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अज़ान की हक़ीक़त – Reality of Azaan


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धर्म/ज्योतिष

अज़ान की हक़ीक़त – Reality of Azaan

‘‘मुसलमान रोज़ पांच बार मस्जिदों से, ऊंची आवाज़ में अकबर बादशाह को क्यों पुकारते हैं? क्या इसलिए कि वे अपना भूतकालीन शासन-सत्ता वापस लाने की इच्छा रखते हैं?’’

अज़ान की हक़ीक़त : यह एक बड़ी ग़लतफ़हमी है जो अज़ान में बोले जाने वाले शब्द ‘अकबर’ का अर्थ न जानने की वजह से पैदा हुई है। यह शब्द रोज़ाना पांच बार, मस्जिदों से ऊंची आवाज़ में ‘अज़ान’ के दौरान सुना जाता है। इस्लाम में ‘नमाज़’ नामक उपासना व्यक्तिगत रूप से की जाती है लेकिन इसका सामूहिक रूप से किया जाना वांछित और श्रेष्ठ व उत्तम बल्कि यदि परिस्थिति अनुकूल हो तो अनिवार्य क़रार दिया गया है। इस सामूहिकता के लिए दो बातों की प्राथमिक आवश्यकता है एक : निर्धारित जगह, और दो : लोगों को इकट्ठा करने का निश्चित उपाय। पहली ज़रूरत के लिए मुस्लिम समाज में मस्जिद बनाने की परंपरा बनी और इसे एक अनिवार्य और अत्यंत पुण्य कार्य माना गया। दूसरी ज़रूरत के लिए इस्लाम के बिल्कुल शुरू के दिनों में, पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल॰) की स्वीकृति व अनुमति से अज़ान की पद्धति धारण की गई। ‘अज़ान’ एक अरबी शब्द है, जिसका भावार्थ ‘पुकार कर बताना’ या ‘घोषणा करना’ है। अज़ान देकर लोगों को पुकारा, बताया, बुलाया जाता है कि नमाज़ का निर्धारित समय आ गया, सब लोग उपासना स्थल पर आ जाएं, जो मस्जिद भी हो सकती है, और अन्य कोई जगह भी।

‘अकबर’ (के अरबी) शब्द का अर्थ है ‘बड़ा’। यह इस्लामी परिभाषा में ईश्वर अल्लाह की गुणवाचक संज्ञा (Attributive Noun) है। इस परिभाषा में अकबर का अर्थ होता है बहुत बड़ा, सबसे बड़ा। अज़ान के प्रथम बोल हैं : ‘अल्लाहु अकबर’ अर्थात् अल्लाह बहुत बड़ा/सबसे बड़ा है। इसमें यह भाव निहित है कि अल्लाह के सिवाय दूसरों में जो भी, जैसी भी, जितनी भी बड़ाइयां पाई जाती हैं, वे ईश-प्रदत्त हैं और ईश्वर की महिमा व बड़ाई से बहुत छोटी, तुच्छ, अपूर्ण, अस्थायी, त्रुटियुक्त हैं। वास्तव में ‘बड़ा’ सिर्फ़ ईश्वर ही है।

यहां पूरी अज़ान के बोल उल्लिखित कर देना उचित महसूस होता है :
• अल्लाहु अकबर-अल्लाहु अकबर (दो बार), अर्थात् ‘अल्लाह सबसे बड़ा है।’
• अश्हदुअल्ला इलाह इल्लल्लाह (दो बार), अर्थात् ‘मैं गवाही देता हूं कि अल्लाह के सिवाय कोई पूज्य, उपास्य नहीं।’
• अश्हदुअन्न मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह (दो बार), अर्थात् ‘मैं गवाही देता हूं कि (हज़रत) मुहम्मद (सल्ल॰) अल्लाह के रसूल (दूत, प्रेषित, संदेष्टा, नबी, Prophet) हैं।’
• हय्या अ़लस्-सलात (दो बार), अर्थात् ‘(लोगो) आओ नमाज़ के लिए।’
• हय्या अ़लल-फ़लाह (दो बार), अर्थात् ‘(लोगो) आओ भलाई और सफलता के लिए।’
• अस्सलातु ख़ैरुम्-मिनन्नौम (दो बार, सिर्फ़ सूर्योदय से पहले वाली नमाज़ की अज़ान में), अर्थात् ‘नमाज़ नींद से बेहतर है।’
• अल्लाहु अकबर-अल्लाहु अकबर (एक बार), अर्थात् ‘अल्लाह सबसे बड़ा है।’
• ला-इलाह-इल्लल्लाह (एक बार), अर्थात् ‘कोई पूज्य, उपास्य नहीं, सिवाय अल्लाह के।’

