आज मैंने देखा
एक आठ मंजिली ऊंची मीनार के किसी कोने में
तीन ईंटों का चूल्हा जलते हुए
फिर देखा यह तीन ईंटों का चूल्हा कैसे करता होगा अपने अस्तित्व की सापेक्षता उस मीनार से
कैसे यह खुरदरे हाथ मजदूर के बनाते हैं चिकनी दीवारें
कैसे नंगे बच्चों के कंधों का बोझ यह उठाते होंगे
क्या इनके भी सपने मुकम्मल होते हैं इस जहां में
कहां सोते होंगे यह एक फट्टे की पलंग को जोड़ जोड़ कर
जैसे अपने कभी ना पूरे होने वाले सपनों की कड़ियों की तरह
कैसे करते होंगे यह अपनी बेटियों की सरेराह हिफाजत
कैसे झेलते होंगे यह ज़माने भर की जलालत
यह कहां से लाते होंगे हौसला
मुट्ठी भर दानों के लिए कलेज़ा भर पसीना
हड्डियों के ढांचों में पसीज़ता है इनका सीना
इसे ही कहते है जीवटता, इसे ही कहते है जीना
कौन सी तराजू में तुलता है इनका साहस
इनकी बेचारगी की कीमत कितनी दे पाता होगा वो ठेकेदार
मैंने देखा वो पालते हैं, दो जानवर भी साथ में
शायद वो इंसान और जानवर में फर्क ना करते हो
क्या उनको गीता के स्थितप्रज्ञ का ज्ञान हैं
उनके ख्वाबों की ताबीर, उनके चेहरे की तस्वीर
कितना फर्क है, मीनार में रहके मीनार की परछाई में सोना
आज वो मजदूर बूढ़ा बाबा चला गया
इकोसिस्टम का एक हिस्सा या कुछ भी नहीं
पर फर्क किसे पड़ा, क्या तुम्हें खबर है
कितनी छोटी हैसियत का था बाबा
या यूं कहें की कितनी सीमित पहचान का था बाबा
कंधे भी पूरे चार ना मिल सके
यह क्या छोड़ गया वो
चार बर्तन, तीन लोग
दो अलग होते मिट्टी के चूल्हे
और एक अनकही पहेली
क्या उसे हसरत है इस दुनिया में लौट आने की
अधूरे सपनो का मंका फिर से बनाने की
मेरी नज़र में वह बेहद दोलतमंद था
अक्सर मुझसे आते जाते वो चाय रोटी का पूछा करता था
क्या वह बुद्धिस्ट की तरह अनात्मवादी
अनीश्वरवादी नहीं होना पसंद करेगा
कैसी चाह, कैसी राह, कैसी आह..
कुछ नहीं है ना उनके पीछे
उसे काक बलि की जरूरत नहीं है शायद
वो नहीं आयेगा मुंडेर पर, उसे मत पुकारना
वो बाबा, वो बोनी हसरतों वाला
वो ताजिंदगी बाबा ही बना रहा
वक्त के साथ उसका नाम भी उसके अस्तित्व की तरह
कभी मिट्टी में खो गया होगा
पर “उमा” में वो प्रेमचंद के ‘गोदान’ का ‘होरी’ बनकर ज़िंदा रहेगा
~उमा व्यास (एसआई, राज.पुलिस) कार्यकर्ता, श्री कल्पतरु संस्थान