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कांवड़ यात्रा का इतिहास व महत्व


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कांवड़ यात्रा का इतिहास व महत्व

कांवड़ यात्रा का इतिहास व महत्व

राजेन्द्र शर्मा झेरलीवाला, वरिष्ठ पत्रकार व सामाजिक चिंतक

शास्त्रों में उल्लेख के अनुसार सनातन धर्म में कांवड़ यात्रा करने से कावडिये को मनचाहे फल की प्राप्ति के साथ ही पुण्यफल की प्राप्ति भी होती है । एक पौराणिक मान्यता के अनुसार भगवान विष्णु के अवतार अजर अमर भगवान परशुराम पहले कांवड़िये थे । जिन्होंने अपने पिता की आज्ञा के अनुसार कांवड़ में गंगा जल लाकर भगवान शिव का जलाभिषेक किया था ।

शास्त्रों में इसका उल्लेख मिलता है परशुराम के पिता जमदग्नि कजरी वन में अपनी पत्नी रेणुका के साथ रहते थे वह बड़े शांत स्वभाव और अतिथि सत्कार वाले महात्मा थे। एक बार प्रतापी और बलशाली राजा सहस्त्रबाहु का कजरी वन में आना हुआ तो ऋषि ने सहस्त्रबाहु और उनके साथ आए सैनिकों की सभी तरह से सेवा की

सहस्त्रबाहु को पता चला कि ऋषि के पास कामधेनु नाम की गाय है। इस गाय से जो भी माँगा जाए, मिल जाता है। इसी के चलते ऋषि ने तमाम संसाधन जुटाकर राजा की सेवा की है। इस पर सहस्त्रबाहु ने ऋषि जमदग्नि से कामधेनु गाय की माँग की। जब ऋषि ने देने से मना कर दिया तो राजा ने उनकी हत्या कर दी और गाय को अपने साथ लेकर चला गया।

इसकी जानकारी जब परशुराम को मिली तो उन्होंने सहस्त्रबाहु की हत्या कर दी और अपने पिता ऋषि जमदग्नि को पुनर्जीवित कर लिया। ऋषि को जब परशुराम द्वारा सहस्त्रबाहु की हत्या की बात पता चली तो उन्होंने परशुराम को गंगा जल लाकर शिव लिंग का जलाभिषेक कर प्रायश्चित करने की सलाह दी।

परशुराम ने अपने पिता की आज्ञा मानते हुए कजरी वन में शिवलिंग की स्थापना की। वहीं उन्होंने गंगा जल लाकर इसका महाभिषेक किया। इस स्थान पर आज भी प्राचीन मंदिर मौजूद है। कजरी वन क्षेत्र मेरठ के आस पास ही स्थित है। जिस स्थान पर परशुराम ने शिवलिंग स्थापित कर जलाभिषेक किया था। उस स्थान को ‘पुरा महादेव’ कहते हैं।

एक अन्य पौराणिक मान्यता के अनुसार समुद्र मंथन के समय जो विष निकला था उसे भगवान शिव ने सृष्टि की रक्षार्थ विषपान कर लिया । इसके बाद उनके कंठ नीले पड़ गये व शरीर में जलन होने लगी । तभी से भगवान शिव को नीलकंठ महादेव भी कहते हैं । तत्पश्चात देवताओं उनको जल अर्पित कर जलाअभिषेक किया था । एक अन्य मान्यता के अनुसार भगवान शिव के परम भक्त रावण ने घोर तप किया । इसके लिए वह कांवड़ में जलभर कर लाया और भगवान शिव का जलाभिषेक किया ।

कावड़ियों को बहुत ही साधु संतों की प्रवृति व संयमित जीवन जीना होता है । यात्रा के दौरान मदिरापान , नशा , मांसाहार यहां तक किसी को अपशब्द कहने से भी इसका पुण्यफल नष्ट हो जाता है । कांवड़ को जमीन पर न रखना, कावडिये द्वारा नंगे पांव चलना ही एक सच्चे कावड़िये की पहचान है । आजकल यह देखा गया है कि कावड़ियों की आड़ में असामाजिक तत्वों का जमावाड़ा हो जाने से सनातन धर्म की यह स्वच्छ परम्परा धूमिल हो रही है ।

राजेन्द्र शर्मा झेरलीवाला, वरिष्ठ पत्रकार व सामाजिक चिंतक

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