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सात समंदर पार से आए मेहमानों ने लाठी में डाला डेरा, अगले साल होगी वतन वापसी


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सात समंदर पार से आए मेहमानों ने लाठी में डाला डेरा, अगले साल होगी वतन वापसी

सर्दियों के मौसम में हजारों किलोमीटर का सफर तय कर पश्चिमी राजस्थान में डेरा डालने वाली कुरजां पक्षी इन दिनों जैसलमेर जिले के तालाबों की रौनक बढ़ा रही हैं। वन्यजीव के सबसे बड़े एरिया लाठी, देगराय इलाके में धीरे-धीरे अब इनकी संख्या बढ़ने लगी है। वन्यजीव प्रेमियों के अनुसार, इलाके में पांच हजार से भी ज्यादा विदेशी मेहमान कुरजां ने डेरा डाल रखा है।

जैसलमेर : जैसलमेर के ज्यादातर बड़े तालाबों वाले एरिया में इन पक्षियों का कलरव सुना जा सकता है। जैसे-जैसे तापमान में कमी आ रही है, वैसे-वैसे इन पक्षियों का आना लगातार जारी है। दरअसल चीन, कजाकिस्तान, मंगोलिया आदि देशों में सितंबर के महीने में ही बर्फबारी शुरू हो जाती है। ऐसे में कुरजां पक्षी के लिए सर्दियों का वो मौसम उनके अनुकूल नहीं होता। कड़ाके की ठंड में खुद को बचाए रखने की जद्दोजहद में हजारों किलोमीटर का सफर तय करके ये कुरजां पश्चिमी राजस्थान का रुख करती हैं।

पर्यावरण प्रेमी सुमेर सिंह भाटी ने बताया कि भारत में खासकर पश्चिमी राजस्थान जैसे गरम इलाके में सितंबर और अक्टूबर महीने से फरवरी तक शीतलहर चलती है। इस लिहाज से इस पक्षी के लिए ये मौसम काफी अनुकूल रहता है। इस दौरान करीब पांच से छह महीने के लिए कुरजां पश्चिमी राजस्थान में अलग-अलग जगहों पर अपना डेरा डालती हैं। जैसलमेर जिले के लाठी, खेतोलाई, डेलासर, धोलिया, लोहटा, चाचा, देगराय ओरण सहित अन्य जगहों पर कुरजां ही कुरजां नजर आ रही हैं। इन पक्षियों के आने से पर्यावरण प्रेमी और पक्षी प्रेमी काफी खुश हैं और वे इन इलाकों में घूम-घूम कर शोध भी कर रहे हैं।

गौरतलब है कि दक्षिण पूर्वी यूरोप एवं अफ्रीकी भू-भाग में डेमोसाइल क्रेन के नाम से विख्यात कुरजां पक्षी अपने शीतकालीन प्रवास के लिए हर साल हजारों मीलों उड़ान भरकर भारी तादाद में क्षेत्र के देगराय ओरण और लाठी इलाके के तालाबों तक आते हैं। मेहमान परिंदों का आगमन सितंबर महीने के पहले हफ्ते से शुरू हो जाता है और करीब छह महीने तक प्रवास के बाद मार्च में वापसी की उड़ान भर जाते हैं।

एकांत में रहने वाला शर्मिला पक्षी
सुमेर सिंह बताते हैं कि एकांत प्रिय मिजाज का यह पक्षी अपने मूल स्थानों पर इंसानी आबादी से काफी दूर रहता है। लेकिन जहां डेरा डालते हैं, वहां इंसानी दखल को नापसंद नहीं करते हैं। ग्रामीण भी कुरजां को अपना मेहमान समझकर उनकी पूरी देखभाल एवं सुरक्षा करते हैं।

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