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क्या चिड़िया देखने भी जाना पड़ेगा चिड़ियाघर?:20 साल से लगातार घट रही संख्या, 3 कारणों से खामोश हो रही चहचहाहट


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क्या चिड़िया देखने भी जाना पड़ेगा चिड़ियाघर?:20 साल से लगातार घट रही संख्या, 3 कारणों से खामोश हो रही चहचहाहट

क्या चिड़िया देखने भी जाना पड़ेगा चिड़ियाघर?:20 साल से लगातार घट रही संख्या, 3 कारणों से खामोश हो रही चहचहाहट

याद है कि घर के आंगन या छत पर दाना चुगती चिड़िया को पिछली दफा कब देखा था ?

क्या आपके घर के किसी कोने-झरोखे में किसी चिड़िया को घोंसला है?

क्या आपके कानों में सुबह-शाम चिड़िया की चहचहाहट गूंजती हैं ?

क्या आप जानते हैं कि इस प्रकृति में बाघ, शेर और हाथी जैसे बड़े जीवों का जितना महत्व चिड़िया का भी है ?

ये सवाल इसलिए क्योंकि आज वर्ल्ड स्पैरॉ डे (विश्व चिड़िया दिवस) है। लेकिन जब चिड़िया ही नजर नहीं आती तो ये विशेष दिन भी सिर्फ औपचारिकता बन गया गया है। दिल्ली और बिहार ने चिड़िया को अपना राज्य पक्षी भी घोषित किया हुआ है। छोटी सी चिड़िया कभी धरती पर सबसे ज्यादा संख्या में पाई जाने वाली पक्षी थी, लेकिन पिछले 20 सालों में संख्या इतनी घटी कि अब दिखाई ही नहीं देती। पिछले एक-दो दशक में दुनिया भर में हुए शोध कार्यों और पक्षी विज्ञानियों की चेतावनियों ने यह साबित किया है कि चिड़िया की इस हालत के जिम्मेदार मनुष्य हैं। यही स्थिति लगातार बनी रही तो कहीं अगली पीढ़ी को चिड़िया को देखने के लिए भी चिड़ियाघर न जाना पड़ जाए।

पिछले 20 सालों में चिड़िया की संख्या में काफी कमी आई है।
पिछले 20 सालों में चिड़िया की संख्या में काफी कमी आई है।

क्यों उजड़ गई चिड़िया की दुनिया

इस चिड़िया को घरेलू चिड़िया (हाउस स्पैरॉ) भी कहा जाता है, क्योंकि यह जंगलों के बजाए घरों में रहने की आदी रही है। इसकी सबसे बड़ी खूबी ही सबसे बड़ी चुनौती बन गई। पक्षी विशेषज्ञों के अनुसार इसकी संख्या में तेजी से हो रही कमी के केवल तीन मुख्य कारण हैं। एकइनका दाना-पानी छिन गया, इनका घर उजाड़ दिया और तीसरा कारण-मोबाइल।

खेतों में पेस्टीसाइड्स का इस्तेमाल

यह चिड़िया मूलत: अनाज के दानों और छोटे कीड़े-पतंगों, लार्वा आदि को खाती है। खेतों में किसान अपनी फसलों को बचाने के लिए पेस्टीसाइड्स का जमकर उपयोग करते हैं। पेस्टीसाइड्स में जो केमिकल होते हैं, वे चिड़िया के लिए असहनीय होते हैं। यह उन दानों को खा ही नहीं पाती है, जिन पर पेस्टीसाइड्स छिड़का हुआ होता है। पेस्ट (कीड़े-मकोड़े) को मारने के लिए छिड़के गए केमिकल से कीड़े-मकोड़े मर जाते हैं। उनके अंडे और लार्वा नष्ट हो जाते हैं। फसलों में उगने वाले दाने और वहां पनपने वाले कीड़े दोनों ही इस चिड़िया का भोजन हैं। अब इस चिड़िया को अपने दोनों ही भोजन आसानी से उपलब्ध नहीं हैं। ऐसे में उनका फलना-फूलना, पनपना और से जिंदा रहना बेहद मुश्किल हो चला है।

फसलों पर पेस्टीसाइड्स के इस्तेमाल से चिड़िया स उनका भोजन छिन जाता है।
फसलों पर पेस्टीसाइड्स के इस्तेमाल से चिड़िया स उनका भोजन छिन जाता है।

