त्योहार एंव धार्मिक कार्य करते हैं लेकिन जिस समुदाय का त्योहार होता है उसके बारे में अगले धर्म के लोगों को कम ही जानकारी होती है उन्हीं में से एक मोहर्रम (Muharram ) का त्योहार है जो शोक मनाने के लिए मनाया जाता है. तो आइये जानें कि मुहर्रम में ताजिया (Tazia) क्यों जरूरी है.ताज़िया एक अरबी शब्द है जिसका मतलब होता है इमाम हुसैन के मज़ार की नक्ल

आखिर क्या हुआ था कर्बला के मैदान में :

कर्बला की जंग

आज से लगभग 1400 साल पहले तारीख-ए-इस्लाम में कर्बला की जंग हुई थी। ये जंग जुल्म के खिलाफ इंसाफ के लिए लड़ी गई थी। इस्लाम धर्म के पवित्र शहर मदीना से कुछ दूर ‘शाम’ में मुआविया नामक शासक का दौर था। मुआविया की मृत्यु के बाद शाही वारिस के रूप में यजीद, जिसमें सभी अवगुण मौजूद थे, वह शाम की गद्दी पर बैठा। यजीद चाहता था कि उसके गद्दी पर बैठने की पुष्टि इमाम हुसैन करें क्योंकि वह मोहम्मद साहब के नवासे हैं और उनका वहां के लोगों पर अच्छा प्रभाव है। यजीद जैसे शख्स को इस्लामी शासक मानने से हजरत मोहम्मद के घराने ने साफ इनकार कर दिया था क्योंकि यजीद के लिए इस्लामी मूल्यों की कोई कीमत नहीं थी। यजीद की बात मानने से इनकार करने के साथ ही उन्होंने यह भी फैसला लिया कि अब वह अपने नाना हजरत मोहम्मद साहब का शहर मदीना छोड़ देंगे ताकि वहां अमन कायम रहे।

इमाम हुसैन हमेशा के लिए मदीना छोड़कर परिवार और कुछ चाहने वालों के साथ इराक की तरफ जा रहे थे। लेकिन करबला के पास यजीद की फौज ने उनके काफिले को घेर लिया। यजीद ने उनके सामने शर्तें रखीं जिन्हें इमाम हुसैन ने मानने से साफ इनकार कर दिया। शर्त नहीं मानने के एवज में यजीद ने जंग करने की बात रखी। यजीद से बात करने के दौरान इमाम हुसैन इराक के रास्ते में ही अपने काफिले के साथ फुरात नदी के किनारे तम्बू लगाकर ठहर गए। लेकिन यजीदी फौज ने इमाम हुसैन के तम्बुओं को फुरात नदी के किनारे से हटाने का आदेश दिया और उन्हें नदी से पानी लेने की इजाजत तक नहीं दी।

इमाम जंग का इरादा नहीं रखते थे क्योंकि उनके काफिले में केवल 72 लोग शामिल थे। जिसमें छह माह का बेटा उनकी बहन-बेटियां, पत्नी और छोटे-छोटे बच्चे शामिल थे। यह तारीख एक मोहरर्म थी, और गर्मी का वक्त था। गौरतलब हो कि आज भी इराक में (मई) गर्मियों में दिन के वक्त सामान्य तापमान 50 डिग्री से ज्यादा होता है। सात मोहर्रम तक इमाम हुसैन के पास जितना खाना और खासकर पानी था वह खत्म हो चुका था।

इमाम सब्र से काम लेते हुए जंग को टालते रहे। 7 से 10 मुहर्रम तक इमाम हुसैन उनके परिवार के मेंबर और अनुनायी भूखे प्यासे रहे। 10 मुहर्रम को इमाम हुसैन की तरफ से एक-एक करके गए हुए शख्स ने यजीद की फौज से जंग की। जब इमाम हुसैन के सारे साथी शहीद हो गए थे तब असर (दोपहर) की नमाज के बाद इमाम हुसैन खुद गए और वह भी शहीद हो गए। इस जंग में इमाम हुसैन के एक बेटे जैनुल आबेदीन जिंदा बचे क्योंकि 10 मोहर्रम को वह बीमार थे और बाद में उन्हीं से मुहमम्द साहब की पीढ़ी चली। इसी कुर्बानी ओर शहादत की याद में मोहर्रम मनाया जाता है। कर्बला का यह वाकया इस्लाम की हिफाजत के लिए हजरत मोहम्मद के घराने की तरफ से दी गई कुर्बानी है।

