महाराजा अग्रसेन जी की वंशावली
महाराजा अग्रसेन जी की वंशावली

जनमानस शेखावाटी संवाददाता : चंद्रकांत बंका
झुंझुनूं : विभिन्न इतिहासकारों एवं लेखकों ने अपने-अपने विवेकानुसार महाराजा अग्रसेनजी की वंशावली प्रस्तुत है, उनमें पर्याप्त अंतर व मतभेद मिलते हैं। फिर भी हम डा. सत्यकेतु विद्यालंकर द्वारा लक्ष्मी व्रत कथा के आधार पर प्रस्तुत वंशावली दे रहे हैं जो सर्वाधिक प्रमाणिक एवं मान्य समझी जाती है।
भारतेंदु हरिशचंद्र ने महालक्ष्मी कथा के अनुरूप अपनी वंशावली राजा धनपाल से प्रारंभ है। उनके अनुसार पहला मनुष जो वैश्यों में हुआ, उसका नाम धनपान था, जिसे ब्राह्मणों ने प्रतापनगर में राजगद्दी पर बैठाकर धन का अधिकारी बनाया। उसके आठ पुत्र और कन्या हुई। इन आठों का विवाह विशाल राजाजी कन्याओं के साथ हुआ। वे ही वैशें की माताएं हैं। इन आठ पुत्रों में एक नल के विश्य नामक पुत्र हुआ, विश्य के वैश्य और वैश्य के वंश में सुदर्शन हुआ। उसका पुत्र धुरंधर और धुरंधर का पड़पौता समाधि हुआ। समाधि के वंश में मोहनदास और उसका पड़पौत्र नेमिनाथ हुआ। उसके पुत्र वृंद ने वृंदावन मे वृंदावन देवीजी मूर्ति स्थापित की। इस वंश के गुर्जन ने गुजरात बसाया। इसके आठवें वंश में हरि और उसके रंग आदि सौ पुत्र थे। रंग के विशोक, उसके प्रभु और मधु के महीधर नामक पुत्र हुआ। महीधर महादेव को प्रसन्न करके अनेक वर प्राप्त किए थे। महीधर के वंश में वल्लभ हुआ। इसी वल्लभ के घर प्रतापी अग्रराजा हुआ, जिसे अग्रसेन या अग्रनाथ कहते हैं।
सुप्रसिद्ध इतिहासकार बालचंद मोदी का मत है कि यह वंशावल अपूर्ण है। इस वंशावली में केवल उन्हीं राजाओं का उल्लेख हुआ है जिन्होंने अपने काल में विशेष पराक्रम प्रदर्शित किए। बाकी नाम भूल गए। संभव है कि अनुसंधान करने से पूरी वंशावली मिल जाए। अभी जो वंशावली सामने है, उससे स्पष्टï है कि महाराजा अग्रसेन के अलावा उनके वंश में कम से कम 18 ऐसे पूर्वज हुए जिन्होंने विशेष पराक्रम द्वारा अपना नाम अमर किया, क्योंकि यदि उन्होंने कोई पराक्रम न किया होता तो उनके नाम भी वंशावली से लुप्त हो गए होते। इन 18 राजाओं में भी अधिकांश के जीवन के विषय में जानकारी नहीं है। केवल मोहनदास, नेमिनाथ, वृंद और गुर्जर के विषय में ही उल्लेख मिलता है।
मोहनदास के बारे में लिखा है कि वे बड़े भक्त थे। इनकी रंगनाथ जी के चरणों में बड़ी प्राप्ति थी। उन्होंने कावेरी के तट पर श्री रंगनाथ जी के अनेक मंदिर बनवाए। इन मंदिरों का अनुसंधान करने पर किसी शिलालेख के मिलने और उससे मोहनदास के विषय में अधिक जानकारी मिलने की संभावना की जा सकती है। इन्हीं के पड़पौते नेमिनाथ के बारे में कहा जाता है कि उन्होंने नेपाल बसाया। यदि नेपाल बसाने वाले नेमिनाथ यही हैं तो इनके विषय में यह बात भी मालूम हो जाती है कि वे मुनि थे, क्योंकि नेपाल के इतिास में नेपाल बसाने वाले का नाम ने मुनि है, जो वास्तव में मुनि ही थे। माननीय मोदी के अनुसार नेपाल के इतिहास