नए घरों में चिड़िया का आना-बैठना, घोंसला बनाना बेहद मुश्किल

शहरों में ही नहीं बल्कि अब छोटे कस्बों व गांवों तक में जिस तरह के मकान बनाए जाते हैं, उनमें झरोखों, रोशनदानों, ताकों, दरवाजों, खिड़कियों, आंगन-छतों की डिजायन इस तरह की हैं कि चिड़िया के घौंसले बनाने की कोई जगह वहां नहीं होती। न तो घरों में रोशनदान हैं और न दरवाजों के ऊपर ताक जैसी कोई जगह। न घरों में खुले आंगन हैं, जहां उन्हें दाना डाला जाता था। ज्यादातर घरों में जैसे ही कोई चिड़िया आकर तिनके जमा करती है घोंसला बनाने के लिए, तुरंत उसे हटा दिया जाता है। ऐसे में उनकी प्रजनन प्रक्रिया पूरी तरह से खत्म होने की कगार पर है। या तो वे अंडे दे नहीं पाती और अंडे दे दे तो उन्हें तुरंत हटाने दिया जाता है। ऐसे में उन में से बच्चे पनप नहीं पाते।

मोबाइल और टावर

हर आदमी के हाथ में मोबाइल है और उन्हें संचालित करने के लिए लगे हैं मोबाइल टावर। इन मोबाइल टावर से निकलने वाली रेडिएशन के प्रसार से चिड़िया के दिमाग और प्रजनन तंत्र पर गहरा प्रभाव पड़ता है। उनमें रास्ता भूलने, भटकने, बेचैन रहने, प्रजनन न कर पाने जैसी प्रवृत्तियां विकसित हो जाती हैं। इस विषय में हॉलीवुड में कई फिल्में भी बनी हैं। वहीं भारत में भी रजनीकांत और अक्षय कुमार की फिल्म 2.0 की थी यही थीम थी।

मोबाइल टावर से निकलने वाले रेडिएशन से चिड़िया के दिमाग और प्रजनन तंत्र पर निगेटिव इंपैक्ट आता है।
मोबाइल टावर से निकलने वाले रेडिएशन से चिड़िया के दिमाग और प्रजनन तंत्र पर निगेटिव इंपैक्ट आता है।

लाखों की इंसानी आबादी के नीचे कुचले जाते हैं चिड़िया के घोंसले

इंसानी आबादी किस तरह से चिड़िया के घौंसलों को खत्म करती है, इसका एक उदाहरण है जयपुर शहर। जयपुर अब तेजी से महानगर का रूप ले रहा है। कभी परकोटे तक सीमित रहने वाले जयपुर के घरों की मुंडेर से लेकर आंगन और छत तक चिड़िया का आना-जाना था, लेकिन अब परकोटे से 50 किलोमीटर की परिधि तक केवल मकान ही मकान (कंक्रीट जंगल) हैं। चिड़िया के रहने के लिए कोई गुंजाइश ही नहीं। आस-पास 50-60 किलोमीटर तक तक कोई खेत-खलिहान ही नहीं। आज के जयपुर में जो बनीपार्क, राजापार्क, मालवीय नगर, वैशाली नगर, मानसरोवर, प्रतापनगर हैं वे कभी खेत-खलिहान थे जो अब नहीं है। यही कहानी दूसरे शहरों की भी है जिनके लाखों मकानों के नीचे दब गए हैं चिड़िया के घौंसले।

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद की चेतावनी

भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद (आईसीएआर) की एक रिपोर्ट (जुलाई-2022) के अनुसार भारत में चिड़िया की संख्या में कमी पिछले एक दशक में लगभग 80 प्रतिशत तक हुई है। राजस्थान, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, पंजाब, हरियाणा, बिहार, गुजरात, दिल्ली जैसे मैदानी और कृषि प्रदेश इसके मुख्य घर रहे हैं। आकार में छोटी होने के कारण किसी भी संस्था या संगठन के लिए इसके एकदम सटीक संख्या का पता लगाया जाना लगभग नामुमकिन है, लेकिन दुनिया भर में पर्यावरणविद इसकी घटती संख्या को लेकर चिंताएं जता रहे हैं।

चिड़िया अब खतरे की रेड लिस्ट में है

इंटरनेशनल यूनियन फॉर कन्जर्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) दुनिया भर के जीव-जंतुओं के बारे में शोध, रिसर्च, अध्ययन करके समय-समय पर चेतावनी जारी करता है। इसमें तीन श्रेणियों (खत्म, खतरा और कोई खतरा नहीं) में से खत्म का अर्थ है जो जीव-जंतु पूरी तरह से खत्म या विलुप्त हो चुके हैं। दूसरी श्रेणी है जिनके अस्तित्व को खतरा उपस्थित हो गया है। तीसरी श्रेणी है जिनके बारे में कोई खतरा नहीं है। चिड़िया पिछले एक दशक में कोई खतरा नहीं से खतरा है वाली श्रेणी (तीसरी से दूसरी) में आ चुकी है।

