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आधुनिक भारत का रिवाज बन रहा है कि जहां तर्क नहीं होते वहां हिन्दू-मुस्लिम की चर्चा होती है


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आर्टिकलराज्य

आधुनिक भारत का रिवाज बन रहा है कि जहां तर्क नहीं होते वहां हिन्दू-मुस्लिम की चर्चा होती है

आधुनिक भारत : आधुनिक भारत का रिवाज बन रहा है कि जहां तर्क नहीं होते वहां हिन्दू-मुस्लिम की चर्चा होती है, हमने आलोचक बनने के चक्कर में सृजनात्मकता को खत्म कर दिया है । हमने मुहब्बत भी की तो वो नाकाबिल-ए- बर्दाश्त साबित हो रही है । यह प्रवृत्ति डीएनए जैसा रूप धारण कर रही है, एक पीढ़ी नफरत की आग में मर रही है तो दूसरी भी उसी नफरत के अंश और सूरत लेकर पैदा हो रही है । खतरा नामक विषय कबूतरों को दाना फेंककर एक जगह इकट्ठा करने जैसा है, जिसे चाहो तब ताली पीटकर एक साथ उड़ाया जा सकता है ।

नफरत जब इंसान के जिम्मे आती है तो वह समय के साथ अधिक शक्तिशाली बनती जाती है क्योंकि इंसान एवोल्यूशन के सिद्धांत में बंधा हुआ है, तभी तो बंदर से इंसान बन गया औऱ सबसे उम्दा मख्लूक़ का दर्जा प्राप्त किये हुए है, सारे जानवरो में श्रेष्ठ । इंसानों ने जंगलों के राजा शेर को विलुप्त प्रजाति में लाकर छोड़ दिया तो हम किस रूप में अपने आप को साबित करें ? कबीलों की लड़ाई राज्यों में बदली, देशों में बदली ,सल्तनतों में बदली, साम्राज्यवादी इच्छाओं में बदली, और बदलती – बदलती आज इस मुकाम पर पहुंच चुकी है कि हवाएं भी नफरती हो चुकी है ।

आपको क्या लगता है कि जो तथाकथित नफरत हम पालें हुए हैं वह अपना रूप विकसित नही करेगी ? करेगी जरूर करेगी, ‘ हाथ को हाथ खाने ‘ जैसी कहावतें सिद्ध होगी , खुद इंसान अपनी ही नफरत की आग में झुलस जाएगा, वह खुद को भी खोएगा और अपनों को भी । इस प्रकृति में सारी घटनाएं क्रिया की प्रतिक्रिया के रूप में चल रही है, ईश्वर भी इसी सिद्धांत पर यह जगत चला रहा है, जिसे हम कर्मों का फल कह देते हैं । जो सिद्धांत ईश्वर ने अडॉप्ट किया है वह इंसानों पर हर विषय के संदर्भ में लागूं होगा, यह तय है । हर दिन बेवजह हम नफरत की भावना को बढ़ावा देते रहेंगे तो दुनिया को खत्म करने वाले अवतारों का तो पता नहीं खुद इंसान ही अपने हाथों से हमारे बनाए हुए श्रेष्ठता प्राप्त समाजों को , शहरों को, गांवों को नष्ट कर देंगे ।

ये बातें मैं नहीं लिख रहा हूँ, यह बातें तो सैंकड़ों वर्षों से चली आ रही है, तभी तो वापिस लिखी जा रही है , क्योंकि यह अच्छाई भी एक किताबी विषय जैसा हो गया है , जो आता तो सबको है लेकिन वास्तविकता और धरातल से बहुत दूर है । खैर, लगाई आग तो खुद को ही बुझाने पड़ेगी या फिर खुद को जलना पड़ेगा ।

~ युवा लेखक आबिद खान गुड्डू ।

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