चपरासी की नौकरी कर बेटे को बनाया हाईकोर्ट में जज:एक मां ने बेटे को IPS बनाने के लिए पीठ पर लादा 100 किलो बोझ
चपरासी की नौकरी कर बेटे को बनाया हाईकोर्ट में जज:एक मां ने बेटे को IPS बनाने के लिए पीठ पर लादा 100 किलो बोझ

मेरी हर फिक्र की फिक्रमंद है मेरी मां
मेरी हर जरूरत का ख्याल रखने वाली
खुद के गम को भुलाकर मेरे आंसू पोंछने वाली
अपने आंचल में छुपाकर मुझे सीने से लगाकर महफूज करने वाली है, मेरी मां
क्या लिखूं मां के लिए हर शब्द बहुत थोड़ा है
उसके धैर्य, भावनाओं की गहराई और उसकी ताकत के आगे मेरा सिर हमेशा झुकता है
मेरी मां मेरे लिए है, तू सब कुछ…, तेरे बिन मेरा कुछ नहीं
अपने गर्भ में 9 महीने रखकर हमें जीवन देने वाली हर मां को जनमानस शेखावटी की तरफ से ‘हैप्पी मदर्स-डे’। इस खास दिन पर जनमानस शेखावटी ने बच्चों से उनकी मां के संघर्ष की कहानी को जाना…पढ़िए मां को याद कर किसने क्या कहा…
जोधपुर
‘मां’ ने हम छह भाई-बहनों को पालने के लिए चपरासी की नौकरी की। घर का खर्च ज्यादा था। इसलिए साइड में कुर्सियों का काम करती थीं। जैसे-तैसे हम सभी भाई-बहनों को पढ़ाया। मेरे जज बनने की फाइल अटकी तो हर दिन सुबह पांच बजे हनुमान मंदिर नंगे पांव जाकर मन्नत मांगती थी। मां की बदौलत 2005 में जज बना। ‘ ये कहना है, राजस्थान हाईकोर्ट के पूर्व जस्टिस व राज्य मानवाधिकार आयोग के पूर्व अध्यक्ष गोपाल कृष्ण व्यास का।

जस्टिस गोपाल कृष्ण व्यास ने बताया- मेरी मां फतह कुमारी व्यास अब दुनिया में नहीं हैं। वे राजस्थान की लोकगीत गायिका थीं। आकाशवाणी में उनके कार्यक्रम होते थे। 1982 में एशियाड गेम में तालकटोरा स्टेडियम में राजस्थानी लोक गीत की प्रस्तुति दी थी। छोटी उम्र में ही मेरे पिता रामाकिशन व्यास से 1948 में शादी हो गई थी।
मां का पीहर पक्ष संपन्न था और रागवाणी पुरोहित थे। परिवार संगीत से जुड़ा था। मेरे मामा भी वाद्य यंत्र बजाते थे और मां गाना गाती थीं। 14 साल की उम्र में आकाशवाणी में संगीत का कार्यक्रम देती थीं। मां के साथ मामा जाया करते थे।
पिता के घर आने पर मां का संगीत छूटा
जस्टिस व्यास बताते हैं- नथावतों की बारी में हमारा घर था। उस घर में ही मां शादी के बाद आई थीं। ससुराल आने पर संगीत छूट गया था। ससुराल में मेरे पिता इकलौते बेटे थे और परिवार साधारण था। परिवार के अन्य लोगों को गाना पसंद नहीं था। हम भाई-बहनों को पालने में उनका समय बीतने लगा। हम सात भाई-बहन थे। एक भाई की मौत बचपन में हो जाने से 6 भाई-बहन रह गए। वर्तमान में मेरे सहित तीन भाई हैं। दो का देहांत हो चुका है। मां का सपना था कि हम भाई-बहन अच्छी शिक्षा पाकर और अच्छे ओहदे तक जाएं।