एक रिपोर्ट के अनुसार, पिछले 10 साल में चिड़िया की संख्या 80 प्रतिशत तक कम हो गई है।
एक रिपोर्ट के अनुसार, पिछले 10 साल में चिड़िया की संख्या 80 प्रतिशत तक कम हो गई है।

चिड़िया और मनुष्य का साथ है 4 लाख सालों से

बेथलेहम स्थित एक गुफा में जीवाश्म (फॉसिल्स) मिले हैं, जो प्रमाण हैं कि चिड़िया मनुष्यों के साथ कम से कम 4 लाख वर्षों से रह रही है। उसका अस्तित्व इन 4 लाख सालों से भी ज्यादा पुराना हो सकता है, लेकिन केवल जीवाश्म को भी प्रमाण माना जाए तो उनका अस्तित्व तब से तो है ही।

कैसे बचा सकते हैं इस छोटी सी चिड़िया को

अपने घरों की छतों-बालकनी, बगीचे आदि में चिड़िया के लिए पानी के बर्तन और बर्ड फीडर (दाना के लिए) लगाकर-बांधकर। उन्हें चावल-गेहूं के दाने मिलेंगे तो वे आस-पास कहीं पनप सकेंगी। दाने-पानी का बर्तन प्लास्टिक के बजाए लकड़ी या मिट्‌टी का हो ज्यादा बेहतर रहेगा। घर-मकान में किसी एक-दो जगह घोंसला बनाने दें। उसे झाड़ू मारकर तुरंत न हटाएं। कुछ दिनों में अंडे से बच्चे निकलकर स्वत: उड़ जाएंगे। जहां भी संभव हो तो पौधरोपण अवश्य करें, ताकि इनके लिए हर कॉलोनी में कोई न कोई स्थान बैठने के लिए अवश्य बना रहे।

क्या महत्व है चिड़िया का

एक्सपट्‌र्स का कहना है कि प्रकृति में कोई भी जीव बेवजह नहीं है। छोटी सी दिखने वाली यह चिड़िया नेचुरल पेस्ट कंट्रोलर की भूमिका में होती है। खेतों में फसलों पर लगने वाले कीट-पतंगों सहित मकानों के आस-पास मंडराने वाले कीड़ों को खाकर यह उनकी संख्या पर नियंत्रण रखने वाली नेचुरल कंट्रोलर है।

साथ ही यह स्वयं और इसके अंडे इससे बड़े पक्षियों (कौआ, बाज, चील आदि) के लिए भोजन का काम भी करते हैं। इसकी संख्या में कमी होने से कीट-पतंगों की संख्या बढ़ने लेकिन कौआ, बाज, चील जैसे पक्षियों की संख्या में कमी होने का सबब है। प्रकृति में असंतुलन को संतुलित रखने का काम करती है यह छोटी सी चिड़िया।

  • राजकीय कॉलेज जयपुर (जेएलएन मार्ग) में प्राणीविज्ञान की प्रोफेसर डॉ. आशा शर्मा का कहना है कि पुराने घरों में चिड़िया को न केवल दाना-पानी डालने की परम्परा थी, बल्कि उन्हें घौंसला भी बनाने दिया जाता था। घर में बेटियों को चिड़िया मानने वाले गीत-संगीत, कविता, काव्य की रचनाएं भी हमारे समाज भी थीं। आधुनिक दौर में शहरों में घर-मकान ही ऐसे बनने लगे हैं कि चिड़ियाओं के लिए कोई स्थान ही नहीं है।
  • नागौर जिले में चिड़िया की हजारों तस्वीरें खींचने वाले डॉ. राजेंद्र सिंह कालवी का कहना है कि गांव-कस्बों में तो फिर भी चिड़िया दिख जाती है, लेकिन शहरों में तो बहुत तलाश करने पर भी चिड़िया नहीं दिख पाती। यहां तक कि पार्क या बाग-बगीचों तक में नहीं दिखाई देती।
  • हाड़ौती वाइल्डलाइफ सोसायटी (कोटा) के पक्षी विशेषज्ञ रविंद्र सिंह तोमर कहते हैं कि हर जीव-जंतु के जीवन पर संकट मनुष्यों की लगातार बढ़ती हुई आबादी से ही आया है। किसी प्राणी का विलुप्त होना तभी शुरू हो जाता है, जब वो कम होना शुरू कर देता है।

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