संविधान सभा में राष्ट्रीय ध्वज प्रस्तुत करने वाली स्वतंत्रता सेनानी हंसा मेहता देश की प्रथम महिला कुलपति थीं – धर्मपाल गाँधी
संविधान सभा में राष्ट्रीय ध्वज प्रस्तुत करने वाली स्वतंत्रता सेनानी हंसा मेहता देश की प्रथम महिला कुलपति थीं - धर्मपाल गाँधी


संविधान सभा में राष्ट्रीय ध्वज प्रस्तुत करने वाली स्वतंत्रता सेनानी हंसा मेहता देश की प्रथम महिला कुलपति थीं – धर्मपाल गाँधी
हंसा मेहता भारत कोकिला सरोजिनी नायडू व स्वतंत्रता सेनानी राजकुमारी अमृत कौर और महात्मा गाँधी से प्रेरित होकर स्वाधीनता आंदोलन में भाग लेने वाली स्वतंत्रता सेनानी, सामाजिक कार्यकर्ता, शिक्षाविद् व देश की प्रथम महिला वाइस चांसलर, संविधान सभा में राष्ट्रीय ध्वज प्रस्तुत करने वाली संविधान सभा की सदस्य और संयुक्त राष्ट्र संघ में भारत का प्रतिनिधित्व करने वाली क्रांतिकारी महिला थी। 1959 में हंसा मेहता को पद्म भूषण से सम्मानित किया। 1964 में वे भारत की हाई कमिश्नर बनकर लंदन गई। डॉ. हंसा जीवराज मेहता एक ऐसी सशक्त महिला थीं, जिन्होंने अपनी शर्तों पर जीवन जिया और महिलाओं के अधिकारों के लिए खूब लड़ीं। भारत में ही नहीं बल्कि वैश्विक स्तर पर महिलाओं के समान अधिकार की बात की और हर क्षेत्र में महिलाओं को अधिकार दिलाने में सफलता अर्जित की। हंसा मेहता ने महिलाओं की समस्याओं के समाधान के लिए प्रयत्नशील जेनेवा के ‘अंतर्राष्ट्रीय महिला सम्मेलन’ में भारत का प्रतिनिधित्व किया। सन् 1946 में हंसा मेहता ऑल इंडिया वीमेन कांफ़्रेंस (AIWC) की अध्यक्ष बन गईं। इस संस्था का गठन मार्गरेट कजिन्स द्वारा महिलाओं तथा बच्चों में शिक्षा और समाज कल्याण को प्रोत्साहित करने के लिये सन् 1927 में किया गया था। हैदराबाद में AIWC के 18वें सत्र में अपने अध्यक्षीय भाषण में उन्होंने महिलाओं के अधिकारों और कर्तव्यों का एक चार्टर बनाने का प्रस्ताव रखा और इसका मसौदा भी तैयार किया। उन्होंने महिलाओं के लिये समान व्यवहार, समान नागरिक तथा शिक्षा अधिकारों की मांग की। चार्टर में समान वेतन, संपत्ति के समान बंटवारे और विवाह क़ानूनों को समान रुप से लागू करने की बात कही। सन् 1947 में हंसा मेहता को संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार आयोग में बतौर भारतीय प्रतिनिधि नियुक्त किया गया और उन्हें बॉम्बे से संविधान सभा में भी नियुक्त किया गया। वह बॉम्बे विधान परिषद की सदस्य थी।
14 अगस्त 1947 की रात को देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू और संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद के साथ खड़े होकर आजादी की सुबह देखने का इंतजार करने वालों में एक हंसा मेहता भी थीं। उन्होंने डॉ. राजेंद्र प्रसाद को तिरंगा झंडा सौंपते हुए कहा था, ‘हमने भी आज़ादी की लड़ाई लड़ी, आजादी के लिए बलिदान दिये। आज हमने वो लक्ष्य प्राप्त कर लिया है। आजादी की ये निशानी (तिरंगा) देते हुए अपने आप को देश सेवा के लिए समर्पित करते हैं’। हंसा मेहता ने 14 अगस्त 1947 की अर्द्धरात्रि को सत्ता हस्तांतरण के ऐतिहासिक अवसर पर भारतीय महिलाओं की ओर से राष्ट्र-ध्वज भेंट करने का गौरव प्राप्त किया था। हंसा मेहता द्वारा दिया गया तिरंगा ही 1947 में प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने फहराया था।
