133 साल पहले एक राजा और एक संन्यासी की घनिष्ठ मित्रता
एक मित्र वीणा वादन करता तो दूसरा ठुमरी गाया करता था

डॉ. जुल्फिकार, भीमसर गांव के युवा लेखक व चिन्तक
स्वामी विवेकानंद का खेतड़ी से विशेष संबंध रहा, इसमें खेतड़ी नरेश अजीत सिंह से उनकी आत्मीयता सर्वविदित है। स्वामी विवेकानंद ने स्वयं कहा था कि ‘अजीत सिंह और मैं — दो ऐसी आत्माएँ है, जो मानव – समाज के कल्याण हेतु एक महान कार्य में आपसी सहयोग करने के लिए पैदा हुए हैं। हम एक दूसरे के सहायक और परिपूरक हैं।’ स्वामीजी यहाँ आए तो विविदिषानंद बनकर थे, पर यह खेतड़ी ही था जिसने उन्हें विवेकानंद का नाम दिया। स्वामी विवेकानंद पर पीएचडी करने वाले भीमसर गांव के युवा लेखक व चिन्तक डॉ. जुल्फिकार के अनुसार यहाँ से स्वामीजी की अमेरिका स्थित शिकागो की विश्वधर्म संसद में जाने की अधिकांश व्यवस्था हुई। यह भी राजस्थान की सभ्यता और संस्कृति का ही प्रभाव था कि विवेकानंद ने अपनी पारम्परिक बंगाली व परिव्राजक संन्यासी की वेशभूषा के स्थान पर राजस्थान साफा (टरबन) और चोगा – कमरखी का आकर्षक वेश धारण किया, जो स्वामी विवेकानंद की स्थायी पहचान बनी। वे राजस्थानी परम्परानुसार भूमि पर बैठकर पट्टे पर ही भोजन किया करते थे। स्वामी विवेकानंद ने स्वयं कहा था कि ” भारत वर्ष की उन्नति के लिए जो कुछ मैंने थोड़ा बहुत किया है, वह में नहीं कर पाता यदि राजा अजीत सिंह मुझे नहीं मिलते “स्वामीजी अपने अल्प जीवनकाल में तीन बार राजस्थान आये तथा वे तीनों बार ही खेतड़ी रुके। स्वामी विवेकानंद और राजा अजीत सिंह की प्रथम मुलाकात राजस्थान के माउंट आबू में हुई थी। राजा अजीत सिंह स्वामी विवेकानंद के प्रभावशील, तेजस्वी, व्यक्तित्व तथा उनकी ओजस्वी वाणी से मुग्ध होकर दोनों मित्र के साथ-साथ गुरु-शिष्य भी बन गए। और आग्रह पूर्वक माउंट आबू से अपने साथ खेतड़ी लेकर आये, खेतड़ी में उनका बड़ा स्वागत किया गया तथा उनके कहने पर ही खेतड़ी में एक प्रयोगशाला कि स्थापना की गई व महल की छत पर एक सूक्ष्मदर्शी यंत्र लगाया गया। जिसमें तारामंडल का अध्ययन राजाजी को स्वामीजी कराते थे। यहां पर ही पंडित नारायणशास्त्री से स्वामी विवेकानंद ने पाणिनिभाष्य पढा़। दोनों घंटों तक संगीत का अभ्यास करते थे। एक वीणा वादन करता था तो दूसरा ठुमरी गाया करता था। दोनों अक्सर आखेट पर जाते थे। शेखावाटी क्षेत्र की जीण माता के दर्शन करने भी दोनों मित्र एक साथ ही गए थे।
विवेकानंद का खेतड़ी से था अटूट रिश्ता:
- खेतड़ी आने से पहले स्वामी विवेकानंद का नाम नरेंद्र था, अपने अल्पजीवन काल में विवेकानंद पांच नामों से जाने जाते थे। नरेंद्रनाथ दत्त, कमलेश, सच्चिदानंद, विविदिषानंद और विवेकानंद। विवेकानंद नाम खेतड़ी के राजा अजीत सिंह ने दिया था।
- हम स्वामीजी की भगवावस्त्रों में जो तस्वीर देखते हैं वह पगड़ी व अंगरखा भी खेतड़ी के राजा अजीत सिंह ने भेंट किए थे। यही वस्त्र बाद में स्वामीजी की पहचान बन गए।
- विश्व धर्म सम्मेलन में हिस्सा लेने शिकागो जाने के लिए ओरियन्ट कम्पनी के पैनिनशुना नामक जहाज का टिकट राजा अजीत सिंह ने ही करवाकर दिया था।
- वर्ष 1891 से 1897 के बीच स्वामीजी खेतड़ी तीन बार आए।
पहली बार 1891 में, 82 दिन दूसरी बार 1893 में, 18 दिन और तीसरी बार 1897 में 9 दिन ठहरे। - मित्र के भव्य स्वागत में अमेरिका से खेतड़ी लौटने पर खर्च हुआ था 14 मण तेल विवेकानंद ने इसी श्रद्धा भक्ति से ओत – प्रोत होकर खेतड़ी को अपना दूसरा घर कहा था।
मित्रता पर स्वामी विवेकानंद के अनमोल विचार :
- “मित्रता आत्माओं का मिलन है, एक ऐसा बंधन जो समय और दूरी से परे है।”
- “मित्रता प्रेम का सर्वोच्च रुप है | यह शुद्ध, निस्वार्थ और बिना शर्त वाली होती है।”
- “मित्रता सभी रिश्तों की नींव है | यह एक सार्थक जीवन की आधारशिला है।”
- “सच्चे मित्रों की संगति में, सबसे अंधकारमय क्षण भी उज्ज्वल हो जाते है।”
- “एक सच्चा मित्र एक दर्पण की तरह होता है, जो आपके सर्वोत्तम पहलुओं को आपके सामने प्रतिबिंबित करता है।”
- “सबसे अच्छा मित्र वह है जो आपको तब ऊपर उठा सके जब आपका मनोबल टूटा हुआ हो।”
- “सच्ची मित्रता का मतलब अविभाज्य होना नहीं है, बल्कि अलग होने और कुछ भी न बदलने के बारे में है।”
- “एक मित्र वह व्यक्ति होता है जो आपके बारे में सब कुछ जानता है और फिर भी आपसे प्रेम करता है।”
- “सच्ची मित्रता विश्वास और समर्थन का एक पारस्परिक आदान – प्रदान है।”
- “मित्रता का मतलब किसी ऐसे व्यक्ति को ढूंढना नहीं है जिसके साथ आप रह सकें, इसका मतलब है किसी ऐसे व्यक्ति को ढूंढना जिसके बिना आप नहीं रह सकते।”
एक्सपर्ट व्यू…