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मारवाड़ की छाती पर उठी हुई तलवार -कुंभलगढ़ दुर्ग


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मारवाड़ की छाती पर उठी हुई तलवार -कुंभलगढ़ दुर्ग

मारवाड़ की छाती पर उठी हुई तलवार -कुंभलगढ़ दुर्ग

संकलनकर्ता किशोर सिंह चौहान उदयपुर विशेषज्ञ इतिहास और कला संस्कृति

मारवाड़ की छाती पर उठी हुई तलवार – कुंभलगढ़ दुर्ग : मेवाड़ और मारवाड़ की सीमा पर सादड़ी गाँव के समीप स्थित कुम्भलगढ़ (जिला-राजसमंद) का सामरिक महत्त्व था। ऐसा माना जाता है कि अनेक दुर्गों के निर्माता महाराणा कुम्भा ने गोड़वाड़ क्षेत्र की सुरक्षा के लिए इस दुर्ग का निर्माण करवाया था।

(वास्तुकार- मंडन मिश्र की देखरेख में)

कुम्भलगढ़ की समानता में दुर्ग की निकटतम पर्वत श्रृंखला के बहुत ही सुंदर और वैज्ञानिक नाम मिलते हैं यथा श्वेत, नील, हेम कूटन, निशाद, हिमवत, गंधमादन आदि। इस किले की ऊँचाई के बारे में अबुल फजल ने लिखा है कि “यह इतनी बुलन्दी पर बना हुआ है कि नीचे से ऊपर की ओर देखने पर सिर से पगड़ी गिर जाती है।”  माना जाता है कि कुंभा ने अपनी प्रिय महारानी कुंभल देवी के नाम पर इस किले का नाम कुंभलगढ़ रखा।

प्रसिद्ध दोहा :

झाड़कटयया झाली मिले, न रंक कटाया राव कुंभलगढ़ रै कांगरे, माछर हो तो आब कुम्भलगढ़ दुर्ग की प्राचीर का कुल व्यास 30 किलोमीटर व दुर्ग की प्राचीर की कुल लंबाई 36 किमी. है। इस दुर्ग में जो प्राचीर बनवाई गई वह सात मीटर चौड़ी है इस पर तीन-चार घुडसवार एक साथ चल सकते हैं इसलिए इसे “भारत की महान दीवार” कहा जाता है।

कुंभलगढ़ मेवाड़ की संकटकालीन राजधानी रहा है। महाराणा प्रताप ने हल्दीघाटी के युद्ध की योजना को अंतिम रूप यहीं दिया था, और युद्ध के बाद कुंभलगढ़ को अपना निवास बनाया था। वीर विनोद ग्रंथ के अनुसार, महाराणा कुम्भा ने वि. संवत् 1505 (1448 ई.) में कुम्भलगढ़ या कुम्भलमेरू दुर्ग की नींव रखी। इस किले के निर्माण में लगभग दस वर्ष लगे। ‘वीर विनोद’ के अनुसार इसकी चोटी समुद्रतल से 3568 फीट और नीचे की नाल से 700 फीट ऊँची है।

उपलब्ध साक्ष्यों के अनुसार, दुर्ग निर्माण के लिए जिस स्थान को चुना गया, वहाँ मौर्य शासक सम्प्रति (सम्म्राट अशोक के पुत्र) द्वारा निर्मित एक प्राचीन दुर्ग भग्न रूप में पहले से विद्यमान था। कुम्भलगढ़ दुर्ग में जाने के लिए केलवाड़ा कस्बे से पश्चिम में लगभग 700 फीट ऊँची नाल चढ़ने पर किले का पहला दरवाजा आरेठपोल आता है। यहाँ से लगभग एक मील की दूरी तय करने पर ‘हालापोल’ नामक दरवाजा है। उक्त प्रवेश द्वार से थोड़ा आगे चलने पर हनुमानपोल दरवाजा है। वीर विनोद के अनुसार, इस दरवाजे पर प्रतिष्ठापित हनुमान प्रतिमा महाराणा कुम्भा नागौर से जीत कर लाये थे।

इसके बाद किले का विजयपोल दरवाजा आता है। यहाँ पर नीलकंठ महादेव का मन्दिर तथा यज्ञ की एक प्राचीन वेदी बनी है जिसके विषय में अनुश्रुति है कि दुर्ग की स्थापना के समय यहाँ यज्ञ किया गया था। इसी स्थान से किले के भीतर पर्वत शिखर पर बने लघु दुर्ग ‘कटारगढ़’ (मेवाड़ की आँख) की चढ़ाई प्रारंभ होती है। इसी कटारगढ़ के बादल महल की जूनी कचहरी में 9 मई, 1540 ई. को महाराणा प्रताप का जन्म हुआ। भैरवपोल, नींबूपोल, चौगानपोल, पागडापोल और गणेशपोल कटारगढ़ के मुख्य प्रवेश द्वार हैं।