हंसा मेहता जन्म 3 जुलाई 1897 को ब्रिटिश भारत के बॉम्बे प्रेसीडेंसी (वर्तमान गुजरात के सूरत शहर) में हुआ था। उनके पिता मनुभाई मेहता बड़ौदा और बीकानेर रियासतों के दीवान थे। हंसा मेहता का विवाह देश के प्रमुख चिकित्सकों में से एक तथा गाँधी जी के निकट सहयोगी और गुजरात राज्य के प्रथम मुख्यमंत्री जीवराज मेहता के साथ हुआ था। हंसा मेहता की शुरुआती शिक्षा बड़ौदा में हुई। उन्होंने 1918 में दर्शनशास्त्र में स्नातक किया और 1919 में वे पत्रकारिता और समाजशास्त्र की उच्च शिक्षा के लिए इंगलैंड चली गईं। वहीं पर उनकी मुलाकात सरोजनी नायडू और राजकुमारी अमृत कौर से हुई। भारत आने पर 1922 में सरोजिनी नायडू ने हंसा मेहता की मुलाकात महात्मा गाँधी से करवाई। महात्मा गाँधी उस समय साबरमती जेल में कैद थे। साबरमती जेल में हंसा मेहता ने गाँधी जी को पहली बार करीब से देखा था और वह उन्हें देखकर विस्मित हो गई, जिसका जिक्र उन्होंने बाद में अपनी किताब द इंडियन वूमेन में किया। महात्मा गाँधी से मिलने के बाद हंसा मेहता ने सरोजिनी नायडू व कमला नेहरू और राजकुमारी अमृत कौर के साथ मिलकर आजादी की लड़ाई में बढ़-चढ़कर भाग लिया और वैश्विक स्तर पर महिलाओं के अधिकारों की पैरोकार बनी।
महात्मा गाँधी की सलाह पर 1 मई 1930 को हंसा मेहता ने अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ लडाई लड़ने के लिये गठित महिलाओं के ग्रुप देश सेविका संघ के पहले बैच का सत्याग्रह मुहिम में नेतृत्व किया। सत्याग्रह मुहिम के तहत बॉम्बे के भुलेश्वर इलाक़े में विदेशी कपड़ो और शराब की दुकानों के सामने धरना दिया गया। जल्द ही हंसा ने ओर ज़िम्मेदारियां ले ली और कई विरोध-प्रदर्शन आयोजित किये। इसके बाद उन्हें बॉम्बे कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष बना दिया गया। कमेटी के सदस्य उन्हें प्यार से बॉम्बे की तानाशाह कहते थे। शहर में वह एक ताक़त बन गईं थीं, जिसके परिणाम स्वरुप उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया। ये उनकी पहली गिरफ़्तारी थी। उन्हें तीन महीने की जेल हो गई। 5 मार्च सन 1931 को गांधी-इर्विन संधि के बाद उन्हें रिहा किया गया। सन् 1932 में हंसा मेहता को हरिजन सेवक संघ का उपाध्यक्ष बना दिया गया। ये संघ हरिजनों के साथ समानता के बरताव, मंदिरों, स्कूलों और अन्य सार्वजनिक प्रतिष्ठानों में उनके प्रवेश के अधिकारों को लेकर सक्रिय था। हंसा मेहता के नेतृत्व में देश की महिलाएं आजादी के आंदोलन में बढ़-चढ़कर भाग लेने लगी। बढ़ती हुई महिला स्वतंत्रता सेनानियों की संख्या अंग्रेजी सरकार के लिए मुसीबत बन रही थी। जब कमला नेहरू और हंसा मेहता दिल्ली रेलवे स्टेशन पर इंकलाब जिंदाबाद के नारे लगाते हुए पहुंची, तब नारों की आवाज़ न पहुंच पाए इसके के लिए अंग्रेजों ने ट्रेन के इंजनों के सिटी को नॉन-स्टॉप बजवाया था ताकि उनकी आवाज़ के नीचे नारों की आवाज़ दब जाये। हंसा मेहता आजादी की आंदोलन में निरंतर आगे बढ़ती रहीं और जब तक आजादी नहीं मिल गई तब तक चैन की सांस नहीं ली। भारत की आजादी के साथ ही हंसा मेहता महिलाओं की आजादी के लिए लड़ रही थी। गुलामी के उस दौर में हंसा मेहता ने महिला शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किये। 1936-37 में अंग्रेज़ शासित भारत में प्रांतीय चुनाव हुए। हंसा मेहता बॉम्बे विधान परिषद के लिये चुनाव लड़ी और जीतीं। उन्हें शिक्षा एवं स्वास्थ विभाग का संसदीय सचिव नियुक्त किया गया। उनके दिशा-निर्देश में विभाग ने कई बदलाव किये। विभाग ने पेशेवर (वोकेशनल), व्यावसायिक और तकनीकी स्कूल खोले। विभाग को ये भी लगा कि माध्यमिक स्कूल शिक्षा का नियंत्रण विश्वविद्यालय के हाथों से लेकर राज्य के हाथों में देने का समय आ गया है। इस फ़ैसले के तहत सेकेंड्री स्कूल सर्टिफ़िकेट एक्ज़ामिनेशन बोर्ड (SSCEB) का गठन हुआ। ये व्यवस्था आज भी मौजूद है। 