में नेपाल इतिहास में नेपाल इस बात का उल्लेख नहीं है कि ने मुनि कहा से आए थे पर अग्रवाल जाति के पुरुषों के इतिहास से यह बात मालूम हो जाती है। संभव है, नेमिनाथ विरक्त होकर तपस्या करने नेपाल के तपोवन में पहुंच गए हों। इन्हीं नेमिनाथ के पुत्र वृंदा का नाम भी परंपरा से चला जाता है। उन्होंने वृंदावन में यज्ञ किया और वृंदा देवी का मंदिर बनवाया था। वृंद के बाद गुर्जर नामक राजा हुआ, जिसके बारे में कहा जाता है कि उन्होंने गुजरात बसाया।
इस विषय में और अधिक प्रामाणिक जानकारी गुजरात के इतिहास के अध्ययन से ही मिल सकती है, किंतु इतना निश्चित है कि वे यशस्वी राजा थे। राजा महीधर का नाम भी वंशावली के इतिहास प्रसिद्ध राजाओं में है। उनके बारे में उल्लेख है कि वे भगवान शंकर के महान भक्त थे और उन्होंने शंकरजी आराधना द्वारा अनेक वर प्राप्त किए थे। उन्हीं के वंश में आगे चलकर वल्लभ और उनके महाराजा अग्रसेन हुए। धनपाल के पूर्वजों के नाम भी महालक्ष्मी व्रत कथा की वंशावली में नही है जबकि एक अन्य ग्रंथ उरूचरित में उसका उल्लेख मिलता है। हस्तलिखित ग्रंथ में ब्राह्मा से धनपाल जी वंशावली भी दी हुई है।
अग्रवाल जाति का विकास अग्रोहा से हुआ यह बाद निर्विवाद है। इसके लिए किसी इतिहास आदि के प्रमाण की जरूरत नहीं है। अग्रवाल अपने गौत्रों की तरह अपने मूल स्थान को भी पीढ़ी दर पीढ़ी याद रखता है।
महाभारत काल में (महाभारत में वर्णित) नकूल और कर्ण द्वारा भारत विजय के आधार पर अग्रोहा का निर्माण कलियुग से 5060 वर्ष पूर्व का माना जाता है। जिसकी स्थापना महाराजा अग्रसेन जी ने की थी। महाराजा अग्रसेन का जन्म लगभग 5100 वर्ष पूर्व राजा धनपाल जी की छठी पीढ़ी में प्रतान नगर के राजा बल्लभ के यहां हुआ था। प्रताप नगर का स्थान राजस्थान के श्रीगंगानगर के आसपास का माना जाता है। महाराजा अग्रसेन जब युवा अवस्था में पहुंचे तो उस समय नागराज महीधर ने अपनी कन्या माधवी के लिए स्वयंवर रचाया। भूलोक के अनेक राजाओं के साथ देवराज इंद्र भी इस स्वयंवर में आए। नाग कन्या माधवी ने वरमाला महाराजा अग्रसेन के गले में डाल दी। यह विवाह दो संस्कृतियों का मिलन था। देवराज इंद्र नागकन्या माधवी पर मोहित था तथा उससे विवाह रचाकर नागवंश को अपने साथ करना चाहता था परंतु इसमें उनको सफलता नहीं मिली।
इससे उनके मन में महाराज अग्रसेन के प्रति द्वेष उत्पन्न हो गया और उनके राज्य में वर्षा बंद कर दी। इससे प्रताप नगर में भयंकर आकाल पड़ गया तथा चारों ओर त्राही-त्राही मच गई। इस पर महाराज अग्रसेन ने देवराज इंद्र पर चढ़ाई कर दी। महाराजा अग्रसेन के पास जो नैतिक बल था उसके सामने देवराज इंद्र की सेना नहीं टिक पाई और घबराकर युद्ध से भाग गया। इस अवस्था में देवराज इंद्र ने देवर्षि नारद को महाराज अग्रसेन के पास संधि के लिए भेजा तथा देवर्षि नारद ने महाराजा अग्रसेन व देवराज इंद्र के बीच संधि करा दी। अकाल की स्थिति में महाराजा अग्रसेन जी ने धन के सारे