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पत्रकारिता के पुरोधा थे स्वतंत्रता सेनानी गणेश शंकर विद्यार्थी


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आर्टिकल

पत्रकारिता के पुरोधा थे स्वतंत्रता सेनानी गणेश शंकर विद्यार्थी

पत्रकारिता के पुरोधा थे स्वतंत्रता सेनानी गणेश शंकर विद्यार्थी : गणेश शंकर विद्यार्थी क्रांतिकारी समाचार पत्र ‘प्रताप’ के संपादक और एक निडर व निष्पक्ष पत्रकार होने के साथ ही एक समाजसेवी, स्वतंत्रता सेनानी और कुशल राजनीतिज्ञ थे। वे संयुक्त प्रांत में विधान परिषद् के सदस्य भी रहे थे। भारत के ‘स्वाधीनता संग्राम’ में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान रहा था। कलम की ताकत हमेशा से ही तलवार से अधिक रही है और ऐसे कई पत्रकार हुए हैं, जिन्होंने अपनी कलम से सत्ता तक की राह बदल दी। गणेश शंकर विद्यार्थी भी ऐसे ही पत्रकार थे, जिन्होंने अपनी कलम की ताकत से अंग्रेज़ी शासन की नींव हिला दी थी। गणेश शंकर विद्यार्थी एक ऐसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे, जो कलम और वाणी के साथ-साथ महात्मा गाँधी के अहिंसक आंदोलन का समर्थन करते थे और क्रांतिकारियों को समान रूप से देश की आज़ादी में सक्रिय सहयोग प्रदान करते थे। पत्रकारिता जगत में गणेश शंकर विद्यार्थी का नाम सम्मानपूर्वक लिया जाता है। वे एक क्रांतिकारी पत्रकार थे और उन्हें हिन्दी पत्रकारिता का प्रमुख स्तंभ माना जाता है। वे पत्रकारिता जगत का एक ऐसा नाम थे, जिनके लेखन से ब्रिटिश सरकार भी डरती थी। गणेश शंकर विद्यार्थी मानवता के पुजारी थे, उन्होंने इंसानियत की रक्षा और शांति स्थापना के लिए अपना बलिदान दे दिया था। स्वाधीनता और राष्ट्र के नवनिर्माण के लिए उनका लेखकीय योगदान अत्यंत महत्वपूर्ण है, जिसकी चर्चा सामान्यत: कम होती है। उनका संस्मरण ‘जेल-जीवन की झलक’ आज के प्रत्येक विद्यार्थी को अवश्य पढ़ना चाहिए ताकि वह समझ सके कि आजादी कितने कष्टों और बलिदानों का प्रतिफल है।

लेखक – धर्मपाल गाँधी, अध्यक्ष-आदर्श समाज समिति इंडिया

गणेश शंकर विद्यार्थी का जन्म इलाहाबाद के अतरसुइया मोहल्ले में अपने नाना श्री सूरजप्रसाद के घर में 26 अक्टूबर 1890 को हुआ था। उनके पिता का नाम जयनारायण और माता का नाम गोमती देवी था। वह मुंशी जयस्थ हथगाँव, जिला फतेहपुर (उत्तर प्रदेश) के निवासी थे‌। उनके पिता जयनारायण अध्यापक थे, उनकी शुरुआती पढ़ाई मध्य प्रदेश के मुंगावली में हुई। गणेश शंकर को स्थानीय एंग्लो वर्नाक्युलर स्कूल में भर्ती कर दिया गया। प्रारंभिक शिक्षा लेने के बाद गणेश शंकर ने अपने बड़े भाई के पास कानपुर आकर हाई स्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण की और फिर उन्होंने इलाहाबाद आकर इंटर में प्रवेश लिया। कॉलेज के समय से ही उनका पत्रकारिता की ओर झुकाव हुआ और अंग्रेजी राज के यशस्वी लेखक पंडित सुन्दर लाल कायस्थ इलाहाबाद के साथ उनके हिंदी साप्ताहिक ‘कर्मयोगी’ के संपादन में सहयोग देने लगे। उसी दौरान उनका विवाह हो गया, जिससे पढ़ाई खंडित हो गई लेकिन उन्हें लेखन एवं पत्रकारिता का शौक लग गया था, जो अंत तक जारी रहा। विवाह के बाद घर चलाने के लिए धन की आवश्यकता थी, अतः वह फिर कानपुर भाई के पास आ गये।