1946 में हंसा मेहता संविधान सभा के लिए चुनी गई और 1947 में उन्हें संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार आयोग में बतौर भारतीय प्रतिनिधि नियुक्त किया गया। हंसा मेहता बाद में 1950 में संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार आयोग की उपाध्यक्ष बनी। वे यूनेस्को के कार्यकारी बोर्ड की सदस्य भी थी। डॉ. हंसा मेहता ने संयुक्त राष्ट्र के गठन के शुरुआती दिनों में तैयार किये गये मानवाधिकारों के सार्वभौमिक घोषणा-पत्र (UDHR) का प्रारूप तैयार करने में महती भूमिका निभाई। डॉ. हंसा मेहता, संयुक्त राष्ट्र के मानवाधिकार आयोग में, अमेरिका की ऐलीनॉर रूज़वेल्ट के अलावा एक मात्र अन्य महिला सदस्य थीं। क्रांतिकारी महिला हंसा मेहता ने संयुक्त राष्ट्र को मानवाधिकार के सार्वभौमिक घोषणा-पत्र की शुरुआती पंक्तियों में पुरुष और महिलाओं को समान अधिकार देने की बात शामिल करने के लिये बाध्य कर दिया था। 1947-48 में महिला अधिकारों की वकालत करने वाली हंसा मेहता ने अनुच्छेद एक की इस इबारत ‘सभी पुरुष स्वतंत्र और एक समान पैदा होते हैं..’ को बदलावकर ‘सभी इंसान स्वतंत्र और एक समान पैदा होते हैं..’ करवा दिया था।
10 दिसंबर, 1948 के ऐतिहासिक दिन पर, दुनिया ने एक अनुकरणीय भारतीय महिला की ओर देखा, जिसने संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार आयोग में भारतीय प्रतिनिधि के रूप में मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा के अनुच्छेद 1 की भाषा को “सभी पुरुष हैं” से दोहराया। स्वतंत्र और समान पैदा हुए” से लेकर “सभी मनुष्य स्वतंत्र और समान पैदा हुए हैं”, लैंगिक समानता की आवश्यकता पर प्रकाश डालता है। इस घोषणा से परिवर्तन देखने की आशा करते हुए उन्होंने कहा, “एक नई दुनिया बनाने के लिए, सोचने का एक नया तरीका बनाना आवश्यक है।” घोषणा पत्र को आम आदमी का मैग्ना कार्टा भी कहा जाता है। हंसा ने अपने देश में भी समानता और न्याय की वकालत की और भारतीय संविधान सभा के प्रतिष्ठित सदस्यों में से एक के रूप में, उन्होंने उसी उत्साह और जोश के साथ इन मुद्दों का उचित प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया।
दिसंबर 1946 में जब भारत देश का भविष्य तय करने के लिए भारतीय संविधान सभा का गठन किया गया, तो हंसा मेहता को बॉम्बे प्रांतीय विधानसभा से इसके लिए चुना गया। वह विधानसभा की सलाहकार समिति, मौलिक अधिकारों पर उप-समिति और प्रांतीय संविधान समिति की सदस्य भी थीं। सार्वजनिक क्षेत्र में हंसा के व्यापक कार्य और अनुभव ने उन्हें संविधान सभा की बहस के दौरान अपने विचारों और राय को दृढ़ता से व्यक्त करने में मदद की। विधानसभा में उन्होंने जो जीवंत और प्रगतिशील विचार प्रस्तुत किये, उन्होंने गहरा प्रभाव छोड़ा।
हालाँकि देश की औसत महिला सदियों से असमानताओं से पीड़ित थी, लेकिन विधानसभा में सबसे गर्व के साथ बोलते हुए, हंसा मेहता महिलाओं के लिए आरक्षित सीटों, या अलग निर्वाचन क्षेत्रों जैसे विशेषाधिकारों की मांग करने के खिलाफ थीं। उन्होंने सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक न्याय और समानता की मांग की, जिसके बिना पुरुषों और महिलाओं के बीच वास्तविक सहयोग संभव नहीं था। उन्होंने कहा, “महिलाएं इस देश की आबादी का आधा हिस्सा हैं और यह प्राचीन भूमि महिलाओं के सहयोग के बिना इस दुनिया में अपना उचित और सम्मानित स्थान प्राप्त नहीं कर सकती है।”