भंडार प्रजा के लिए खोल दिए। राज्य के अन्य भंडार खाली हो गए। भण्डारी ने राजमहल के उपयोग के लिए कुछ भण्डार बचा लिया था। भूख से प्रजा का बुरा हाल था। महारानी माधवी को जब स्थिति का पता चला, उन्होंने भण्डारी को डांटा और कहा कि राजा पिता के समान होता है और पिता का क्रतव्य है कि स्वयं भूखा रहकर बच्चों की उदरपूर्ति करे। उन्होंने राजमहल की सारी सामग्री अन्न आदि प्रजा में वितरित करा दी। राज परिवार के सदस्यों ने प्रायश्चित हेतु उपवास शुरू कर दिया।
महाराजा अग्रसेन एवं महारानी माधवी ने धन-धान्य की देवी लक्ष्मी जी की अराधना शुरू की। महालक्ष्मी जी ने प्रसन्न होकर उन्हें दर्शन दिए तथा वरदान दिया कि पुत्र मैं तेरे कुल की देवी बनकर रहूंगी तेरे कुल को कभी भी किसी को भी कोई अभाव नहीं रहेगा तथा उन्हें महाप्रतापी होने का आशीर्वाद दिया। महालक्ष्मी जी ने महाराजा अग्रसेन को अपना अलग राज्य स्थापित करने को भी कहा।
महालक्ष्मी जी से आशीर्वाद का कवच पहनकर महाराजा अग्रसेन जी ने अपने मंत्री परिषद के साथ भ्रमण किया। उन्होंने देखा कि झाड़ी की ओट में एक सिंहनी बच्चे को जन्म दे रही है। महाराजा अग्रसेन के लावलश्कर को देखकर उसके प्रसव में बांधा पड़ी तथा कुछ ही क्षणों में सिंहनी के प्राण पखेरू उड़ गए। सिंहनी के जन्मे नवजात शावक ने क्रोधित हो बड़ी तेजी से समीप खड़े हाथी पर प्रहार किया। महाराजा अग्रसेन जी इस दृश्य से काफी प्रभावित हुए तथा उनके दिमाग में यह बात बैठ गई कि निश्चय ही यह वीर भूमि है और यहां जन्म लेने वाले लोग वीर, पराक्रमी एवं साहसी होंगे। इस प्रेरणा से प्रेरित होकर उन्होंने इस भूमि पर अपने राज्य की राजधानी स्थापित करने का निश्चय किया और उसका नाम अग्रोदक रखा जिसे आजकल अग्रोहा के नाम से जाना जाता है। अग्रोदक सवा लाख धरों की सुव्यवस्थित बस्ती थी।
महाराजा अग्रसेन ने एक तंत्रीय शाषण प्रणाली को समाप्त कर विश्व में सर्वप्रथम अपने ढंग की अनोखी लोक तन्त्रीय शाखा प्रणाली का शुभारंभ किया। सम्राट बनकर अपने राज्य में समाजवाद की प्राण प्रतिष्ठï की। समाजवाद के माने सभी सम्पति समाज की, उन्होंने इसी सिद्धांत को प्रति स्थापित किया। सही माने में वे एक सच्चे प्रथम समाजवादी सम्राट थे। महाराजा अग्रसेन के राज्य में गरीब एवं ऊंचा-नीचा का कोई भेद नहीं था। अपने राज्य में हर नए आने वाले व्यक्ति को एवं मुद्रा एवं ईंट भेंट स्वरूप देने की परम्परा कायम की ताकि सभी समान होकर रहें। इस सभ्यता और संस्कृति ने भारतीय समाज ही नहीं बल्कि विदेशों को भी प्रभावित किया। उनके राज्य में न कोई छोटा न न कोई बड़ा, सब समान थे और समाज में पारस्परिक प्रेम, सहयोग, भाईचारे, त्याग आदि आदर्शों के कारण सुख-सरिता प्रवाहित होती थी। सभी एक-दूसरे के लिए जीते थे। शोषण का कही नाम नहीं था। वे वास्तव में लोकतंत्र एवं पंचायती शाशन के प्रेरक थे।