14 साल संगीत से दूर रहीं
शादी के 14 साल बाद नथावतों की बारी में ही बुजुर्ग लोगों ने बैठक कर मां की प्रतिभा की सराहना कर उन्हें आकाशवाणी के अलावा विवाह के गीत व लोक गीत गाने की अनुमति दी। उन्होंने बताया कि मेरी मां के गीतों की पत्थर की रिकॉर्ड भी बनी हुई है।
उस जमाने में गाने की रिकॉर्डिंग पत्थर की रिकॉर्ड पर हुआ करती थी। मैं भी मां के साथ आकाशवाणी जाया करता था। मेरी आवाज भी अच्छी होने से मुझे भी 14 साल की उम्र में उद्घोषक के पद पर पार्ट टाइम काम मिला था।
पिता की नौकरी छूटी तो घर चलाना हुआ मुश्किल
जस्टिस ने बताया- पिताजी उद्योग विभाग में डाइंग इंस्पेक्टर थे। 1966 में उनका यह पद सरप्लस होने से नौकरी चली गई थी। आठ लोगों का परिवार पालना मुश्किल हो गया था। दूर के रिश्तेदार ने बीकानेर वेटरनरी कॉलेज में लैब असिस्टेंट के पद का ऑफर दिया और क्वार्टर भी दिलवाने की बात कही थी। इस पर पूरा परिवार बीकानेर शिफ्ट हो गया था। पिताजी की 100 रुपए तनख्वाह थी, लेकिन ये बड़े परिवार के लिए पर्याप्त नहीं थे।
मां ने भाई के कॉलेज में चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी के पद पर काम किया
उस समय सबसे बड़े भाई का इंजीनियरिंग में सिलेक्शन हो गया था। उनकी फीस भरनी थी। तब मां ने उसी कॉलेज में चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी के पद पर 1971 में नौकरी जॉइन की। उनकी 90 रुपए तनख्वाह थी। पिता की तनख्वाह बड़े भाई की पढ़ाई में खर्च होती और मां की तनख्वाह से घर चलता था।

कुर्सियों की कैनिंग का काम साइड में करती थीं
मां बाहर काम करने के साथ ही कुर्सियों में कैनिंग का काम भी करती थीं। उस काम में हम भाई भी मां का हाथ बंटाते थे। उन रुपयों से घर का खर्चा चलता था। खास बात है कि उस समय हमारे पास एक भी कुर्सी नहीं थी।
दसवीं की परीक्षा साथ दी थी
मां को लगा था- चतुर्थ श्रेणी के पद पर 90 रुपए तनख्वाह में घर चलाना मुश्किल है। तब आगे बढ़ने के लिए मेरे साथ 1972 में दसवीं की परीक्षा दी। हम दोनों साथ पढ़ा करते थे। मां पास हो गई और 1974 में एलडीसी के पद पर तैनाती हुई।

