टाटा भारत लौटे, तो अमेरिकी गर्लफ्रेंड ने छोड़ा:कुत्ता बीमार पड़ा तो प्रिंस चार्ल्स का न्योता ठुकराया; रतन टाटा की शख्सियत के 10 किस्से
टाटा भारत लौटे, तो अमेरिकी गर्लफ्रेंड ने छोड़ा:कुत्ता बीमार पड़ा तो प्रिंस चार्ल्स का न्योता ठुकराया; रतन टाटा की शख्सियत के 10 किस्से
1962 की बात है। रतन नवल टाटा ने न्यूयॉर्क की कॉर्नेल यूनिवर्सिटी से आर्किटेक्चर और स्ट्रक्चरल इंजीनियरिंग की डिग्री पूरी की थी। उन्होंने वहीं एक नौकरी जॉइन कर ली। उनकी एक गर्लफ्रेंड भी थी। उनकी अपने पिता से नहीं बनती थी, इसलिए वो भारत नहीं लौटना चाहते थे।
रतन एक इंटरव्यू में बताते हैं,
मैं अपनी दादी के बहुत करीब था, क्योंकि उन्होंने ही मेरी परवरिश की थी। दादी ने मुझसे भारत आने को कहा और मैं नौकरी छोड़कर यहां आ गया। 15 दिन के भीतर मैं जमशेदनगर जाकर कंपनी में काम करने लगा।
वरिष्ठ पत्रकार गिरीश कुबेर अपनी किताब ‘द टाटाज: हाउ ए फैमिली बिल्ट ए बिजनेस एंड ए नेशन’ में लिखते हैं- टाटा के साथ उनकी गर्लफ्रेंड भी आई थी। कुछ दिनों में वो अमेरिका लौट गई, क्योंकि वो यहां की लाइफ स्टाइल में एडजस्ट नहीं हो पाई। इसके बाद कई मौके आए, लेकिन टाटा ने आजीवन शादी नहीं की।
9 अक्टूबर की देर रात 86 साल की उम्र में रतन टाटा ने अंतिम सांस ली। 10 अक्टूबर को उनका अंतिम संस्कार कर दिया गया। उनकी लाइफ जर्नी और शख्सियत को बयां करते 10 किस्से…
किस्सा-1: रतन टाटा को रोल्स रॉयस से स्कूल जाने पर शर्मिंदगी होती थी 28 दिसंबर 1937 को नवल और सूनू टाटा के घर जन्मे रतन टाटा समूह की स्थापना करने वाले जमशेदजी टाटा के परपोते हैं। रतन 10 साल के थे, तभी उनके माता-पिता अलग हो गए। उनकी परवरिश दादी नवाजबाई ने की।
लेडी नवाजबाई एक सख्त अनुशासनप्रिय महिला थीं। उन्होंने अपना बचपन इंग्लैंड और बाद में फ्रांस में बिताया था। उन्होंने अपने घर टाटा पैलेस में हाई स्टैंडर्ड स्थापित किए थे। घर में लगभग 50 घरेलू सहायक काम करते थे।
रतन ने एक बार कहा था-
मुझे याद है कि मेरी दादी के पास एक बहुत बड़ी पुरानी रोल्स रॉयस हुआ करती थी और वह उस कार को मेरे भाई और मुझे स्कूल से लेने के लिए भेजती थीं। हम दोनों को उस कार पर इतनी शर्म आती थी कि हम पैदल घर लौटते थे।
रतन 18 साल के थे, जब उनके पिता ने दूसरी शादी की। टाटा ने अपने पिता की इच्छा के अनुसार इंजीनियरिंग की पढ़ाई की। पिता की इच्छा न होने के बावजूद आर्किटेक्चर की डिग्री भी ली। उन्होंने दोनों कोर्स 7 साल में पूरे किए थे। टाटा ने एक लेख में लिखा था- मैं और मेरे पिता करीब थे और नहीं भी थे। मुझे कहना होगा कि एक पिता-पुत्र की तरह शायद हमारे विचारों में भिन्नता थी।
किस्सा-2: ट्रेनी से शुरुआत की, किसी को नहीं लगा चेयरमैन बनेंगे