1908 कानपुर में एक बैंक में 30 रूपये महीने पर नौकरी की और एक साल बाद उसे छोड़कर पी.पी.एन. हाई स्कूल में अध्यापन कार्य करने लगे। यहां भी अधिक समय तक उनका मन नहीं लगा तो वे नौकरी छोड़कर इलाहाबाद आ गये और 1911 में ‘सरस्वती’ पत्र में पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी के सहायक के रूप में नियुक्त हुए। कुछ समय बाद ‘सरस्वती’ छोड़कर ‘अभ्युदय’ में सहायक संपादक हुए। अंतत: वह कानपुर लौट गये और अपने सहयोगियों एवं वरिष्ठजनों से सहयोग-मार्गदर्शन का आश्वासन पाकर उन्होने 9 नवंबर 1913 को कानपुर में अपने तीन साथी शिव नारायण मिश्र, नारायण प्रसाद अरोड़ा और यशोदानंदन के साथ मिलकर ‘प्रताप’ अखबार की नींव डाली। इस समाचार पत्र के प्रथम अंक में ही उन्होंने स्पष्ट कर दिया था कि हम राष्ट्रीय स्वाधीनता आंदोलन, सामाजिक आर्थिक क्रांति, जातीय गौरव, साहित्यिक सांस्कृतिक विरासत के लिए, अपने हक-अधिकार के लिए संघर्ष करेंगे। भारत में पत्रकारिता सिर्फ पेशा कभी नहीं रहा। यह हमेशा दमन और सामंती ताकतों के खिलाफ प्रतिरोध की भावना को शब्दों में पिरोने का माध्यम रहा है। इसी प्रतिरोध की परंपरा के जिम्मेदार वाहक बने गणेश शंकर विद्यार्थी। क्रांतिकारी समाचार-पत्र ‘प्रताप’ अपने स्थापना के साथ ही अपने आप को जनता के दिलों में भी स्थापित कर लिया। साथ ही आजादी के आंदोलन की मुखर आवाज के रूप में भी जाना जाने लगा। उस वक्त प्रताप के प्रसार की संख्या 12 से 15 हजार थी।

प्रताप का दफ्तर क्रांतिकारियों के लिए जहां शरण स्थली था, तो वहीं युवाओं के लिए पत्रकारिता की पौधशाला। प्रताप के दफ्तर में सरदार भगत सिंह, चन्द्रशेखर आजाद सहित तमाम क्रांतिकारी भेष बदलकर महीनों रहा करते थे। स्वतंत्रता आन्दोलन के समय “प्रताप” किसानों और मजदूरों का हिमायती समाचार पत्र रहा। उसमें देशी राज्यों की प्रजा के कष्टों पर विशेष समाचार लिखे जाते थे। “चिट्ठी पत्री” स्तंभ “प्रताप” की निजी विशेषता थी। विद्यार्थी जो स्वयं तो बड़े पत्रकार थे ही, उन्होंने कितने ही नवयुवकों को पत्रकार, लेखक और कवि बनने की प्रेरणा तथा ट्रेनिंग दी। वे “प्रताप” में सुरुचि और भाषा की सरलता पर विशेष ध्यान देते थे। फलत: सरल, मुहावरेदार और लचीलापन लिए हुए चुस्त हिंद की एक नई शैली का उन्होंने प्रवर्तन किया। कई उपनामों से भी वे प्रताप तथा अन्य समाचार पत्रों में लेख लिखा करते थे। हिंदी साहित्य सम्मलेन के 19 वें (गोरखपुर) अधिवेशन में गणेश शंकर विद्यार्थी सभापति चुने गये। विद्यार्थी जी बड़े सुधारवादी किंतु साथ ही धर्मपरायण और ईश्वरभक्त थे। वक्ता भी बहुत प्रभावपूर्ण और उच्च कोटि के थे। वह स्वभाव के अत्यंत सरल, किंतु क्रोधी और हठी थे। 22 अगस्त 1918 को ‘प्रताप’ में प्रकाशित नानक सिंह की ‘सौदा-ए-वतन’ नामक कविता से नाराज अंग्रेजों ने विद्यार्थी जी पर राजद्रोह का आरोप लगाया व ‘प्रताप’ का प्रकाशन बंद करवा दिया।