शक्कर बेच कर भरी मेरी एलएलबी की फीस
जस्टिस व्यास बताते हैं- मेरा 1977 में बीकानेर कॉलेज में एलएलबी के लिए सिलेक्शन हो गया था। 50 रुपए फीस थी। घर में फीस भरने की बात आई तो सब परेशान हो गए थे। उस समय का किस्सा याद कर कहते हैं- ‘मैं फीस के लिए परेशान था। मां ने मुझे कहा था- जाकर देखो राशन की दुकान पर शक्कर आई है क्या?’ मैं परेशान था कि मुझे फीस भरनी है और यहां शक्कर की बात हो रही है। मैंने पता किया। शक्कर आई हुई थी। घर आकर बताया तो मां ने कहा कि आठ मेंबर के हिसाब से आठ किलो शक्कर ले आओ। मैं ले आया।
राशन की दुकान पर एक रुपए किलो शक्कर मिलती थी। बाजार में यह शक्कर 10 रुपए प्रति किलो थी। घर के पास की दुकान पर मां ने यह निवेदन कर शक्कर बेची कि बेटे की पढ़ाई के लिए फीस भरनी है। दुकानदार ने 80 रुपए दिए तब 50 रुपए फीस के दिए और 20 रुपए की गुड़ वाली शक्कर घर में ले आए। मां ने कहा- यह ज्यादा ताकतवर होती है और अब हम यह खाएंगे। मां ने ऐसा रास्ता निकाला कि घर में शक्कर भी रही और मेरी फीस भी भर दी गई।
अजमेर : मां ने कहा था- तुझे बड़ा होकर कलेक्टर बनना है
‘मेरी मां खुद पढ़ी लिखी नहीं थीं, लेकिन मुझे पढ़ाया। 5th क्लास में था। एक दिन मां बोली- तुझे बड़ा होकर कलेक्टर बनना है। उसे नहीं पता था कि कलेक्टर क्या होता है? बस इतना जानती थी कि कोई बड़ा अफसर होता है। मेरी मां दिनभर खेतों में पिता गोपीनाथ कांबले के साथ काम करती और शाम ढले दूसरे के खेतों में काम करने जाती थीं। अनाज और सब्जियों के बोरे अपनी पीठ पर लादकर मजदूरी करती थीं, ताकि मैं 10 रुपए देकर जीप में स्कूल जा सकूं। दिनभर काम के बाद रात को घर आकर भाई और मेरे लिए खाना बनाती थीं। इसके बाद अपने हाथों से खिलाती थीं। ‘
मूल रूप से महाराष्ट्र के रहने वाले ट्रेनी आईपीएस श्रवण कांबले अजमेर जिले के पुष्कर थाने में तैनात हैं। उन्होंने बताया कि आज उनका ये मुकाम सिर्फ उनकी मां सुधामती की मेहनत, सोच और संघर्ष के कारण ही हैं।

‘नहीं पढ़ना है तो घर आ जा’
कांबले कहते हैं- मैं महाराष्ट्र के सोलापुर के गांव तद्भवले का रहने वाला हूं। घर में माता-पिता व बड़ा भाई है। मेरे पिता किसान हैं। 2019 में यूपीएससी में फर्स्ट अटेम्प्ट क्लियर किया था। इसके बाद मैं 2021 में आईपीएस बन गया था।
एक किस्सा याद करते हुए बताते हैं- ‘किसी भी इंटरव्यू से पहले मां से फोन पर बात करता था। वह सिर्फ यही कहती थीं कि मेरा आशीर्वाद तेरे साथ है। अफसर बनने के लिए दिन-रात एक कर दे। अगर तुझे नहीं पढ़ना है तो घर आजा तुझे बैठाकर हम खिला देंगे। ‘
2019 में जब मैंने यूपीएससी की पढ़ाई पूरी की, तब मां खेत पर काम कर रही थी। उस समय मीडिया के कुछ रिपोर्टर्स मेरी मां के पास इंटरव्यू के लिए पहुंचे थे। रिपोर्टर्स ने मां को बताया था कि आपके बेटे ने यूपीएससी क्लियर किया है। उन्होंने मां से पूछा- ‘बेटा क्या बना है, आपको इसकी जानकारी है या नहीं।’ ‘तब मां ने कहा था- मुझे पता नहीं बेटा क्या बना है लेकिन इतना पता है कि एक बड़ा अफसर बना है।’