रतन टाटा 1962 में अमेरिका से भारत आ गए। वो टाटा ग्रुप की टेल्को, फिर टेस्को और फिर टाटा स्टील में शामिल हुए। उन्होंने शुरुआत सामान्य ट्रेनी की तरह की। वर्कर्स के बीच रहते, उनके साथ कैंटीन में खाना खाते।
लेबर से फिर वे प्रोजेक्ट ऑफिसर और फिर मैनेजिंग डायरेक्टर एस.के. नानावटी के कार्यकारी सहायक बने। बॉम्बे हाउस में उनकी कड़ी मेहनत की खबर पहुंच चुकी थी। उन्हें मुंबई बुलाया गया। यहां कुछ दिन रहे और एक साल ऑस्ट्रेलिया में टाटा का काम देखने चले गए।
ऑस्ट्रेलिया से लौटने पर उन्हें टाटा ग्रुप की बीमार कपड़ा मिल एम्प्रेस को फिर से खड़ा करने का काम सौंपा गया। ये वो दौर था जब कपड़ा मिलें बर्बाद हो रही थीं, क्योंकि लोग कपास के बजाय नायलॉन और सिंथेटिक कपड़े खरीद रहे थे।
उस समय कपड़ा उद्योग पर बॉम्बे डाइंग का दबदबा था, जिसे नुस्ली वाडिया चलाते थे। एक नए प्रतिद्वंद्वी धीरूभाई अंबानी भी सामने आए था। रतन इन सबसे लड़े और कपड़ा मार्केट में भी अपनी छाप छोड़ी।
किस्सा-3: जेआरडी ने अचानक रतन को टाटा ग्रुप का चेयरमैन बनाया
1981 में जेआरडी ने रतन को टाटा इंडस्ट्रीज का प्रभार सौंपा। यह टाटा संस की तुलना में बेहद कम था। इसका टर्नओवर मात्र 60 लाख रुपए था, लेकिन बड़ी बात यही थी कि इसे जेआरडी सीधे डील कर रहे थे।
जब रतन को ये कंपनियां सौंपी गई तो हल्ला मच गया। मीडिया यह समझने के लिए उत्सुक थी कि क्यों जेआरडी ने रतन को ये कंपनियां दी हैं। मीडिया में तब से ही कयास लगाए जा रहे थे कि जेआरडी रतन को ही अपना उत्तराधिकारी बनाएंगे। मीडिया ने रतन से भी पूछा, लेकिन उन्होंने इसका जवाब नहीं दिया।
रतन की मां कैंसर से जूझ रही थीं। 1982 में वे उन्हें न्यूयॉर्क के स्लोअन केटरिंग कैंसर सेंटर ले गए और उनकी अंतिम सांस तक वहीं रहे।
जब जेआरडी 75 साल के हुए तो उनके अगले उत्तराधिकारी को लेकर चर्चा शुरू हो गई। इस लिस्ट में नानी पालखीवाला, रूसी मोदी, शाहरुख साबवाला और एचएन सेठना जैसे नाम शामिल थे।
3 मार्च 1991 को जमशेदपुर में स्थापना दिवस मनाया जाता है। जेआरडी वहां से लौटे तो तबीयत खराब हो गई। उन्हें ब्रीच कैंडी अस्पताल ले जाया गया। पांच दिन बाद छुट्टी दे दी गई। वह शनिवार का दिन था, लेकिन वे सीधे अपने दफ्तर गए।
जेआरडी ने रतन को बुलाया और उनसे कहा कि वे चाहते हैं कि वे टाटा संस का कार्यभार संभालें। अगली बोर्ड मीटिंग में वे उनका नाम चेयरमैन के लिए प्रपोज करेंगे। सोमवार, 25 मार्च को दोपहर के भोजन के बाद एक बैठक तय की गई। पास के ताज होटल से मंगाए गए सामान्य लंच की बजाय उस दिन पारसियों का त्योहारी खाना मंगवाया गया था।