कर्बला के मैदान में शहीद हो गए थे हजरत इमाम हुसैन

इस्लाम धर्म की मान्यता के मुताबिक, हजरत इमाम हुसैन अपने 72 साथियों के साथ मोहर्रम माह के 10 वें दिन कर्बला के मैदान में शहीद हो गये थे। उनकी शहादत और कुर्बानी के तौर पर इस दिन को याद किया जाता है। कहा जाता है कि इस्लाम के पांचवे खलीफा मुआविया का बेटा यजीद वंशानुगत आधार पर खलीफा बना। यजीद चाहता था कि हजरत अली के बेटे इमाम हुसैन भी उसके खेमे में शामिल हो जाएं। हालांकि इमाम हुसैन को यह मंजूर न था। यजीद ने उनके खिलाफ जंग का ऐलान कर दिया। इस जंग में हुसैन अपने बेटे, घरवाले और अन्य साथियों के साथ शहीद हो गए।

जंग के दौरान 6 माह के अली असगर ने प्यास से दम तोड़ा

जंग के दौरान एक वक्त ऐसा भी आया तब सिर्फ हुसैन अकेले रह गये, लेकिन तभी अचानक उनके खेमे में शोर सुनाई दिया। उनका छह महीने का बेटा अली असगर प्यास से बेहाल था। हुसैन उसे हाथों में उठाकर मैदान-ए-कर्बला में ले आये। उन्होंने यजीद की फौज से बेटे को पानी पिलाने के लिए कहा, लेकिन फौज नहीं मानी और बेटे ने हुसैन के हाथों में तड़प कर दम तोड़ दिया। इसके बाद भूखे-प्यासे हजरत इमाम हुसैन को भी कत्ल कर दिया। इसे आशुरा यानी मातम का दिन कहा जाता है। इराक की राजधानी बगदाद के दक्षिण पश्चिम के कर्बला में इमाम हुसैन और इमाम हजरत अब्बास के मजार हैं।

हजरत मुहम्मद साहब के नवासे थे हजरत इमाम हुसैन

हजरत इमाम हुसैन पैगंबर मोहम्मद के नवासे थे। इमाम हुसैन के वालिद यानी पिता का नाम हजरत अली था, जो कि पैगंबर साहब के दामाद थे। इमाम हुसैन की मां बीबी फातिमा थीं। हजरत अली मुसलमानों के धार्मिक-सामाजिक और राजनीतिक मुखिया थे। उन्हें खलीफा बनाया गया था। कहा जाता है कि हजरत अली की हत्या के बाद लोग इमाम हुसैन को खलीफा बनाना चाहते थे लेकिन हजरत अमीर मुआविया ने खिलाफत पर कब्जा कर लिया। मुआविया के बाद उनके बेटे यजीद ने खिलाफत अपना ली। यजीद क्रूर शासक था। उसे इमाम हुसैन का डर था। यजीद के खिलाफ इमाम हुसैन ने कर्बला की जंग लड़ी और शहीद हो गए।

अरब प्रांत का शोक या गम मनाने का यही तरीका

अरब प्रांत का शोक या गम मनाने का यही तरीका था कि वह अपने हाथ से सीना या सिर पीटते थे. इसी परंपरा को मानते हुए शिया समुदाय आज भी इसी तरह से इमाम हुसैन का शोक मनाता है. जब वह मिट्टी खून से तर हो गई और इमाम हुसैन की शहादत की खबर मिल गई तो उस मिट्टी को जनाब उम्मे सलमां ने एक जगह से दूसरे जगह ले जाकर रख दिया या दफ्न कर दिया. कहने को इसे ही पहली ताज़िया कहा जा सकता है लेकिन इमाम हुसैन की याद में उनका घोड़ा (ज़ुल्जनाह) या उनका ताबूत भी उठाया जाता है और इसकी शुरूआत इमाम हुसैन की शहादत के बाद ही हो गई थी.