दूसरे के खेतों में मजदूरी के बाद बेचती थीं सब्जी
मैं पांचवीं कक्षा में था। तब मेरी मां ने मुझे कहा था, तुझे एक बड़ा अफसर बनना है। मां पढ़ी-लिखी नहीं हैं। उन्हें बस इतना पता था कि कलेक्टर या जो बड़ा अफसर होता है, उसमें बहुत ताकत होती है। मां को बचपन से काम करते देखा है। सुबह खाना बनाने के बाद पिता के साथ हमारे खेत में हाथ बंटाती थीं। इसके बाद दूसरों के खेतों में काम करने जाती थीं। शाम को लौटकर सब्जी का ठेला लगाती थीं। इससे जो पैसे कमाती थीं, मेरी स्कूल फीस और किताबों पर खर्च करती थीं।
मैं पढ़ाई करता तो चिमनी जलाकर रात भर बैठती थीं
कांबले ने बताया- हमारे पास सिर्फ 10/10 फीट का एक कच्चा मकान था, जो मिट्टी और पत्थरों से बना हुआ था। 12वीं क्लास तक घर में लाइट भी नहीं थी। मां मेरे पास में बैठकर मिट्टी के तेल से चिमनी जलाती थीं। जब तक मैं पढ़ता था, वह चिमनी लेकर बैठी रहती थीं और तेल डालती थीं। मां ने ठान रखा था, कैसे भी मुझे अफसर बनाना है। वो मुझे सिर्फ पढ़ने के लिए टोकती थीं। कभी आलस करता तो मां डांटती भी थीं। वो खुद निरक्षर होकर भी पढ़ाई के महत्व को समझती हैं।

100 किलो के बोरों को पीठ पर लादकर एक से दूसरी जगह रखतीं
मैं 11वीं और 12वीं क्लास में पढ़ने के लिए दूसरे गांव में जीप की छत पर बैठकर जाता था। जीप के अंदर बैठने के लिए 10 रुपए देने पड़ते थे। जीप की छत और बोनट पर बैठने के लिए सिर्फ 5 रुपए देने होते थे। मेरी सुरक्षा को देखते हुए मां ने और काम करना शुरू कर दिया था। 50 से 100 किलो के अनाज और सब्जियों के बोरों को पीठ पर लादकर एक जगह से दूसरी जगह रखने का काम किया था।
इससे जो पैसे मिलते थे, उसमें से 10 रुपए मुझे देती ताकि जीप के अंदर बैठकर स्कूल जाकर पढ़ सकूं। हफ्ते में जितना कमाती थीं, उससे हर बुधवार को गांव में लगने वाले बाजार में जाकर नोट बुक लेकर आती थीं। मां ने एक बार सस्ते दाम में बकरी खरीदकर ज्यादा दाम में भी बेचा था ताकि मेरी किताब ला सकें।

मुझे नींद में खाना खिलाती थीं
मां कई बार रात को देरी से घर लौट पाती थीं। जब तक मैं सो जाता था। वह आकर खाना बनाती और मुझे नींद में ही खिलाया करती थीं। गांव में मिलने वाले सरकारी राशन को लेने के लिए मां को लंबी लाइन में खड़ा रहना पड़ता था। कई बार कालाबाजारी के कारण राशन नहीं मिल पाता था, जिसके कारण मां रो पड़ती थीं।
चित्तौड़गढ़ : कम नंबर आने पर मां मुझे बहुत डांटती थीं
‘पिता ने मेरी पढ़ाई पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया। जब गांव के बच्चों और टीचर ने मेरी मां को ये बताया कि उनका बेटा पढ़ाई में होशियार है और क्लास में पहला स्थान मिलता है तो मेरी मां ने मुझ पर ध्यान देना शुरू किया। मां पढ़ी-लिखी नहीं थीं, लेकिन परीक्षा के दिनों में रातभर वो जागती रहती थीं ताकि मुझे नींद नहीं आए।
उप निदेशक (उद्यान) शंकरलाल जाट ने बताया कि मेरा जन्म चित्तौड़गढ़ के कपासन उपखंड के केसर खेड़ी गांव में हुआ था। पिता वेणीलाल जाट (80) PWD विभाग में बेलदार थे, जबकि मां वरदी बाई (73) खेती और पशुपालन करती थीं।

