पत्रकारों की कलम को निजी संपति न समझे स्थानीय नेता
पत्रकारों की कलम को निजी संपति न समझे स्थानीय नेता
पत्रकारिता वह होती है, जिसमें सरकार की जन कल्याणकारी योजनाओं को जनता की अदालत में रखे व सरकार की कमियों को सरकार के संज्ञान में लाने का काम करें। किसी भी नेता को इस भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि पत्रकार की कलम उसके महिमा मंडन के लिए चलेगी। यदि जनहित के कार्यों में उन नेताओं का योगदान है तो निश्चित रूप से उनको प्रमुखता मिलनी चाहिए क्योंकि पत्रकारिता आमजन व सरकार के बीच में सेतु का काम करती है।
राजस्थान में डबल इंजन सरकार का गठन होते ही झुंझुनूं जिले के सभी स्थानीय नेता खुद को विधायक समझने लगे व इसी क्रम में अपने हिसाब से खुद का महिमा मंडन करने लगे लेकिन एक मारवाड़ी कहावत है कि “घी तो बाड़ में गेरृयोड़ो ही दिखजृया ” यदि जनहित के काम किये है तो बताने की जरूरत नहीं खुद जनता तय करेगी कि कौन नेता जनता की समस्याओं को लेकर संवेदनशील है। नेताओं की निजी महत्वाकांक्षा का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि जयपुर से किसी मंत्री या संगठन के पदाधिकारी का जिले मे दौरा होता है तो फोटो सैशन कर उसे सोशल मीडिया पर डालकर उस फोटो को भुनाने में लग जाते हैं। राजस्थान में सरकार के गठन के बाद हर नेता ने अपने हिसाब से जयपुर में पावर सैंटर के हिसाब से आका चुन लिया और जयपुर दरबार में हर हफ्ते हाजिरी लगानी शुरू कर दी। अब यह उनका निजी हित है या जनहित यह तो समय की गर्त में छिपा प्रश्न है परन्तु समय किसी का भी हिसाब नहीं रखता व समय आने पर इस दुकानदारी का राज निश्चित रूप से उजागर भी होगा। प्रजातांत्रिक व्यवस्था में सत्ता का हस्तांतरण आमजन के वोटों से होता है व इन नेताओं को इस मुगालते में नहीं रहना चाहिए कि सत्ता स्थायी है।
आयुष अंतिमा (हिंदी समाचार पत्र) ने सदैव तार्किक व सटीक पत्रकारिता में विश्वास रखा है। तथ्यपरक पत्रकारिता ही समाचार पत्र का ध्येय रहा है। इसलिए उन स्थानीय स्वयंभू नेताओं को भली-भांति समझ लेना होगा कि पत्रकार के हाथ में जो कलम है वह उसकी जागीर नही। सियासत की ड्योढ़ी पर नाक रगड़ने वाली कलम को पत्रकारिता का माध्यम कभी भी नहीं कहा जा सकता है ।
राजेन्द्र शर्मा झेरलीवाला, वरिष्ठ पत्रकार व सामाजिक चिंतक