मुहर्रम के महीने में इमाम हुसैन की शहादत के गम में मातम, मजलिस के साथ-साथ ताजियादारी को लेकर शिया और सुन्नी समुदाय के लोगों में काफी मतभेद है. हुसैन की याद में शिया समुदाय के लोग बड़ी अकीदत के साथ ताजियादारी करते हैं. जबकि सुन्नी ताजियादारी के खिलाफ हैं और इसे बिदत (इस्लाम का हिस्सा नहीं) मानते हैं

इस्लामिक कैलेंडर का पहला महीना है मोहर्रम

मोहर्रम का महीना इस्लामिक कैलेंडर का पहला महीना है। यह महीना इस्लाम धर्म में शिया और सुन्नी मुस्लिम समुदाय के लोगों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। इस्लामिक कैलेंडर का पहला महीना मुहर्रम इस साल 07 जुलाई 2024, रविवार से शुरू हो गया। वहीं मुहर्रम की 10 वीं तारीख यौम-ए- आशूरा के नाम से जानी जाती है। यह इस्लाम का प्रमुख दिन है। आशूरा मातम का दिन होता है। इस दिन मुस्लिम समुदाय मातम मनाता है।

मुहर्रम के दिन मुस्लिम समुदाय के लोग गमजदा होकर शोक मनाते हैं। इस दिन मुसलमान लोग हुसैन की शहादत को याद करते हैं और उनके प्रति अपना शोक व्‍यक्त करते हैं। इस दिन देश भर में ताजिये का जुलूस निकाला जाता है। ताजिये का जुलूस इमामबारगाह से निकलता है और कर्बला में जाकर खत्म होता है। कहा जाता है ताजिये की शुरुआत मुस्लिम शासक तैमूर के दौर में हुई थी। आइए इस मौके पर आपको बताते हैं ताजिये का इतिहास और इससे जुड़ी जानकारी।

मुहर्रम इस्लामी कैलेंडर यानी हिजरी साल का पहला महीना है। इस महीने की 10 तारीख को आशूरा कहते हैं। आशूरा और उसके एक अगले या पिछले दिन दुनियाभर के मुस्लिम रोजा रखते हैं। हालांकि यह रोजा रमजान के रोजे की तरह रखना आवश्यक (फर्ज) नहीं है, लेकिन मुहर्रम की दस तारीख को ही इस्लाम धर्म के आखिरी पैगंबर हजरत मुहम्मद सल्लल्लाहुअलैहिवसल्लम के नवासे इमाम हुसैन को इराक के  कर्बला के मैदान में शहीद कर दिया गया था। जिससे दुनियाभर के मुसलमानों को भारी सदमा पहुंचा था। इमाम हुसैन की शहादत की याद में ही दुनियाभर के शिया मुसलमान इस दिन मातम मनाते हैं। लेकिन भारत में इस दिन इमाम हुसैन की  कर्बला स्थित मजार पर बने मकबरे के जैसी आकृति का ताजिया बनाया जाता है। लेकिन, इस ताजिए का इस्लाम धर्म से कोई लेना-देना नहीं है। यह विशुद्ध रूप से एक भारतीय परंपरा है, इसिलए अविभाजित भारतीय क्षेत्र (अब भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश) के अलावा दुनिया के किसी भी इस्लामी देश में ताजिया न तो बनाया जाता है और न ही निकाला जाता है। भारत में ताजिए की शुरुआत कब और कैसे हुई जानने के लिए पढ़िए ये रिपोर्ट…

क्‍या होते हैं ताजिये

इमाम हुसैन की कब्र के प्रतीक के रूप में बनाई जाने वाली बड़ी-बड़ी कलाकृतियों को ताजिया कहा जाता है। इसको बनाने में सोने, चांदी, लकड़ी, बांस, स्टील, कपड़े और कागज का प्रयोग किया जाता है। मुहर्रम की 10वीं तारीख को हुसैन की शहादत की याद में गम और शोक के प्रतीक के तौर पर जुलूस के रूप में ताजिया निकाला जाता है।