हंसा चाहती थीं कि महिलाएं सबसे पहले खुद को भारत का नागरिक समझें और आगे आकर सभी कर्तव्यों और जिम्मेदारियों को निभाते हुए राष्ट्र निर्माण में भाग लें। उन्होंने तर्क दिया, “यदि एक महिला को पुरुष के समान स्थिति, दर्जा और अधिकार प्राप्त होने जा रहे हैं, तो उसे जो भूमिका निभानी होगी वह उस भूमिका से बहुत अलग नहीं होगी जो पुरुष को नए भारत में निभानी होगी।”
हंसा ने पर्दा प्रथा को महिलाओं, समाज और अंततः राष्ट्र की प्रगति के रास्ते में एक बड़ी बाधा माना, क्योंकि महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिकाएँ थीं और उन्हें घर की चार दीवारों तक ही सीमित नहीं रखा जाना चाहिए। उन्होंने संविधान सभा में कहा- “धर्म के नाम पर की जाने वाली किसी भी बुराई की गारंटी संविधान द्वारा नहीं दी जा सकती।” सभी प्रकार की असमानताओं के खिलाफ होने के नाते, हंसा ने अस्पृश्यता के उन्मूलन के लिए भी बात की, “जाति के आधार पर मनुष्य-मनुष्य के बीच कोई अंतर नहीं किया जा सकता है और हम किसी भी मनुष्य को उसकी जाति के कारण हेय दृष्टि से नहीं देख सकते हैं।” हंसा मेहता ने कॉमन सिविल कोड की भी वकालत की और संविधान सभा का ध्यान इस ओर आकर्षित किया क्योंकि देश में बहुत सारे पर्सनल कानून देश को विभाजित कर रहे थे। उनका मानना था कि भारतीय महिलाओं को समान नागरिक दर्जा मिलना चाहिए, चाहे वह किसी भी समुदाय से हों। उनके प्रयास केवल संविधान सभा तक ही सीमित नहीं थे। हंसा मेहता 1946-47 तक अखिल भारतीय महिला सम्मेलन (एआईडब्ल्यूसी) की अध्यक्ष बनीं और जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में एक नागरिक के रूप में महिलाओं के अधिकारों और जिम्मेदारियों का एक चार्टर प्रस्तावित किया। हंसा मेहता सभी को और विशेषकर महिलाओं को शिक्षित करने की कट्टर समर्थक थीं। उन्होंने शिक्षा क्षेत्र में विभिन्न प्रतिष्ठित नियुक्तियाँ भी कीं। हंसा मेहता जीवन भर सक्रिय रहीं और राष्ट्र के प्रति और प्रगतिशील भारतीय समाज के विकास के लिए उनकी सराहनीय सेवा के लिए उन्हें 1959 में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया।
आज हम महिलाओं को हर क्षेत्र में उत्कृष्ट प्रदर्शन करते हुए व समान अधिकारों का आनंद लेते हुए और समान जिम्मेदारियों को कुशलतापूर्वक निभाते हुए देख रहें हैं। यह हंसा मेहता जैसी क्रांतिकारी महिलाओं की दूरदर्शिता और लगातार प्रयासों के कारण संभव हुआ है, जिन्होंने संविधान में समानता से संबंधित प्रावधानों को शामिल करने के लिए संविधान सभा और अन्य प्लेटफार्मों में लिंग संबंधी मुद्दों को उठाया, ताकि भविष्य में महिलाओं को अपने अधिकारों के लिए अधिक संघर्ष करने की आवश्यकता नहीं होगी। हंसा मेहता ने अपनी व्यस्तताओं के बीच भी जीवनकाल में 15 किताबें लिखीं। कठिन परिस्थितियों में आशावादी रहने वाला लंबा जीवन जीते हुए हंसा मेहता 4 अप्रैल 1995 को अपने पीछे एक बड़े संघर्ष की कहानी और पंरपरा छोड़कर चली गईं। महिलाओं के स्तर में सुधार के लिए उनके प्रयासों को संयुक्त राष्ट्र संघ ने सराहा और एक कालजयी विदुषी महिला के रूप उनके योगदानों को याद करता है। ऐसी महान क्रांतिकारी महिला को उनकी जयंती पर आदर्श समाज समिति इंडिया परिवार नमन करता है धर्मपाल गाँधी अध्यक्षआदर्श समाज समिति इंडिया। – लेखक- धर्मपाल गाँधी