महाराजा अग्रसेन ने 18 महायज्ञ आयोजित किए। उस युग में यज्ञ करना तथा उसमें सफलता प्राप्त करना सम्मानता का प्रतीक माना जाता है। अंतिम यज्ञ के समय महाराजा अग्रसेन जी ने देखा कि बलि के लिए लाए जा रहे पशु बलि के स्थान पर आगे बढऩे की बजाय पीछे हट रहे हैं। महाराजा अग्रसेन के मन में पशुओं के प्रति करुणा उत्पन्न हुई और उन्होंने इस अंतिम यज्ञ में पशु बलि के स्थान पर श्रीफल की पूर्ण आहुति दी। यह परम्परा आज भी चालू है। उन्होंने अपने राज्य में पशुवध पर पूर्ण रूप से प्रतिबंध लगा दिया तथा सभी को अहिंसा का पाठ पढ़ाया।
महाराजा अग्रसेन जी के 18 पुत्र थे। उन्होंने 18 महायज्ञों में राजकुमारों के साथ बैठे। 18 गुरुओं के नाम पर 18 गौत्रों की स्थापना की। आज महाराजा अग्रसेन का अग्रवाल समुदाय इन 18 गौत्रों में विधिवत है। अपने गौत्र को छोडक़र अन्य गौत्रों में विवाह का नियम बनाकर एक सभ्य, सुसंस्कृत और मजबूत मानवीय समाज की आधारशिला रखी। ये 18 गौत्र गीता के 18 अध्यायों की भांति अलग-अलग होकर भी एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। महाराजा अग्रसेन ने अपने राज्य को 18 जनपदों में विभक्त कर अपने एक-एक पुत्र को उसका अधिशासी बनाया तथा विश्व में सर्वप्रथम लोक तांत्रिक प्रणाली का शुभारंभ किया।
बिना रक्त की एक बूंद बहाए समाज में समानता लाने तथा वैभव को बांटने का यह प्रयत्न अनुपम है।
एक सबके लिए-सब एक के लिए, सर्वजन सुखाय, सर्वजन हिताय पर आधारित ऐसा आदर्श अत्यंत दुर्लभ है
108 वर्षों तक राज्य करने के पश्चात महाराजा अग्रसेन अपनी कुलदेवी महालक्ष्मी जी की आज्ञा से अपने बड़े पुत्र विभू को राज्य सौंपकर स्वयं वानप्रस्थ को चले गए।
अग्रवाल समाज के 18 गौत्रों विवरण गौत्राधिपति ऋषि गौत्र वेद शाखा प्रवर सूत्र
1. पुष्पदेव गर्ग गर्ग युजर्वेदी माधुनी पंथ कात्यायनी
2. गेंदुमल गोभिल गोयल युजर्वेदी माधुनी त्रिप्रवर कात्यायनी
3. करणचंद कश्यप कुच्छल सामवेदी कोत्थमी त्रिप्रवर गोभिल
4. मणिपाल कौशिक कंसल यजुर्वेदी माधुनी त्रिप्रवर कात्यायनी
5. वृंददेव वशिष्ठï बिन्दल युजर्वेदी माधुनी त्रिप्रवर कात्यायनी
6. ठावणदेव धौम्य धारण युजर्वेदी माधुनी त्रिप्रवर कात्यायनी
7. सिधुपति शांडिल्य सिंघल सामवेदी कोत्थमी त्रिप्रवर गौतम
8. जैत्रसंघ जैमिनी जिन्दल जुर्वे माधुनी त्रिप्रवर कात्यायनी
9. मंत्रपति मैत्रेय मित्तल जुर्वे माधुनी त्रिप्रवर कात्यायनी
10. तम्बोलकर्ण ताड़व तिगंल जुर्वे माधुनी त्रिप्रवर कात्यायनी
11. ताराचंद तैतिरेय तायल कृष्णयजूर आयुस्तभ त्रिप्रवर कात्यायनी
12. वीरभान वत्स बंसल सामयजुर कोत्थमी त्रिप्रवर गोभिल
13. वासुदेव धन्यास भन्दल युर्जवेदी माधुनी त्रिप्रवर कात्यायनी
14. नारसेन नागेंद्र नांगल सामवेद कोत्थमी त्रिप्रवर गोभिल
15. अमृतसेन मांडव्य मंगल यजुर्वेदी शाकल्य त्रिप्रवर अश्वालयन
16. इन्द्रमल और्व ऐरण यजुर्वेदी माधुनी त्रिप्रवर कात्यायनी
17. माधवसेन मुद्गल मधुकुल यजुर्वेदी शाकल्य त्रिप्रवर अश्वालायन
18. गोधर गौतम गोयन यजुर्वेदी माधुनी त्रिप्रवर कात्यायनी