शेफ लुकास से पूछा गया कि क्या आज किसी का जन्मदिन है। उन्होंने कहा कि नहीं, आज जेआरडी रतन को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर रहे हैं। ये बात जेआरडी के अलावा किसी को पता नहीं थी। जेआरडी ने बोलना शुरू किया और कहा मैं 87 साल का हो गया हूं। मैं थक गया हूं। मेरे राइट हैंड साइड में बैठे रतन का नाम प्रपोज करता हूं। रतन आएं और टाटा ग्रुप की कमान संभालें।
किस्सा-4: ऑस्ट्रेलिया से पूरा मोटर प्लांट पुणे शिफ्ट किया, बनाई टाटा की पहली कार
1995 में रतन टाटा ग्रुप और टाटा मोटर्स के चेयरमैन थे। उन्होंने एक दिन बोर्ड रूम में ऐलान किया किया- हम मारुति जेन के साइज की, अंदर से एम्बेसडर के आकार वाली और मारुति 800 की कीमत वाली डीजल कार लाएंगे। टाटा इसे पहले ही देसी नाम इंडिका दे चुके थे।
टाटा मोटर्स के इंजीनियरिंग रिसर्च सेंटर के इंजीनियरों ने ट्यूरिन स्थित डिजाइन हाउस ( I.D.E.A.) के साथ मिलकर इस चुनौती को स्वीकार किया। कार की डिजाइन बन चुकी थी। इसके प्लांट को लगाने का खर्च 1995 में 7,000 करोड़ रुपए था।
रतन टाटा ने दुनियाभर में बंद हो चुके कार प्लांट्स की जानकारी मंगवाई। तब पता चला कि ऑस्ट्रेलिया में निसान का एक प्लांट है जो बंद हाे चुका है। वो रतन टाटा को 1500 करोड़ रुपए में ही मिल गया। छह महीने में ऑस्ट्रेलिया से पूरा प्लांट भारत के पुणे शहर ले आए। इस तरह भारत में बनी पहली देसी कार टाटा इंडिका को 1998 में शानदार बुकिंग और रिस्पॉन्स के साथ लॉन्च किया गया।
किस्सा-5: लोडिंग वाले का चालान कटते देखा तो ‘छोटा हाथी’ बना दिया
एक बार रतन टाटा ने हाईवे पर एक तीन पहिया लोडिंग गाड़ी का चालान कटते देखा। हाईवे पर तीन पहिया अलाउड नहीं था। साल 2000 की शुरुआत में रतन टाटा ने कॉमर्शियल यूनिट के हेड गिरीश वाघ से चार पहिए वाला हल्का ट्रक बनाने को कहा, जो न सिर्फ हाईवे पर चल सके, बल्कि शहर में भी एंट्री कर सके। गिरीश वर्तमान में टाटा मोटर्स के एग्जीक्यूटिव डायेक्टर हैं।
दिसंबर 2000 में इस प्रोजेक्ट पर काम शुरू किया गया। टाटा ने प्रोजेक्ट शुरू करने से पहले ही बता दिया था कि ये ट्रक जैसा हो, लेकिन इसे ट्रक नहीं कहा जाए। ये जरूर ध्यान रखें कि हम इसे छोटे व्यापारी और ट्रांसपोटर्स के लिए बना रहे हैं, इसका एवरेज दूसरों से ज्यादा और दाम कम होना चाहिए।
ये टाटा का पहला कॉर्मर्शियल व्हीकल था, जिसका 60% हिस्सा ई-आउटसोर्स किया गया था, ताकि कम कीमत में लोगों को डिलीवर किया जा सके। आउटसोर्स के लिए 400 सप्लायर्स से अलग-अलग पार्ट लिए गए थे। आखिरकार इसे 2005 में टाटा एस नाम से लॉन्च किया गया। इसे देश के पहले मिनी ट्रक के रूप में पेश किया गया।
किस्सा-6: जब सिंगूर प्लांट रातोंरात डूब गया, रतन ने कहा- कोई बात नहीं आगे बढ़ो
