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बगावत से बचने के लिए कांग्रेस का पुराने चेहरों पर ही दांव, गहलोत-पायलट में फिलहाल युद्धविराम


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बगावत से बचने के लिए कांग्रेस का पुराने चेहरों पर ही दांव, गहलोत-पायलट में फिलहाल युद्धविराम

कांग्रेस केवल कुछ ही विधायकों का ही टिकट काट पाई। पुराने चेहरों के दम पर कांग्रेस सरकार रिपीट करने की सोच रही है, जबकि राजस्थान में सरकार ही नहीं बल्कि मंत्रियों और विधायकों को हराने की भी एक परंपरा रही है। यह जानते हुए भी कांग्रेस नेतृत्व की ओर से इतना बड़ा रिस्क लिया है।

Rajasthan Assembly Election 2023 : राजस्थान में पांच साल तक मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और पूर्व डिप्टी सीएम सचिन पायलट में सत्ता संघर्ष चलता रहा। एक दूसरे को मात देने के लिए किसी ने कोई मौका नहीं छोड़ा। चुनाव को देखते हुए तीन महीने से कांग्रेस में युद्धविराम जैसी स्थिति है। गहलोत और पायलट खेमे ने अपने गुट के विधायकों और समर्थकों को टिकट दिलाकर एडजस्ट करा लिया। ऐसा करते समय विधायकों और मंत्रियों के खिलाफ जनता में नाराजगी को दोनों ही गुट ने दरकिनार कर दिया। बगावत से बचने को नए चेहरों को टिकट देने से परहेज किया गया।

कांग्रेस केवल कुछ ही विधायकों का टिकट काट पाई। पुराने चेहरों के दम पर कांग्रेस सरकार रिपीट करने की सोच रही है, जबकि राजस्थान में सरकार ही नहीं बल्कि मंत्रियों और विधायकों को हराने की भी एक परंपरा रही है। यह जानते हुए भी कांग्रेस नेतृत्व की ओर से इतना बड़ा रिस्क लिया है।

2018 : नाराजगी इतनी कि 20 मंत्रियों को दिखा दी जमीन
2013 के चुनाव में भाजपा को प्रचंड बहुमत मिला था। 200 में 163 सीटें भाजपा को मिलीं। कांग्रेस 21 सीटों पर सिमट गई। लेकिन उस बहुमत को वसुंधरा सरकार सहेज नहीं पाई। सरकार के फैसलों से जनता में नाराजगी बढ़ती गई। इस नाराजगी को तब सत्ता स्वीकार करने के लिए तैयार ही नहीं थी। 2018 के चुनाव में 163 विधायकों में से 94 को फिर मैदान में उतारा। इनमें से 40 एमएलए सीट बचा पाने में कामयाब हो पाए। 54 विधायक चुनाव हार गए। 20 मंत्री बुरी तरह पराजित हुए थे।

हारने वाले मंत्रियों में यूनुस खान, प्रभु लाल सैनी राजपाल शेखावत, अरुण चतुर्वेदी, अजय सिंह, डा. राम प्रताप, गजेंद्र खींवसर, श्री चंद्र कृपलानी, राम प्रसाद, बाबू लाल वर्मा, अमराराम,  कमसा मेघवाल, बंशीधर बाजिया, ओटाराम देवासी, कृष्णेंद्र कौर, सुनील कटारा थे। चार बागी मंत्री रतनगढ़ से राजकुमार रिणवा, जैतारण से सुरेंद्र गोयल, थानागाजी से हेमसिंह भड़ाना और बांसवाड़ा से धनसिंह रावत को भी मात मिली। तत्कालीन श्रम मंत्री जसवंत यादव के बेटे मोहित यादव बहरोड से और जनजाति मंत्री नंदलाल मीणा के बेटे हेमंत प्रतापगढ़ से चुनाव हार गए थे। सीएम वसुंधरा राजे के अलावा गुलाबचंद कटारिया, राजेंद्र राठौड़, स्व किरण माहेश्वरी, कालीचरण सराफ, पुष्पेंद्र सिंह, अनीता बघेल और वासुदेव देवनानी ही अपनी सीट निकाल पाने में सफल हो पाए थे।

2013ः 21 सीटों पर सिमटी कांग्रेस
2013 में भी कांग्रेस ने योजनाओं के जरिये माहौल बनाया था। फीलगुड की लहर पर सवार कांग्रेस को ऐतिहासिक हार मिली। 200 प्रत्याशियों में से 21 ही जीत पाए। 105 पिछले प्रत्याशियों को फिर टिकट दिए गए। इनमें से भी 91 हार गए। रिपीट प्रत्याशियों में से 75 विधायक भी थे। इनमें पांच को ही जीत मिली। 70 विधायकों को हार का सामना करना पड़ा।

कांग्रेस ने पिछला चुनाव हारे 21 नेताओं को भी टिकट दिया था। 31 मंत्री हार गए थे। हारने वालों में दुर्रु मियां, भरत सिंह, बीना काक, शांति धारीवाल, स्व मास्टर भंवरलाल मेघवाल, ब्रजकिशोर शर्मा, प्रसादी लाल मीणा, डॉक्टर जितेंद्र सिंह, राजेंद्र पारीक, हेमाराम चौधरी व अन्य मंत्री शामिल थे। मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के अलावा महेंद्रजीत मालवीय, गोलमा देवी, विजेंद्र ओला और राज कुमार शर्मा ही जीत पाए। तब भी सत्ता को अंदाजा ही नहीं लग पाया कि सियासी जमीन कैसे खिसक चुकी है।

2008, 2003 और 1998…वही तस्वीर
2008 में वसुंधरा सरकार को हार का सामना करना पड़ा। तब राजे सरकार पर भ्रष्टाचार के कई गंभीर आरोप लगाए थे। 13 मंत्री हारे। भाजपा 78 सीटें ही जीत पाई थी। 2003 में गहलोत सरकार को हार का सामना करना पड़ा था। 1998 के विधानसभा चुनाव में 150 से ज्यादा सीटें लाने वाली कांग्रेस 56 सीट पर सिमटी। 19 मंत्री  हारे। 1998 में भैरो सिंह सरकार को बुरी तरह हारी। भाजपा महज 33 सीट पर सिमट गई। कांग्रेस की प्रचंड बहुमत से सरकार बनी।

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