गणेश शंकर विद्यार्थी कभी भी ब्रिटिश हुकूमत और जमींदारों के सामने नहीं झुके। वह हमेशा अन्याय व अत्याचार के खिलाफ लिखते रहे। साप्ताहिक ‘प्रताप’ के प्रकाशन के 7 वर्ष बाद 1920 में गणेश शंकर विद्यार्थी ने उसे दैनिक कर दिया। अधिकारियों के अत्याचारों के विरुद्ध निर्भीक होकर ‘प्रताप’ में लेख लिखने के कारण विद्यार्थी जी को झूठे मुकद्दमों में फंसाकर जेल भेज दिया और भारी जुर्माना लगाकर उसका भुगतान करने को विवश किया। अपने जेल जीवन में उन्होंने विक्टर ह्यूगो के दो उपन्यासों, ‘ला मिजरेबल्स’ तथा ‘नाइंटी थ्री’ का हिंदी अनुवाद किया। वह क्रांतिकारियों की भी हर प्रकार से सहायता करते थे। रोटी और दवा से लेकर उनके परिवारों के भरण-पोषण की भी चिंता वह करते थे। 1916 में महात्मा गाँधी से पहली मुलाकात के बाद उन्होंने अपने आप को पूर्णतया स्वाधीनता आन्दोलन में समर्पित कर दिया। उन्होंने साल 1917-18 में श्रीमती एनी बेसेंट के ‘होमरूल’ आंदोलन में अग्रणी भूमिका निभाई और कानपुर में कपड़ा मील मजदूरों की पहली हड़ताल का नेतृत्व किया। साल 1920 में उन्होंने ‘प्रताप’ का दैनिक संस्करण निकालना शुरू कर दिया। इसी साल उन्हें रायबरेली के किसानों की लड़ाई लड़ने के लिए 2 साल के कठोर कारावास की सजा हुई। 1922 में विद्यार्थी जेल से रिहा हुए पर सरकार ने उन्हें भड़काऊ भाषण देने के आरोप में फिर गिरफ्तार कर लिया। साल 1924 में उन्हें रिहा कर दिया गया, लेकिन तब तक उनका स्वास्थ्य बहुत बिगड़ गया था। कानपुर अधिवेशन में कांग्रेस के राज्य विधान सभा चुनावों में भाग लेने के फैसले के बाद गणेश शंकर विद्यार्थी 1925 में कानपुर से ही संयुक्त प्रांत विधानसभा के लिए चुने गये और 1929 में पार्टी की मांग पर त्यागपत्र दे दिया।