2006 में टाटा मोटर्स के एग्जीक्यूटिव डायेक्टर गिरीश वाघ ने बॉम्बे हाउस में रतन टाटा से मुलाकात की। यह वह समय था जब टाटा मोटर्स पश्चिम बंगाल के सिंगूर में टाटा नैनो प्लांट लगाने की तैयारी कर रहा था। गिरीश के साथ प्लॉट कंस्ट्रक्शन हेड एम.बी. कुलकर्णी भी थे।
मीटिंग में दोनों ने रतन टाटा को बताया कि जो जमीन प्लांट के लिए मिली है, वह 1100 एकड़ है। जब टाटा ने लोकेशन का दौरा किया तो देखा कि जमीन हाईवे से 13-14 फीट नीचे थी। रतन ने आशंका जताई कि बारिश में दिक्कत हो सकती है, लेकिन कुलकर्णी ने कहा कि सर हमने पिछले 25 साल के बाढ़ के आंकड़ों का एनालिसिस किया है।
सात फीट पर जमीन की लेवलिंग करने के बाद निर्माण कार्य शुरू हो गया। मानसून चरम पर था और सितंबर-अक्टूबर 2007 में इस क्षेत्र में भारी बारिश हुई थी। किसानों की फसलों को बचाने के लिए उस रात छोटी नदी पर बने सीवरेज गेट को खोल दिया गया। नतीजतन, पूरा प्लांट पानी में डूब गया।
अगले दिन जब कर्मचारी फैक्ट्री में आए तो उन्होंने प्लांट साइट के बजाय एक ‘झील’ देखी। टीम ने कंस्ट्रक्शन प्लांट को बदलने के बारे में सोचा। उन्होंने तत्कालीन MD कांत को सूचित किया। कांत ने कहा कि आप मुंबई आकर रतन टाटा को बताएं।
इसके बाद गिरीश वाघ और एमबी कुलकर्णी घबरा गए, क्योंकि सालभर पहले ही रतन टाटा ने उन्हें बता दिया था कि बारिश में दिक्कत हो सकती है। इसके बाद दोनों हिम्मत करके बॉम्बे हाउस पहुंचे। रतन टाटा को पूरी बात बताई, तो उन्होंने सिर्फ एक सवाल पूछा- प्लांट में पानी कहां से आया? इसके बाद कहा- ठीक है नए प्लान पर आगे बढ़िए।
वाघ ने एक इंटरव्यू में कहा कि जब आपके पास इस तरह का सपोर्ट हो तो कोई कैसे आगे न बढ़े। हमने चार महीने की देरी से प्लांट को फिर से खड़ा कर दिया था।
किस्सा-7: बारिश में भीगते परिवार को देखकर बना दी लखटकिया कार नैनो
एक इंटरव्यू में रतन टाटा से पूछा गया कि एक लाख रुपए की कार बनाने का आइडिया उन्हें कहां से आया। उन्होंने कहा, ‘मैं बहुत से भारतीय परिवारों को स्कूटर पर सवारी करते देखता था। लोग स्कूटर से चलते थे, उनके आगे एक बच्चा खड़ा होता था, पीछे उनकी पत्नियां बच्चे को बांहों में लिए बारिश में भीगी फिसलन वाली सडकों पर सफर करती थीं। हादसे का खतरा होता था। मैंने सोचा कि ये एक परिवार के लिए कितना खतरनाक सफर है। क्या हम ऐसे परिवारों को एक सुरक्षित सवारी दे सकते हैं। इसके बाद हमने एक नई छोटी एक लाख रुपए की कार बनाने का फैसला किया।’
हालांकि, ये इतना आसान नहीं था। 18 मई 2006 को रतन टाटा ने ऐलान किया कि वे पश्चिम बंगाल के हुगली जिले के सिंगूर में टाटा नैनो कार का प्लांट लगाएंगे। तब पश्चिम बंगाल में CM बुद्धदेब भट्टाचार्य की अगुआई वाली लेफ्ट की सरकार थी। विपक्ष में थीं ममता बनर्जी।
