हिमाचल डायरीज: ‘पर्वत की पुकार’
ऊंचाइयों की चाह में धरती के जख्म ना देखना
चढ़के पर्वत की चोटी बजरी के कणों का पत्थर सा होना
और घिस घिस के रेत हो जाना
हिमालय को देखो कितना तन्मय होके खड़ा है जैसे कोई सिपाही तैनात हो
सदियों से खड़ा है वो
बांध के हाथ को पीछे तान के सीना
पर यह क्या आज हुआ
उसकी छाती चीर के बना दी अटालिकाएं
वो उल्टियां करता है प्लास्टिक के कचरे की
आंख उसकी नम है, बेमौसम की बारिश हो
या जमीन का धंस के नीचे आना
वो बदस्तूर खड़ा है सदियों से
शायद वो दिन आए जब इंसान उसकी चौकसी को उसकी नादानी ना समझे
उसकी पहरेदारी, उसके छुपे हाथ, साइबेरिया की बर्फ़ीली हवाओं को रोकते हैं
मानव को आलिंगनबध करने को आतुर है
पर मानव की अतिविकासवाद की जुस्तजू ने उसे
मजबूर किया है
धकेलने उसको अपने पहाड़ी आबोहवाओं से
वो चाहता है तू आबोहवा महसूस कर
तू पहाड़ों की गोद में समाए
पर उसके कलेजे को ना चीरे
क्या तुम्हें मालूम है ऊपर जाने का प्रक्रम
ऊपर जाने की होड़ में कितना छोटा रह जाता है मानव
ज़मीन से नजर ही नहीं आता
तेरी हसरतों की ख्वाहिश में, तू पर्वत के गुमान को ना मिटा
यह मुझे कुचलने के तेरे पांव के निशान खत्म नहीं होंगे
तूने अमिट छाप छोड़ी है
तूने मेरे मस्तिष्क को काट के धड़ से अलग कर दिया
क्या तुझे इमकान है कोई कैसे बिना मस्तिष्क के रहता होगा
कहीं यह भू स्खलन की वजह तो नहीं, मैं कैसे सोचूं
तुमने मेरे अभिमान को ही महत्वहीन कर दिया
फिर मुझे मत कहना कि यह पर्वतों की त्रासदी है
अखबारों की सुर्खियों में मुझे बदनाम मत करना
मैं अपनी जगह अडिग खड़ा हूं
मुझे तुमसे मेहमान नवाजी का शोक नहीं
मैं तुम्हारी दहलीज तक आता नहीं
फिर तुम्हें क्यों नहीं है वो सीख
तुम कैसे चले आए मेरे घर
और मेरे परिवार के मुखिया ही बन गए
मुझ में समायी वो गंगा की बनी कंदरा हो या गोखुर झीलें
क्या तुम्हें नहीं लगता मैंने तुम्हें क्या नहीं दिया
एक पर्वत पिता के रूप में
और तुमने क्या लोटाया मुझे
तुम्हें नहीं लगता मुझे भी जरूरत है चर्मरोग विशेषज्ञ की
तुमने तो मेरी मिट्टी रूपी त्वचा ही छिल के रख दी
फिर तुम किसी दिन किसी लेख में लिखोगे
आज अपरदन हो गया
आज फिर पर्वत अपना आपा खो गया
फिर कहोगे तुम कि तुम्हें हसरत है पानी की
प्यास से गला सूख रहा है
मैं कैसे रोक पाऊंगा बारिशों के रुख को
तुमने मुझे कितना बौना कर दिया
क्या तुम्हें पता है मेरा परिधान
में क्या पहना हूं, मैं हरित वस्त्र पहना करता था
देवदार, चीड, स्प्रूष और फर
मैं भी इंसानी दूल्हे की तरह सजाता था साफा ओक और लाईकेन का
और आज मैं यह मटमैली बंजर मिट्टी की लुंगी पहने खड़ा हूं
यह तुमने क्या किया करके मुझे अर्धनग्न
अपनी किताबत में विकास की बात लिख दी
क्या तुम्हें पता है विकास कैसा दिखता है
बिना प्रकृति के, बिना पर्यावरण के, कैसी होती है दुनिया
फिर तुम मुझे मत कहना यदि तुम्हें सर्दी में गर्मी, गर्मी में बारिश और बारिस में सर्दी का दौर देखने को मिले
यह जो तुम चल पड़े हो काली काली डामर की लकीरें खींचने मेरे मेरी देह पर
मुझे बदनाम करने
क्या तुम्हें पता है यह कितना अनैतिक है
भूस्खलन, अतिवृष्टि की कालिख तुम्हारी तुमने मेरे मुंह पर पोत दी
पर कभी देखना तुम्हारा जब सांस लेने को इमारतों में दम घुटने लगे
तुम खींचे चले आओ मेरी तरफ
पर तुम्हें क्या लगता है तुम मेरे पास आके खुश रहोगे ?
तुम्हें प्राणवायु मिलेगी ?
तब तो शायद मैं भी वेंटिलेटर पर मिलूं अपनी अंतिम सांस गिनता हुआ
लेकिन मेरा वादा है मिलेंगे हम दोनों यदि तुम रख पाए मुझे जिंदा
तो मैं भी बख़्श सकूंगा चंद सांसे
चलो चलता हूं मेरे पहरे का वक्त हो गया
वो पूर्वांचल की पहाड़ियां, वो नोकरेक पुकार रही है नीलगिरी से मिलने
पर तुम्हे नहीं लगता यह उतना ही असंभव है जितना तुम्हारा प्रकृति के बिना विकास करना
पेड़ काटकर उसी का अखबार बनाके यह लिखना कि
‘आज पर्यावरण दिवस है, सभी पेड़ लगाए’
– उमा व्यास (एसआई, राज.पुलिस)
कार्यकर्ता, श्री कल्पतरु संस्थान