साल 1929 में ही उन्हें संयुक्त प्रांत कांग्रेस समिति का अध्यक्ष चुना गया और राज्य में सत्याग्रह आन्दोलन के नेतृत्व की जिम्मेदारी दी गई। उसके बाद 1930 में उन्हें गिरफ्तार कर एक बार फिर जेल भेज दिया गया, जिसके बाद उनकी रिहाई गाँधी-इरविन पैक्ट के बाद 9 मार्च 1931 को हुई। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जिस वक्त हमारे देश के क्रांतिकारी और स्वतंत्रता सेनानी आजादी की लड़ाई लड़ रहे थे, उसी समय कुछ लोग सांप्रदायिक दंगे करवाकर धर्म की लड़ाई लड़ रहे थे। गणेश शंकर विद्यार्थी को शहीद भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की फाँसी के दो दिन बाद कानपुर शहर में सांप्रदायिक दंगों की वजह से 25 मार्च 1931 को अपने प्राण गंवाने पड़े थे। यह हमारे लिए शर्म की बात है कि एक देशभक्त क्रांतिकारी पत्रकार, इंसानियत का देवता, मानवता का पुजारी, महान स्वतंत्रता सेनानी सांप्रदायिकता की भेंट चढ़ गया। गणेश शंकर विद्यार्थी और उनका अखबार ‘प्रताप’ आज भी पत्रकारों और पत्रकारिता के लिए आदर्श माने जाते हैं। भगत सिंह, बालकृष्ण शर्मा नवीन, सोहन लाल द्विवेदी, सनेही, प्रताप नारायण मिश्र जैसे तमाम देशभक्तों ने ‘प्रताप प्रेस’ की ‘ज्वाला’ से राष्ट्रप्रेम को घर-घर तक पहुंचा दिया था। गणेश शंकर विद्यार्थी एक महान क्रांतिकारी, निडर और निष्पक्ष पत्रकार, समाजसेवी और स्वतंत्रता सेनानी थे। भारत के स्वतंत्रता आन्दोलन के इतिहास में उनका नाम अजर-अमर है। गणेश शंकर विद्यार्थी एक ऐसे पत्रकार थे, जिन्होंने अपनी लेखनी की ताकत से भारत में अंग्रेजी शासन की नींद उड़ा दी थी। इस महान स्वतंत्रता सेनानी ने कलम और वाणी के साथ-साथ महात्मा गाँधी के अहिंसावादी विचारों और क्रांतिकारियों को समान रूप से समर्थन और सहयोग दिया। अपने छोटे जीवन-काल में उन्होंने उत्पीड़न क्रूर व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाई। उत्पीड़न और अन्याय की खिलाफत में हमेशा आवाज़ बुलंद करना ही उनके जीवन का सर्वोच्च उद्देश्य था, चाहे वह नौकरशाह, जमींदार, पूंजीपति, उच्च जाति, संप्रदाय और धर्म का ही क्यों न हो। वह देश के लिए जीये और देश के लिए शहीद हो गये।