बुद्धदेब ने नैनो प्रोजेक्ट का स्वागत किया, लेकिन ममता प्रोजेक्ट के लिए जमीनों के अधिग्रहण के विरोध में धरने पर बैठ गईं। ममता की भूख हड़ताल 24 दिन चली। एक हजार एकड़ जमीन अधिगृहीत की जा चुकी थी, लेकिन विरोध के चलते काम शुरू नहीं हो पाया।
3 अक्टूबर 2008 को रतन टाटा को ऐलान करना पड़ा कि वह नैनो का प्लांट सिंगूर से कहीं और ले जाएंगे। इसके बाद नरेंद्र मोदी ने रतन टाटा का गुजरात में स्वागत किया। यह समय गुजरात के ‘विकास मॉडल’ और नरेंद्र मोदी की राष्ट्रीय राजनीति के उदय का था। उन्होंने 3.5 लाख रुपए प्रति एकड़ के हिसाब से टाटा को प्लांट लगाने के लिए 1100 एकड़ जमीन ऑफर की। कहा जाता है सिंगूर से निकलने की घोषणा के बाद मोदी ने टाटा को एक शब्द का मैसेज लिखा था- ‘सुस्वागतम’
कुछ ही दिनों में गुजरात के सानंद प्लांट पर नैनो नाम की लखटकिया कार बनकर तैयार हो गई। 10 जनवरी 2008 को दिल्ली के ऑटो एक्सपो में इसे लॉन्च किया गया, इसके बेस मॉडल की कीमत करीब 1 लाख रुपए रखी गई। 17 जुलाई 2009 को कस्टम विभाग के अधिकारी अशोक रघुनाथ टाटा नैनो के पहले ग्राहक बने।
किस्सा-8: जब फोर्ड ने बेइज्जती की, बाद में टाटा ने सबक सिखाया
टाटा इंडिका बनाने के बाद कंपनी घाटे में चली गई। टाटा मोटर्स ने एक साल के भीतर अपने कार कारोबार को बेचने का फैसला किया। अमेरिका की बड़ी कार कंपनी फोर्ड के साथ बातचीत शुरू हुई।
फोर्ड के चेयरमैन बिल फोर्ड के साथ मीटिंग तय हुई। बिल ने टाटा से कहा, आपने पैसेंजर कार डिवीजन शुरू ही क्यों किया जब आपको इस बारे में कोई नॉलेज और एक्सपीरिएंस नहीं था। फोर्ड ऐसा जाहिर कर रहे थे कि वो ये डील करके एहसान कर रहे हैं। टाटा ने अपना इरादा बदल दिया।
9 साल बाद चीजें बदल चुकी थीं। 2008 की वैश्विक मंदी में फोर्ड दिवालिया होने के कगार पर पहुंच गई। रतन टाटा ने फोर्ड के दो पॉपुलर ब्रांड जगुआर और लैंड रोवर को खरीद लिया।
किस्सा-9: कुत्ता बीमार हुआ तो प्रिंस चार्ल्स का अवॉर्ड लेने इंग्लैंड नहीं गए
समाज के लिए किए गए कार्यों के कारण रतन टाटा को इंग्लैंड में ‘रॉकफेलर फाउंडेशन लाइफटाइम अचीवमेंट’ अवॉर्ड दिया जाना था। राइटर सुहैल सेठ ने एक इंटरव्यू में बताया था कि 2018 में ब्रिटेन के प्रिंस चार्ल्स बकिंघम पैलेस में रतन टाटा को खुद ये अवॉर्ड देने वाले थे।
सुहैल सेठ बताते हैं कि मैं 2 या 5 फरवरी को लंदन पहुंचा तो देखा कि मिस्टर टाटा की 11 मिस्ड कॉल थीं। मैंने उन्हें फोन लगाया और पूछा, क्या हुआ? रतन टाटा ने कहा कि वे अवॉर्ड लेने नहीं आ सकेंगे क्योंकि उनका कुत्ता टीटो अचानक बीमार हो गया है। वे उसे छोड़कर नहीं आ सकते।