पूर्वी द्वार दाणीबट्टा (मेवाड़ को मारवाड़ से जोड़ता है) और पश्चिमी द्वार टीडाबारी (मारवाड़ की तरफ खुलता) कहलाता है। कटारगढ़ के भवनों में महाराणा के महल, देवी का प्राचीन मन्दिर, बादल महल, (राजस्थान का सबसे बड़ा बादल महल) झाली रानी का मालिया (महल) प्रमुख हैं। कटारगढ़ के उत्तर में नीचे वाली भूमि में झालीबाव (बावड़ी) तथा मामादेव का कुण्ड है। इस कुण्ड के पास 1468 ई. में महाराणा कुंभा के पुत्र उदा (उदयकरण) ने महाराणा कुंभा की हत्या की। इसे मेवाड़ का प्रथम पितृहत्ता कहते हैं।

इस कुण्ड से थोड़ी दूरी पर कुम्भा द्वारा निर्मित कुम्भास्वामी नामक विष्णु मन्दिर है। इसी को “मामादेव मंदिर” कहते हैं। इस मन्दिर के प्रांगण से बाहर महाराणा कुम्भा द्वारा पाषाण शिलाओं पर अपनी प्रशस्ति उत्कीर्ण करवायी गई। वर्तमान ये शिलाएँ उदयपुर संग्रहालय में रखी हैं। इस दुर्ग के अन्य महत्वपूर्ण स्थल इस प्रकार है कुंवर पृथ्वीराज की 12 स्तम्भों की छतरी (वास्तुकार घषणपना), नीलकण्ठ महादेव मंदिर पन्नाधाय का महल व पीतलिया शाह महल आदि।

कुभलगढ़ दुर्ग के अन्य नाम –

मारवाड़ की छाती पर उठी तलवार/कमलमीर/मत्स्येन्द्र/माहोर/कुभलमेरू/कमलनीर/मेवाड़ का मेरूदण्ड/सर्वाधिक 360 मंदिरों वाला किला/मेवाड़ की संकट कालीन राजधानी, यह दुर्ग अरावली की 13 चोटियों से गिरी जरगा पहाड़ी की विशाल गंधमादन नामक चोटी पर बना है। यह भी लिवींग फोर्ट है।

कथन

  • गोपीनाथ शर्मा के अनुसार “कुंभा की राजनैतिक उपलब्धियों का प्रतीक दुर्ग है।”
  • हरविलास शारदा के अनुसार “कुंभा की शौर्य गाथा/सैनिक मेधा का प्रतीक दुर्ग है।”
  • जेम्स टॉड – “यहां निर्मित ऊंचे कंगूरे, बुर्जी एवं मजबूत दीवारों को देखकर इस दुर्ग की तुलना एदुस्कन से की।”

कुभलगढ़ प्रशस्ति मामादेव मंदिर के पास लगी 5 शिलाओं पर यह प्रशस्ति वर्तमान में उदयपुर संग्राहलय में है। 1460 ई. में इसके रचनाकार कान्हा व्यास (औझा के अनुसार महेश) थे। कुंभलगढ़ का युद्ध 3 अप्रैल, 1578 ई. में अकबर के सेनापति शाहबाज खां ने इस किले पर आक्रमण किया उस समय महाराणा प्रताप के वीर सेनापति सोनगरा भाण (सोनगरा मानसिंह) के साथ सींधल और सूजा वीर गति को प्राप्त करते हैं और शाहबाज खां की विजय होती है।

विशेष

  • महाराणा सांगा, पृथ्वीराज सिसोदिया और महाराणा उदयसिंह का बचपन यहीं बीता।
  • 1537 ई. में महाराणा उदयसिंह का राज्याभिषेक इसी दुर्ग में हुआ।
  • 1572 ई. में महाराणा प्रताप का वास्तविक राज्याभिषेक इस किले में हुआ।
  • अन्य दर्शनीय स्थलों में मामादेव मंदिर (कुंभास्वामी विष्णु मंदिर), बादशाह बावड़ी, 108 अग्नि वेदिकाओं वाला वेदी मंदिर, बावन देवरी मंदिर, हाथीयों का बाड़ा, कुंभा महल, पीतलिया शाह जैन मंदिर, गोलराव मंदिर समूह, सूर्य मंदिर, हनुमान मंदिर आदि स्थान प्रमुख है।

संकलनकर्ता
किशोर सिंह चौहान उदयपुर विशेषज्ञ राजस्थान इतिहास और कला संस्कृति

देखे तशवीरे :

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