मां रात भर पास में बैठती और मैं पढ़ता था
मैं मां के साथ खेती का काम करता था। मेरी मां को जब पता चला कि मेरे परीक्षा में अच्छे नंबर आते हैं तो इसके बाद उनका रूटीन बदल गया। मेरे एग्जाम के दिनों में जब मैं रात भर पढ़ता था तो मां पास में बैठी रहती थीं।
मुझे कुछ घंटे सोकर उठना होता तो मां अलार्म का भी काम करतीं। मां काफी स्ट्रिक्ट थीं। उन्हें रिजल्ट समझ नहीं आता तो वो आस-पास के अन्य लोगों से जाकर पूछती कि नंबर कैसे देखते हैं। जब उन्हें अच्छे नंबर आने का पता चलता तो वो खुश होती लेकिन अगर किसी सब्जेक्ट में कम नंबर आए तो डांट लगातीं।

मां ने उधार रुपए लेकर पढ़ाया
मैंने साल 2000 में 12वीं क्लास पास की थी। 12वीं करने के बाद मई 2000 में JET का एग्जाम दिया था। इसमें मेरी 8वीं रैंक बनी। JET का रिजल्ट जुलाई 2000 में आ गया था लेकिन आठ दिन तक मुझे मेरे रिजल्ट के बारे में पता ही नहीं था। एग्जाम में साथ रहे एक साथी का जब कपासन आना हुआ तो दूध वाले के साथ सूचना भिजवाई। दूध वाले के कहने के बाद मैंने 8 दिन पुराना पेपर ढूंढा, लेकिन नहीं मिला। फिर रिजल्ट देखने के लिए उदयपुर गया। एडमिशन का खर्चा ज्यादा था। पिता की कमाई भी नाम मात्र ही थी। तब मां ने 10 हजार रुपए ग्रामीणों से उधार लेकर कॉलेज में एडमिशन करवाया था।
मां ने की एक्स्ट्रा मेहनत, नहीं मानी हार
BSC (एग्रीकल्चर) के दौरान पढ़ाई, हॉस्टल में रहना, अन्य खर्चा हर महीने का लगभग 5000 रुपए का होता था। पिता का मेरी पढ़ाई पर उतना ध्यान नहीं था। उस दौरान भी मेरी मां ने हार नहीं मानी। खेती के साथ-साथ उन्होंने दूसरों के खेतों पर काम किया ताकि एक्स्ट्रा इनकम आ सके। उस समय परिवार भी बड़ा था। परिवार का सारा काम भी वो अकेली ही करती थीं। बाहर खेतों का काम भी संभालती थीं। जो भी इनकम होती वो उसमें से मेरा खर्चा हर महीने भेज देती थीं।
सीकर : तीनों बच्चों को माउंट एवरेस्ट पर भेजना चाहती है मां
सीकर की रहने वाली 45 साल की नान्छी देवी मजदूर हैं। इसके बाद भी अपने तीन बच्चों सरिता, रजनी और साबरमल को खिलाड़ी बनाया। फिलहाल बच्चे उत्तराखंड के पहाड़ों में कमांडो रगड़ा कोर्स कर रहे हैं। यह कोर्स पूरा होने के बाद आर्थिक मदद मिलने पर तीनों माउंट एवरेस्ट की चढ़ाई कर सकते हैं। तीनों भाई-बहन राज्य और नेशनल लेवल पर कई गेम्स खेल चुके हैं।

बच्चों के कोच महेश नेहरा बताते हैं- मूल रूप से नीमकाथाना की रहने वाली नान्छी देवी और उनके पति दोनों मजदूरी करते हैं। मां ने बच्चों के खेलने के शौक को समझा और आगे बढ़ाया। 2011 में इनसे मुलाकात हुई थी। इसके बाद बच्चों को तैयार किया। अब तक दौड़, फुटबॉल और बॉलिंग में तीनों ने करीब 100 से ज्यादा मेडल जीतकर अपनी मां की मेहनत को तोहफा दे चुके हैं।