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बेटियों को बराबरी का अधिकार नारी सशक्तिकरण की दिशा में निर्णायक कदम


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बेटियों को बराबरी का अधिकार नारी सशक्तिकरण की दिशा में निर्णायक कदम

आलेख डॉ राकेश वशिष्ठ, वरिष्ठ पत्रकार एवं संपादकीय लेखक

डॉ राकेश वशिष्ठ, वरिष्ठ पत्रकार एवं संपादकीय लेखक

भारतीय संविधान महिलाओं को समान अधिकार की गारंटी देता है लेकिन भारत ने चाहे जितनी प्रगति कर ली लेकिन महिलाओं के प्रति ना समाज की मानसिकता बदली है ना ही सरकारों की। इस वजह से उन्हें समानता का अधिकार पूरी तरह नहीं मिल पाया है। आज भी महिलाओं को कार्यक्षेत्र से लेकर घर में असमानता का सामना करना पड़ता है। रक्षा क्षेत्र में महिलाओं ने सवौच्च अदालत की दखल ने बराबरी का अधिकार तो पाm लिया लेकिन अभी भी उनको अड़चनों का सामना करना पड़ा रहा है। वहीं पिता की जायदाद में आज भी बेटियों को बराबरी का अधिकार नहीं मिल पा रहा है। जबकि देश की सर्वोच्च अदालत पिता की संपत्ति के मामले में महत्वपूर्ण फैसला सुना चुकी है। कहीं धारणा है कि बेटी को बेटे से कम अधिकार है, तो कहीं धारणा यह है कि शादी के बाद बेटी को कोई अधिकार नहीं है।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि किसी व्यक्ति की बिना वसीयत के मौत हो जाने पर भी उसकी संपत्ति पर उसकी बेटी का बराबर अधिकार बनता है. अदालत के सामने सवाल था कि अगर मृत पिता की संपत्ति का कोई और कानूनी उत्तराधिकारी न हो और उसने अपनी वसीयत न बनवायी हो, तो संपत्ति पर बेटी का अधिकार होगा या नहीं? अदालत ने अपने फैसले में कहा कि अगर ऐसे व्यक्ति की संपत्ति खुद अर्जित की हुई है या पारिवारिक संपत्ति में विभाजन के बाद प्राप्त हुई है, तो वह उत्तराधिकार के नियमों के तहत सौंपी जायेगी। ऐसे व्यक्ति की बेटी का उस संपत्ति पर अधिकार दूसरे उत्तराधिकारियों से पहले होगा।

देश में जहां महिलाओं को विरासत के लिए बड़े पैमाने पर सामाजिक और कानूनी बाधाओं का सामना करना पड़ता है, जबकि अधिनियम में बेटे और बेटी को बराबर का अधिकार है. किसी भी संपत्ति में जितना अधिकार बेटे को मिलता है, उतना ही बेटी को मिलता है। बेटी की शादी हो जाने के आधार पर उन्हें पैतृक संपत्ति के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है।

संविधान में राज्यों को महिलाओं और बच्चों के हित में विशेष प्रावधान बनाने का अधिकार भी दिया गया है, ताकि महिलाओं को उनका हक मिले, लेकिन इन सबके बावजूद महिलाओं की स्थिति अब भी मजबूत नहीं है। हमारी सामाजिक संरचना ऐसी है कि यह बात बच्चों के मन में बचपन से ही स्थापित कर दी जाती है कि लड़का लड़की से बेहतर है। एक अध्ययन के मुताबिक हर पांच में से एक देश में लड़कियों को लड़कों के समान संपत्ति और विरासत के अधिकार नहीं हैं। लगभग 19 देशों में महिलाओं को पति का आदेश मानने की कानूनी बाध्यता है। विकासशील देशों में लगभग एक तिहाई विवाहित महिलाओं को अपने स्वास्थ्य के बारे में खुद निर्णय लेने का अधिकार नहीं है। हालांकि एक सकारात्मक बात यह सामने आयी कि दुनियाभर में विवाह की औसत उम्र कुछ बढ़ी है और बच्चों की जन्म दर कुछ कम हुई है। भारत में शिक्षा, कला-संस्कृति और तकनीक के क्षेत्र में महिलाओं की सफलता के बावजूद आर्थिक क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी अन्य देशों के मुकाबले कम है। वजह स्पष्ट है कि उन्हें समान अवसर नहीं मिलते हैं। भारत सरकार के आंकड़ों के मुताबिक देश के कुल श्रम बल में महिलाओं की हिस्सेदारी केवल 25.5 फीसदी है। कुल कामकाजी महिलाओं में से लगभग 63 फीसदी खेती-बाड़ी के काम में लगी हैं। विश्व बैंक के आकलन के अनुसार भारत में महिलाओं की नौकरियां छोड़ने की दर बहुत अधिक है तथा एक बार नौकरी छोड़ने के बाद ज्यादातर महिलाएं दोबारा नौकरी पर नहीं लौटती हैं।

अब वक्त आ गया है कि हमे अपनी सामाजिक व्यवस्था को सुधारने की पहल करनी होगी। मेरा मानना है कि पहल की जिम्मेदारी माता-पिता की है। वे लड़के और लड़की में भेदभाव न करें। एक बड़ी चुनौती बेटियों की शिक्षा और आर्थिक स्वायत्तता की है। समझ बढ़ने के बावजूद ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो यह मानते हैं कि बेटी को ज्यादा पढ़ा-लिखा देने से शादी में दिक्कत हो सकती है। ऐसे लोगों की भी बड़ी संख्या है, जो करियर के बजाय शादी को अधिक में रख कर बेटियों को शिक्षा दिलवाते हैं। इस मानसिकता में बदलाव लाने की जरूरत है। हमें केवल बालिका दिवस मनाने के बजाय बेटियों को बराबरी का दर्जा देने और उनके अधिकार देने की पहल करने की जरूरत है और मै समझता हूं नारी सशक्तिकरण के क्षेत्र में किए जा रहे प्रयासों मैं यह एक निर्णायक कदम साबित होगा।
आलेख डॉ राकेश वशिष्ठ, वरिष्ठ पत्रकार एवं संपादकीय लेखक

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