क्रांतिकारी समाचार पत्र ‘प्रताप’ का कार्यालय राष्ट्रवादियों और क्रांतिकारियों के साथ साहित्यकारों का भी केंद्र था। रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाकउल्ला खां, ठाकुर रोशन सिंह, चंद्रशेखर आजाद, बटुकेश्वर दत्त, शिव वर्मा तथा छैलबिहारी दीक्षित ‘कंटक’ आदि का उन्होंने समय-समय पर सहयोग और मार्गदर्शन किया। सरदार भगत सिंह अपनी फरारी के दिनों में वेश बदलकर ‘प्रताप’ कार्यालय में रहे तथा बलवंत सिंह के छद्म नाम से वहां कार्य किया एवं लेख लिखे। गणेश शंकर विद्यार्थी ने ही श्यामलाल गुप्त ‘पार्षद’ से झंडा गीत की रचना कराई थी। हिंदी पत्रकारिता के प्रति गणेश शंकर विद्यार्थी का संकल्प, सेवा और समर्पण बेमिसाल रहा है। सत्याग्रह, जुलूस और सभाओं से लेकर दलीय चुनावी राजनीति में नेतृत्व संभाला, पर अपनी पत्रकारिता को दलीय राजनीति का मोहरा कभी नहीं बनने दिया। उन्होंने ब्रिटिश सरकार से डटकर लोहा लिया। लेखनी के माध्यम से जनजागरण का उद्घोष किया। विद्यार्थी जी पत्रकारिता कर्म में सदा एक मोमबत्ती की मानिंद जलते रहे। जन आंदोलन को आगे बढ़ाने के पुरस्कार स्वरूप बार-बार कारावास तक भोगा। उन्होंने अपने जीवन में पांच जेल यात्राएं की। इनमें तीन पत्रकारिता और दो राजनीतिक भाषणों के चलते हुईं। पत्रकारिता में अपने उद्देश्य स्पष्ट करते हुए उन्होंने लिखा- किसी की प्रशंसा या अप्रशंसा, किसी की प्रसन्नता या अप्रसन्नता, किसी की घुड़की या धमकी हमें अपने सुमार्ग से विचलित न कर सकेंगी। सत्य और न्याय हमारे भीतरी पथ प्रदर्शक होंगे। सांप्रदायिक और व्यक्तिगत झगड़ों से ‘प्रताप’ सदा अलग रहने की कोशिश करेगा। प्रताप का जन्म किसी विशेष सभा, संस्था, व्यक्ति या मत के पालन-पोषण, रक्षण या विरोध के लिए नहीं हुआ है, किन्तु उसका मत स्वातंत्र्य विचार और उसका धर्म सत्य होगा। हम जानते हैं कि हमें इस काम में बड़ी-बड़ी कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। इसके लिए बड़े भारी साहस और आत्मबल की आवश्यकता है। हमें यह भी अच्छी तरह मालूम है कि हमारा जन्म निर्बलता, पराधीनता और अल्प सत्ता के वायुमंडल में हुआ है। बावजूद इसके हमारे हृदय में सत्य की सेवा करने के लिए आगे बढ़ने की इच्छा है। पत्रकारिता के जरिये वह किसके साथ खड़े होंगे, इसका भी बाकायदा उल्लेख किया- इस यात्रा में माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’, कृष्णदत्त पालीवाल, श्रीराम शर्मा, देवव्रत शास्त्री, सुरेश चंद्र भट्टाचार्य और युगल किशोर सिंह शास्त्री जैसे ख्यातिलब्ध सरीखे पत्रकार विद्यार्थी जी के सहयोगी रहे हैं।

जनवरी, 1921 में रायबरेली में जमींदारों ने किसानों पर गोलियां चलवा दी थी, गणेश शंकर विद्यार्थी रायबरेली पहुंचे, डरे सहमें किसानों को संगठित किया और उनकी आवाज बने। उस निर्मम हत्याकांड को दूसरा जलियांवाला कांड कहते हुए ‘प्रताप’ में लेख लिखा। प्रताप के संपादक गणेश शंकर विद्यार्थी और मुद्रक शिवनारायण मिश्रा पर मानहानि का मुकदमा कर दिया गया। अंग्रेज पहले से ही तिलमिलाए हुए थे, तो उन्होंने भी इस मौके का जमकर फायदा उठाया। लेकिन ये गणेश शंकर विद्यार्थी की निर्भीक पत्रकारिता ही थी कि उनके पक्ष में 50 गवाह पेश हुए, जिसमें पंडित मोतीलाल नेहरू, पंडित जवाहरलाल नेहरू, श्री कृष्ण मेहता जैसे राष्ट्रीय स्तर के नेता भी शामिल थे। ‘प्रताप’ की ओर से डॉ. जयकरण नाथ सहित 7-8 प्रख्यात वकीलों ने इस मामले की पैरवी की। यह मुकदमा इतना चर्चित रहा कि कार्यवाही के समय न्यायालय में भारी भीड़ रहती थी। किसान लोग गणेश शंकर विद्यार्थी को ‘प्रताप बाबा’ कहने लगे। इसी प्रकार अवध के किसान आंदोलन को उन्होंने ‘प्रताप’ में इतनी प्रमुखता से प्रकाशित किया कि उसकी आंच इंग्लैंड तक पहुंची, जिसके कारण वहां की सरकार ने लंदन स्थित भारतीय सचिवालय के माध्यम से तत्कालीन वायसराय से रिपोर्ट मांगी। यहां पर यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि चंपारण में नील की खेती करने को विवश पीड़ित, प्रताड़ित किसानों के प्रतिनिधि राजकुमार शुक्ल की भेंट गाँधी जी से गणेश शंकर विद्यार्थी ने ही कराई थी, फलस्वरूप चंपारण आंदोलन हुआ, जिसके माध्यम से भारत में सर्वप्रथम गाँधी जी के नायकत्व ने उभार पाया। ‘प्रताप’ के अनेक विशेषांक भी आजादी की लड़ाई के संवाहक बने, जिनमे ‘राष्ट्रीय अंक’ और ‘स्वराज्य अंक’ विशेष चर्चित रहे। ‘प्रताप’ के प्रतिरोध की आवाज बुलंद थी, इसलिए पुलिस की नजर भी इन पर बनी रहने लगी।