अज़ान यद्यपि ‘सामूहिक नमाज़ के लिए बुलावा’ है, फिर भी इसमें एक बड़ी हिकमत यह भी निहित है कि ‘विशुद्ध एकेश्वरवाद’ की निरंतर याददिहानी होती रहे, इसका सार्वजनिक एलान होता रहे। हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) के ईशदूतत्व के लगातार दिन-प्रतिदिन एलान के साथ यह ईमान, विश्वास, और संकल्प ताज़ा होता रहे कि कोई भी मुसलमान (और पूरा मुस्लिम समाज) मनमानी जीवनशैली अपनाने के लिए आज़ाद नहीं है, बल्कि हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) के आदर्श के अनुसार एक सत्यनिष्ठ, नेक, ईशपरायण जीवन बिताना उसके लिए अनिवार्य है।

अकबर बादशाह का इतिहास सिर्फ़ चार सौ साल पुराना है। अज़ान के ये बोल 1435 वर्ष पुराने हैं। भारत में ही नहीं, पूरी दुनिया में नमाज़ियों को मस्जिद में बुलाने के लिए लगभग डेढ़ हज़ार साल से निरंतर यह आवाज़ लगाई जाती रही है। यह आवाज़ इस्लामी शरीअ़त के अनुसार, सिर्फ़ उसी वक़्त लगाई जा सकती है, जब नमाज़ का निर्धारित समय आ गया हो। यह समय है :
• सूर्योदय से घंटा-डेढ़ घंटा पहले। (फ़ज्र की नमाज़)
• दोपहर, सूरज ढलना शुरू होने के बाद। (ज़ुह्र की नमाज़)
• सूर्यास्त से लगभग डेढ़-दो घंटे पहले। (अस्र की नमाज़)
• सूर्यास्त के तुरंत बाद। (मग़रिब की नमाज़)
• सूर्यास्त के लगभग दो घंटे बाद। (इशा की नमाज़)

कभी-कभी ऐसा भी होता देखा गया है कि हमारे (धर्म प्रधान) देश भारत में (और यूरोप के एक देश में भी) कुछ लोग अज़ान की आवाज़ पर सख़्त एतिराज़ करते हैं। यह बात विश्वास के साथ कही जा सकती है कि एतिराज़ करने वाले भाइयों में से ज़्यादातर लोग, ऐसा सिर्फ़ अज्ञानतावश करते हैं। क्योंकि वे अज़ान के शब्दों का अर्थ नहीं जानते। अज़ान के बोलों के उपर्लिखित अर्थ से साफ़ ज़ाहिर होता है कि ये बोल न किसी समुदाय के स्वार्थ में बोले जाते हैं, न किसी समुदाय के विरोध और अनहित में। यह आवाज़ हर समय-असमय नहीं लगाई जाती, वह भी सिर्फ़ तीन-चार मिनट से ज़्यादा के लिए नहीं। यह उस ईश्वर के गुणगान की आवाज़ होती है जो सबका ईश्वर है। इसमें उन पैग़म्बर का नाम आता है जो पूरी मानवजाति के हितैषी रहे हैं। यह आवाज़ किसी को कष्ट पहुंचाने के लिए नहीं, बल्कि ईश्वर की उपासना हेतु एकत्र होने के लिए लगाई जाती है।

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