ताजिये का तैमूर से क्‍या कनेक्‍शन

ताजिए का इतिहास
भारत में ताजिए की शुरूआत 14वीं सदी में तैमूर लंग बादशाह के शासनकाल में हुई थी। दरअसल, तैमूर लंग बादशाह का ताल्लुक शिया मुस्लिम संप्रदाय से था। तैमूर लंग फारस, अफगानिस्तान, मेसोपोटामिया और रूस के कुछ भागों को जीतते हुए 1398 में भारत पहुंचा। बताया जाता है कि उसके साथ 98000 सैनिक भी भारत आए थे। दिल्ली की सत्ता पर काबिज महमूद तुगलक से युद्ध जीतने के बाद उन्होंने अपना ठिकाना बनाया और यहीं उसने स्वयं को बादशाह घोषित कर दिया था। तैमूर लंग दाएं हाथ और दाए पांव से पंगु था। इसिलए उसके नाम के साथ लंग जुड़ गया। दरअसल, लंग तुर्की शब्द है, जिसका अर्थ लंगड़ा होता है। बताया जाता है कि शिया समुदाय से होने की वजह से तैमूर लंग हर वर्ष मुहर्रम माह में इराक के कर्बला में इमाम हुसैन के मजार पर जरूर जाता था। बताया जाता है कि वह हृदय रोगी था, इसलिए हकीमों और वैद्यों ने उसे यात्रा के लिए मना किया था। सेहत खराब होने की वजह से वह एक साल कर्बला नहीं जा पाया। लिहाजा, बादशाह सलामत को खुश करने के लिए दरबारियों ने तैमूर को खुश करने के लिए जमाने के कलाकारों को इकट्ठा कर उन्हें इराक के कर्बला स्थित इमाम हुसैन के रोजे (कब्र) की प्रतिकृति बनाने का आदेश दिया था। इस आदेश के बाद कुछ कलाकारों ने बांस की किमचियों की मदद से इमाम हुसैन की याद में उनके कब्र पर बने मकबरे का ढांचा तैयार किया, जिसे तरह-तरह के फूलों से सजाया गया। इसी को ताजिया नाम दिया गया। इस तरह 801 हिजरी में तैमूर लंग के महल के परिसर में ताजिए को पहली बार रखा गया।

तैमूर के दरबारियों ने बनाए ताजिये

तैमूर को जब हिंदुस्‍तान में ही मुहर्रम मनाना पड़ा तो उसके दरबारियों को अपने शहंशाह को खुश करने के लिए कुछ अलग हटकर करने के बारे में सोचा। उन्‍होंने इराक के कर्बला में स्थित इमाम हुसैन की कब्र जैसी कृतियां बनाने का आदेश दिया और तब शिल्‍पकारों ने तैयार किए ताजिये। उस वक्‍त बांस की खपंचियों पर कपड़ा लगाकर यह ढांचा तैयार किया गया और उसे ताजिया कहा गया। ताजियों को फूलों से सजाया गया और तैमूर के महल में रखा गया। इस तरह मुहर्रम पर हर साल ताजिया बनाने की परंपरा चल पड़ी।

तैमूर को खुश करने के लिए देशभर में फैल गई ताजिए की परंपरा
दिल्ली के शासक तैमूर के ताजिए की धूम बहुत जल्द पूरे देश में मच गई। बताया जाता है कि देशभर से राजे-रजवाड़े और श्रद्धालु जनता इस ताजिए की जियारत (दर्शन) के लिए पहुंचने लगे। इसके बाद तैमूर लंग को खुश करने के लिए देश की रियासतों में भी इस परंपरा की सख्ती के साथ शुरुआत हो गई। खासतौर पर शिया संप्रदाय के नवाबों व सूबेदारों ने तत्काल ही इस परंपरा पर अमल शुरू कर दिया। तभी से लेकर अब तक इस अनूठी परंपरा को भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश और बर्मा (म्यांमार) में मनाया जा रहा है। ताजियादारी की खास बात ये है कि खुद तैमूर लंग के देश उज्बेकिस्तान या कजाकिस्तान में या शिया बहुल देश ईरान में ताजियों की परंपरा का कोई उल्लेख नहीं मिलता है।

पूरे देश में बनने लगे ताजिये

उसके बाद जैसे तैमूर को खुश करने के लिए पूरे देश के मुस्लिमों में होड़ सी मच गई और पूरे देश में ताजिये बनने लगे। जबकि आश्‍चर्य की बात यह है कि तैमूर के अपने देश उज्बेकिस्तान या कजाकिस्तान ताजिए बनाए जाने की परंपरा का कोई जिक्र नहीं मिलता। तैमूर की मृत्‍यु 19 फरवरी, 1405 ईस्वी में हुई थी। उसके बाद भी ताजिए का जुलूस निकालने की परंपरा चलती रही जो कि आज भी जारी है।

ताज़िये में लोग आकर मन्नत मुराद मांगते थे और जिसकी भी मन्नत पूरी हो जाती थी वह अगले साल खुद भी ताज़िया उठाने लग जाता था. ताज़िया उठाने के लिए इस्लाम धर्म का होना ज़रूरी नहीं है बल्कि जो भी इमाम हुसैन की शहादत के बारे में जान लेता है वह ताज़िया उठाने लग जाता है.