फलस्वरूप, संपादकों और प्रकाशकों को जेल की यात्राएं भी करनी पड़ी। गाँधीवादी गणेश शंकर विद्यार्थी का संपर्क बटुकेश्वर दत्त और फिर भगत सिंह से हुआ, तो वो कलम के साथ क्रांति की राह पर चल पड़े। हालांकि वो हमेशा हिंसा के खिलाफ ही रहे, लेकिन क्रांतिकारियों की मदद भी करते रहे। कभी ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध लिखने के लिए, तो कभी लोगों की आवाज बनने तो कभी देशवासियों की सहायता करने की वजह से उन्हें अपने छोटे से जीवनकाल में पाँच बार जेल जाना पड़ा। इतनी बाधाओं के बावजूद उनका स्वर प्रखर से प्रखरतम होता चला गया। कुछ ही वर्षों में वह उत्तर प्रदेश (तब संयुक्त प्रांत) के चोटी के कांग्रेस नेता हो गये। साप्ताहिक की तरह दैनिक ‘प्रताप’ भी राष्ट्रवादी था। अत्याचारी शासकों का घोर विरोधी था। उसकी यही नीति उसका सबसे बड़ा ‘अपराध’ थी। इसका खामियाजा उसे भुगतना पड़ा। सरकार के अलावा देसी रियासतों ने भी उस पर शिकंजा कसने का प्रयास किया। सात-आठ रियासतों ने अपने राज्य में ‘प्रताप’ का जाना बंद कर दिया। महात्मा गाँधी की ओर से संचालित असहयोग आंदोलन के पक्ष में अपनी आहुति देने के बाद दैनिक ‘प्रताप’ का प्रकाशन 6 जुलाई, 1921 को बंद हो गया लेकिन साप्ताहिक ‘प्रताप’ अपनी क्रांतिकारिता एवं स्पष्ट राजनीतिक विचारों के कारण उत्तर भारत का प्रमुख समाचार पत्र बन गया था। जमानत, चेतावनी और सरकारी धमकियों का वार उस पर होता रहता था। विद्यार्थी जी इस बात पर भी निगाह रखते थे कि ‘प्रताप’ का दुरुपयोग उनके अनावश्यक प्रचार के लिए न होने पाए। उनके अधिकांश लेख भी वास्तविक नाम के बजाय हरि, दिवाकर, गजेंद्र, लंबोदर, वक्रतुंड, श्रीकांत, एक भारतीय युवक आदि कल्पित नामों से प्रकाशित होते थे। उनका मानना था कि पत्र या पत्रिका के पूरे अंक में संपादक के नाम का उल्लेख एक बार से अधिक नहीं होना चाहिए। गणेश शंकर विद्यार्थी राजनीति में गाँधीजी से प्रभावित थे तो दूसरी ओर क्रांतिकारियों के बेहद निकट थे। महात्मा गाँधी के अहिंसक नेतृत्व और भगत सिंह के क्रांतिकारी विचारों के बीच खड़े गणेश शंकर विद्यार्थी ने ‘युवकों का विद्रोह’ नामक लेख भी लिखा। क्रांतिकारियों से उनके कैसे ताल्लुकात थे, इसकी मिसाल रामप्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा का प्रकाशन है। बिस्मिल ने फाँसी से तीन दिन पहले जेल में आत्मकथा लिखी थी, जिसे विद्यार्थीजी ने ‘प्रताप’ प्रेस से छापा था। सरदार भगत सिंह व अन्य क्रांतिकारियों के विचार व लेख भी गणेश शंकर विद्यार्थी अपने समाचार पत्र ‘प्रताप’ में प्रकाशित करते थे।

