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“कांवड़ की आड़ में दिशा से भटके युवा – आस्था या अवसरवादी अपव्यय?”


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“कांवड़ की आड़ में दिशा से भटके युवा – आस्था या अवसरवादी अपव्यय?”

"कांवड़ की आड़ में दिशा से भटके युवा – आस्था या अवसरवादी अपव्यय?"

सावन का महीना आते ही देशभर की सड़कों पर भगवा वस्त्रों में लिपटे, कांवड़ उठाए युवाओं का एक विशाल जत्था हरिद्वार, गंगोत्री और अन्य तीर्थ स्थलों की ओर दौड़ पड़ता है। चारों ओर ‘बोल बम’ की गूंज और डीजे की धुनें वातावरण को धार्मिकता से अधिक शोरगुल और प्रदर्शन का रूप देने लगती हैं। लेकिन क्या यह सब वास्तव में “श्रद्धा” है? या यह निठलापन, सामाजिक भ्रम और दिशाहीनता का प्रतीक बन चुका है? यहां मैं पढ़ लूंगा तो फिर कहोगे कि बोलता है।
हमारे गांवों, कस्बों और पिछड़े क्षेत्रों के विद्यालयों से, खेतों से और घरों से ऐसे दृश्य आम हो चले हैं कि बच्चे स्कूल छोड़कर, युवा खेतों से काम छोड़कर और बेरोजगार नौजवान घरों की जिम्मेदारियों से मुंह मोड़कर कांवड़ यात्रा पर निकल पड़ते हैं। कांवड़ लाने की ऐतिहासिक और आध्यात्मिक परंपरा, जहां कभी श्रवण कुमार जैसी भक्ति और त्याग का प्रतीक थी, आज वह चिलम, गांजा, भांग, डीजे और फ़ैशन परेड का आयोजन बनती जा रही है।
गांवों के मोहल्लों में युवा दिखाई नहीं देते, स्कूलों में कक्षाएं खाली हैं, और खेतों में बुजुर्ग अकेले जूझ रहे हैं। लेकिन शहरों में, कांवड़ वापसी के साथ ही महंगे कपड़ों की खरीदारी होती है, फोटोशूट्स होते हैं और फेसबुक-इंस्टाग्राम व्हाट्सएप स्टेटस पर ‘बोल बम’ वाली पिक्चर्स के साथ समाज गर्वित होता है।
कहां खो गया वो विचार कि शिक्षा से जीवन संवरता है?
कहां गया वो सिद्धांत कि खेतों में काम कर, पढ़ाई में जुटकर ही परिवार और समाज को उठाया जा सकता है?
सवाल केवल यह नहीं कि कांवड़ लाना गलत है। नहीं। श्रद्धा और भक्ति तो भारतीय संस्कृति की आत्मा है। लेकिन जब श्रद्धा, प्रदर्शन का रूप ले लेती है, जब धर्म केवल मौज-मस्ती और समय बर्बादी का माध्यम बनता है, जब धार्मिक आयोजनों की आड़ में बच्चों की शिक्षा और युवाओं का भविष्य दांव पर लगने लगे – तब हमें चेतने की जरूरत है।
कांवड़ यात्रा के नाम पर कई युवक साल-दर-साल स्कूल छोड़ते हैं, परीक्षा चूकते हैं और दिन-ब-दिन प्रतिस्पर्धा की दौड़ से बाहर होते जाते हैं। और दुखद यह है कि समाज इसपर गौरवान्वित होता है। कहीं से कोई यह नहीं पूछता कि वह बच्चा आज स्कूल क्यों नहीं गया? कोई यह नहीं सोचता कि इस धार्मिक यात्रा की आड़ में वह बच्चा कितने दिन अपनी पढ़ाई और भविष्य से दूर हुआ?
ध्यान रखना होगा, श्रवण कुमार जैसे आदर्श माता-पिता की सेवा और सामाजिक उत्तरदायित्व के प्रतीक थे – सिर्फ गंगाजल उठाना उनका उद्देश्य नहीं था, बल्कि जीवन मूल्यों की रक्षा करना था।
आज जरूरत है ऐसे समाज की जो अपने बच्चों को किताब, लैपटॉप, कोचिंग और कैरियर के साधन दे। जो कांवड़ यात्रा के समानांतर यह भी सिखाए कि विज्ञान, गणित और रोजगार की दिशा में चलना भी एक प्रकार की भक्ति है – देश और समाज के लिए।
धर्म को दिशा बनाइए, दिखावा नहीं।
भक्ति को बल बनाइए, बोझ नहीं।
श्रद्धा को साधना बनाइए, व्यवसाय नहीं।
अगर युवा पीढ़ी को वास्तव में ‘हर-हर महादेव’ के मंत्र की शक्ति समझनी है, तो उन्हें सबसे पहले खुद को, अपने समाज को और अपने भविष्य को समर्पित करना होगा — तभी हम ‘निठलों की फौज’ से ‘राष्ट्र निर्माता’ बना पाएंगे।

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