भारत और पाकिस्तान में आज भी कई ऐसे राजा और महाराजा के परिवार हैं जहां ताज़िया बड़े ही अकीदत के साथ उठाया जाता है. इस क्रम में ग्वालियर का सिंधिया राजघराना और हैदराबाद का राजघराना भी शामिल हैं. भारत में ताज़िये की शुरूआत तैमूर ने की जो खुद मन्नत पूरी होने के बाद ताज़िया उठाया करता था. कहा जाता है कि जैसे
-जैसे मन्नत, मुराद लोगों की पूरी होती गई वैसे ही ताज़िया हर जगह बनाई और सजाई जाने लगी. ताज़िया की यह परंपरा मुगलों को भी बहुत पंसद आई और उन्होंने एक से बढ़कर एक ताज़िया बनाई. ताज़िया की परंपरा भारत से होते हुए पाकिस्तान, बाग्लादेश और म्ंयामार तक पहुंची और अब लगभग दुनिया के हर देश में ताज़िया को बनाकर रखा जाता है और मोहर्रम की दसवीं तारीख को हर जगह ताज़िया का जुलूस निकाला जाता है.

ताजिया के जुलूस में हर धर्म के लोग विश्वास और आस्था रखते हैं. ताज़िया एक तरीके से हुसैन की मजार की नक्ल है. लोगों की आस्था है कि हम कर्बला में होते तो सच्चाई के मार्ग पर रहकर इमाम हुसैन की ओर से अपनी कुर्बानी पेश करते. चूंकि हज़रत हुसैन को कर्बला में शहीद कर दिया गया था और उनका जनाज़ा भी नहीं उठ सका था इसलिए इमाम हुसैन की याद में आज तक इमाम हुसैन का ताबूत भी उठाया जाता है और ताज़िया भी उठाया जाता है.।

ताज़िया को कर्बला के 72 शहीदों की याद में उठाया जाता है. शिया समुदाय का कोई भी इंसान जब तक ताज़िया नहीं उठा लेता वह भूखा ही रहता है. किसी के घर में भी चूल्हा नहीं जलाया जाता है. वहीं सुन्नी समुदाय के लोग इस दिन रोज़ा रखते हैं. ताज़िया का जुलूस भी अलग अलग तरीके से निकाला जाता है जिसमें शिया समुदाय इमाम हुसैन की शहादत का गम मनाते हैं और ताज़िया को इमाम हुसैन के जनाज़े का प्रतीक मानकर बेहद सादगी के साथ निकालते हैं जबकि सुन्नी समुदाय इस दिन को इस्लाम की जीत का जश्न मनाता है वह इमाम हुसैन की शहादत को सलामी पेश करते हैं और इस्लाम धर्म की जीत की याद में जुलूस निकालते हैं.

तैमूर लंग ऐसे पहुंचा भारत
तैमूर अपनी शुरू की गई ताजिए की परंपरा को ज्यादा देख नहीं पाया और गंभीर बीमारी का शिकार होने के कारण 1404 में समरकंद लौट गया। इसके बाद 19 फरवरी 1405 को ओटरार चिमकेंट के पास (अब शिमकेंट, कजाकिस्तान) में उनकी मौत हो गई। लेकिन तैमूर के जाने के बाद भी भारत में यह परंपरा जारी रही। तब से भारत के शिया-सुन्नी और कुछ इलाकों में हिन्दू भी ताजिए की परंपरा को मानते और मनाते आ रहे हैं। तैमूर बरला वंश का तुर्की योद्धा था और विश्व विजय उसका सपना था। सन्‌ 1336 को समरकंद के नजदीक केश गांव ट्रांस ऑक्सानिया (अब उज्बेकिस्तान) में जन्मे तैमूर को चंगेज खां के पुत्र चुगताई ने प्रशिक्षण दिया। सिर्फ 13 वर्ष की उम्र में ही वह चुगताई तुर्कों का सरदार बन गया था।

इन तमाम वैचारिक टकराव के बावजूद इमाम हुसैन के बताए रास्ते सभी संप्रदायों में उनके प्रति श्रद्धा और विश्वास जगाते हैं. ताजियों का इंतजाम भले तैमूर के दरबारियों ने अपने सरदार को खुश करने के लिए किया था, लेकिन उसके पीछे जज्बा तो इमाम हुसैन के प्रति श्रद्धा का ही था. इमाम हुसैन को हमेशा इंसाफ, बराबरी और भाईचारा के लिए याद किया जाता रहेगा। इंसानों में सदाचार जगाने वाले ये उसूल, उम्मीद करें कि मोहर्रम के ताजिए देखकर और मजबूत हों।

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