गणेश शंकर विद्यार्थी युगीन पत्रकारिता हिंदी पत्रकारिता का स्वर्णिम काल माना जाता है। हिंदी पत्रकारिता के पितामह गणेश शंकर विद्यार्थी के बताए या दिखाए रास्ते पर चलकर ही पत्रकारों ने देश और समाज की सेवा की अलख जगाई है। प्रताप के पहले ही अंक में उन्होंने ‘प्रताप की नीति’ नामक लेख में राष्ट्रीय पत्रकारिता की अवधारणा प्रस्तुत की, जिसे आज भी आदर्श पत्रकारिता के घोषणा पत्र के रूप में याद किया जाता है। उन्होंने लिखा- समस्त मानव जाति का कल्याण हमारा परमोद्देश्य है। हम अपने देश और समाज की सेवा के पवित्र काम का भार अपने ऊपर लेते हैं। हम अपने भाइयों और बहनों को उनके कर्तव्य और अधिकार समझाने का यथाशक्ति प्रयत्न करेंगे। राजा और प्रजा में, एक जाति और दूसरी जाति में, एक संस्था और दूसरी संस्था में बैर और विरोध, अशांति और असंतोष न होने देना हम अपना परम कर्तव्य समझेंगे।

आज जहां मीडिया पर सांप्रदायिक होने का आरोप लगता रहता है। वहीं गणेश शंकर विद्यार्थी एक ऐसे पत्रकार थे, जिन्होंने साम्प्रदायिक दंगों को शांत कराने में अपने प्राणों की आहुति दे दी। 23 मार्च 1931 को भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को लाहौर सेंट्रल जेल में फाँसी दे दी गई। क्रांतिकारियों को फाँसी दिये जाने के विरोध में पूरे देश में आक्रोश व्यक्त किया गया। शहरों में हड़ताल और विरोध जुलूस निकाले गये। अंग्रेजों की भारत को सांप्रदायिकता की आग में झोंकने की नीति कामयाब होने लगी थी। इसी दौरान कानपुर में हिंदू-मुसलमानों के बीच भयावह दंगा भड़क गया। 25 मार्च का दिन था, गणेश शंकर विद्यार्थी हिंसा के बीच में जाकर हिंदुओ की भीड़ से मुस्लिमों को और मुस्लिमों की भीड़ से हिंदुओं को बचाया। इसी बीच वो दो गुटों के बीच में फंस गये। साथियों ने उनसे निकलने को कहा लेकिन फिर भी वो लोगों को समझाने में लगे रहे। स्थिति ऐसी बनी कि उग्र होती भीड़ हिंसक हो उठी और फिर उस हिंसक भीड़ से गणेश शंकर विद्यार्थी कभी जीवित नहीं लौटे। भीड़ ने धारदार हथियारों से उनके शरीर पर इतने निशान बनाये कि दो दिन बाद जब अस्पताल में लाशों के ढ़ेर में उनकी लाश मिली तो पहचानना मुश्किल हो गया। इस तरह महान क्रांतिकारी, निर्भीक पत्रकार, मानवता के रक्षक गणेश शंकर विद्यार्थी सांप्रदायिक दंगों को रोकने के प्रयास में 40 वर्ष की अल्पायु में शहीद हो गये। 29 मार्च 1931 को पत्रकारिता के पुरोधा, महान स्वतंत्रता सेनानी गणेश शंकर विद्यार्थी का अंतिम संस्कार किया। उनकी शहादत पर महात्मा गाँधी सहित देश के तमाम बड़े नेताओं ने खेद व्यक्त किया था। ऐसे महान क्रांतिवीर को आदर्श समाज समिति इंडिया परिवार नमन करता है।

लेखक – धर्मपाल गाँधी, अध्यक्ष-आदर्श समाज समिति इंडिया

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