सुहैल ने जब ये बात प्रिंस चार्ल्स को बताई तो उन्होंने कहा कि यही एक अच्छे इंसान की पहचान है। इसलिए ये ग्रुप इतना अहम है। रतन को कुत्तों से इतना प्यार था कि बॉम्बे हाउस यानी टाटा हेडक्वार्टर से किसी आवारा कुत्ते को नहीं भगाया जाता। ये आदेश खुद रतन टाटा ने जारी किए थे।
किस्सा-10: 50 साल छोटे लड़के को दोस्त बनाया
रतन टाटा के आसपास हर वक्त एक नौजवान नजर आता था, जिसका नाम शांतनु नायडू है। शांतनु का रतन से कोई पारिवारिक संबंध नहीं है, बल्कि वह टाटा ट्रस्ट के डिप्टी जनरल मैनेजर हैं। जानवरों के साथ नायडू की दोस्ती ने उन्हें रतन का दोस्त बना दिया।
नायडू ने एक इंटरव्यू में बताया था कि 2014 में वह पुणे के टाटा एलेक्सी में ऑटोमोबाइल डिजाइन इंजीनियर के रूप में काम कर रहे थे। एक रोज ऑफिस से घर लौटते वक्त उन्हें सड़क पर एक मरा हुआ कुत्ता दिखाई दिया। इसे देखकर वह इतना परेशान हुए कि उन्होंने आवारा कुत्तों को कार की चपेट में आने से बचाने के लिए रिफ्लेक्टिव कॉलर बनाए।
जब कुत्ते के शरीर में लगाए जाने वाले इस डिवाइस की मांग बढ़ने लगी, तो फंड की कमी के कारण लोगों की मांग पूरी करने में उन्हें दिक्कतें आने लगीं। तभी उनके पिता ने उनसे टाटा को एक पत्र लिखने का आग्रह किया। पहले तो वह झिझके, लेकिन आखिरकार उन्होंने रतन टाटा को एक पत्र लिखा। दो महीने बाद नायडू को टाटा से एक पत्र मिला, जिसमें शांतनु को निजी रूप से मिलने के लिए कहा गया था।
इस मुलाकात में रतन टाटा इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने शांतनु के NGO मोटोपॉज को फंड देने का फैसला किया। इसके बाद ही मोटोपॉज ने सिर्फ कुत्ते ही नहीं बल्कि बाघों के लिए भी कॉलर डिवाइस बनाने का फैसला किया। इससे देशभर में जानवरों से जुड़ी घटनाओं में कमी आई।
कॉर्नेल यूनिवर्सिटी से MBA की पढ़ाई करने वाले शांतनु नायडू टाटा समूह में काम करने वाले अपने परिवार की पांचवीं पीढ़ी हैं। 2018 में अमेरिका से MBA की पढ़ाई कर वापस लौटने के बाद वह टाटा ट्रस्ट में डिप्टी जनरल मैनेजर के रूप में शामिल हो गए।
रतन टाटा के सबसे करीबी माने जाने वाले 30 साल के शांतनु नायडू ने मीडिया कर्मी से बातचीत में उनके व्यक्तित्व के कई पहलू साझा किए थे। उन्होंने बताया कि मैं टाटा के साथ डिनर करने गया था।
वे खुद कार चलाकर मुझे मुंबई के ‘थाई पवेलियन’ ले गए थे। डिनर के दौरान मैंने टाटा से कहा, जब मैं ग्रेजुएट हो जाऊंगा, तो क्या आप मेरे दीक्षांत समारोह में आएंगे? इस पर टाटा ने कहा कि मैं पूरी कोशिश करूंगा और वे आए भी।
शांतनु ने कहा कि मैं कॉर्नेल यूनिवर्सिटी में MBA करने अमेरिका जा रहा था, तब उनसे पहली बार मिला। उन्होंने मेरी चोट देखकर मजाक में कहा था ‘किसी डॉग ने काट लिया?’ तुरंत ही माफी मांगने लगे और कहा, बहुत खराब जोक था।