मांड का अमर स्वर “राजस्थान की मरू कोकिला”अल्लाह जिल्लाह बाई, बीकानेर
मांड का अमर स्वर "राजस्थान की मरू कोकिला"अल्लाह जिल्लाह बाई, बीकानेर


विशेषज्ञ इतिहास और कला संस्कृति
मांड का अमर स्वर “राजस्थान की मरू कोकिला”अल्लाह जिल्लाह बाई, बीकानेर : बीकानेर से ब्रिटेन तक अपनी गायकी के जौहर से अनगिनत श्रोताओं का दिल जीत चुकी इस मरु कोकिला ने सात-आठ वर्ष की आयु में ही उस्ताद हुसैन बक्स से संगीत की तालीम लेना शुरू कर दिया था।
इस सुर मलिका को बाल्यकाल में ही बीकानेर के तत्कालीन महाराजा गंगासिंह के सामने गाने का सौभाग्य मिला। सुरीली आवाज, गीतों के स्पष्ट बोल से प्रभावित होकर महाराजा ने अल्लाह जिलाई बाई को राजघराने के प्रतिष्ठित बीकानेर म्यूजिकल स्कूल जिसे गुणीजन खाना के नाम से भी जाना जाता था, में भरती करवा दिया। उस समय बीकानेर का यह गुणीजन खाना शिक्षा के साथ संगीत की उत्तम तालीम के लिए अन्य रियासतों की तुलना में अधिक श्रेष्ठ माना जाता था।
बीकानेर म्यूजिकल स्कूल उर्फ गुणीजनखाने की श्रेष्ठ गायिका रही अल्लाह जिलाई बाई ने अच्छन महाराज, लच्छु महाराज, अमीर खां, शमशुद्दीन एवं शिब्बू महाराज से राग मांड, दादरा, ठुमरी तथा नृत्य की बारीकियां सीखीं। संगीत शिक्षा के दौरान उन्हें मासिक वजीफा और सप्ताह में एक दिन राजदरबार में गायकी के कौशल दिखाने का अवसर भी मिलता था।
आजादी के बाद राज्याश्रय से आजाद हुई अल्लाह जिलाई बाई की गायकी पिछले चार-पांच दशक से श्रोताओं के दिलों पर छाई हुई है। शास्त्रीय आधार पर गांठ, चौताला, झूमरा, अर्द्धा आदि कठिन तालों में लोक गीत गाने वाली इस कलाकार की गायकी में ख्याल एवं गजल शैली का अनूठा मेल दृष्टिगोचर होता है। संगीत सागर में डूब कर गाने वाली अल्लाह जिलाई बाईजिलाई बाई ने मई 1987 में लन्दन के अल्बर्ट हॉल में अपनी गायकी से देशी-विदेशी श्रोताओं के दिल पर गहरी छाप छोड़ी। ढलती उम्र में भी उनके स्वरों के जादू को आज भी देश-विदेश के श्रोता अपने जहन में रखे हुए हैं। लन्दन में आयोजित इस कार्यक्रम का पूरे यूरोप में सीधा प्रसारण किया गया।
29 दिसम्बर, 2003 को 5/- डाकटिकट जारी किया गया। इनका जन्म बीकानेर 1902 ई., जबकि मृत्यु – 1992 ई. में हुई।इनके गुरु
गुरू – उस्ताद हुसैन बक्श थे।
इन्हें 2012 ई. – राजस्थान रत्न मिला। बीकानेर महाराजा गंगासिंह ने इसे राजगायिका बनाया।
प्रमुख गीत गीत
- केसरिया बालम. (सर्वाधिक बार गाया)
- काली-काली काजलिए री रेख..
- बाईसा रा वीरा..
- झालौ दियो न झाय.
- म्हानै पिहरीये ले चालौसा
इंतकाल तक रेडियो एवं दूरदर्शन से प्रसारित विभिन्न गायकों की गायकी को गहराई से आत्मसात करने वाली अल्लाल जिलाई बाई को 20 मई, 1982 को तत्कालीन राष्ट्रपति श्री नीलम संजीव रेड्डी ने ‘पद्मश्री’ से सम्मानित किया। राजस्थानी लोक संस्कृति की समर्पित साधना कर निष्ठा से सफलता के उच्चतम शिखर स्पर्श करने वाली इस कलाकार को 15 मई’ 82 को ‘राजस्थान श्री’ का सम्मान मिला। इसके अलावा महाराणा मेवाड़ फाउण्डेशन ने भारतीय परिवेश में शास्त्रीय संगीत एवं नृत्य तथा राजस्थानी लोक गीत के क्षेत्र में अर्जित उपलब्धियों पर अल्लाह जिलाई बाई को ‘डागर घराना’ पुरस्कार प्रदान किया। लोक संगीत की इस कला साधिका को राजस्थान संगीत नाटक अकादमी ने 1975 में, भारतीय लोक कला मण्डल, उदयपुर ने 27 फरवरी, 1978 को तथा पर्यटन कला एवं संस्कृति विभाग द्वारा 26 अक्टूबर, 1988 को सम्मानित किया गया।
संगीत की दुनिया में खोई रहने वाली इस कलाकार ने अपना अन्तिम कार्यक्रम राजस्थान दिवस पर 31 मार्च, 1989 को बीकानेर के टाउन हॉल में दिया। कार्यक्रम में साक्षी बने लोग आज भी वो शाम याद करते हैं। इस शाम में उन्होंने अपनी प्रिय राग मांड का ऐसा समा बांधा कि श्रोताओं ने संगीत की सरहदों को छू लिया। इस शाम की खासियत यह थी कि लोक गीतों के लिए मशहूर बीकानेर की इस गायिका ने न केवल मीरा के भजन सुनाए बल्कि गालिब की गजल भी बखूबी गाई।
बीकानेर में 3 नवम्बर, 1992 को सबके बालम अल्लाह के घर सदा के लिए कूच कर गई श्रीमती अल्लाह जिलाई बाई के बारे में सुप्रसिद्ध मरहूम शायर मस्तान साहब की नज्म का मिसरा सदा प्रासंगिक रहेगा ‘आफताबे मौसेकी को खुद है तेरी जुस्तजू’ ।