लाहौर जेल में मौत को गले लगाने वाले आजादी के दीवाने क्रांतिकारी शहीद जतीन्द्रनाथ दास धर्मपाल गाँधी
लाहौर जेल में मौत को गले लगाने वाले आजादी के दीवाने क्रांतिकारी शहीद जतीन्द्रनाथ दास धर्मपाल गाँधी

लाहौर जेल में मौत को गले लगाने वाले आजादी के दीवाने क्रांतिकारी शहीद जतीन्द्रनाथ दास धर्मपाल गाँधी : स्वतंत्रता संग्राम के दौरान देश की आजादी के लिए नौजवान क्रांतिकारियों ने अपनी जान की बाजी लगा दी थी, उन्हीं में से एक नाम क्रांतिकारी जतीन्द्रनाथ दास का भी है। आजादी के दीवाने जतीन्द्रनाथ दास शहीद भगत सिंह के साथी थे। उन्हीं के द्वारा बनाए गए बम भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने दिल्ली की असेंबली में फेंके थे। बाद में तकरीबन सभी क्रांतिकारियों को ब्रिटिश हुकूमत ने गिरफ्तार कर लाहौर जेल में डाल दिया था। लाहौर जेल में ही जतीन्द्रनाथ दास ने अपने क्रांतिकारी साथियों और भगत सिंह के साथ मिलकर भूख हड़ताल शुरू की थी। भूख हड़ताल के 63 दिन बाद महान क्रांतिकारी जतीन्द्रनाथ दास ने जेल में ही मौत को गले लगाते हुए देश की आजादी के लिए सर्वोच्च से बलिदान दिया।
जतीन्द्रनाथ दास उर्फ जतिन दास भारत के प्रसिद्ध क्रांतिकारियों में से एक थे, वह बम बनाने में एक्सपर्ट थे। वे नेताजी सुभाष चंद्र बोस के साथ कांग्रेस सेवा दल के सदस्य थे और क्रांतिकारी दल हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के भी सदस्य थे। 8 अप्रैल 1929 को दिल्ली असेंबली बम कांड के बाद उन्हें 14 जून 1929 को गिरफ्तार कर लिया गया और सरदार भगत सिंह, बटुकेश्वर दत्त व अन्य क्रांतिकारियों के साथ ‘लाहौर षड्यंत्र केस’ में उन पर मुकदमा चलाया गया। कैदियों के साथ दुर्व्यवहार के विरोध में लाहौर सेंट्रल जेल में रहते हुए उन्होंने सरदार भगत सिंह व अन्य क्रांतिकारियों के साथ भूख हड़ताल शुरू की। अनशन के 63वें दिन उन्होंने जेल में ही प्राण त्याग दिये और मात्र 24 वर्ष की उम्र में देश की आजादी के लिए शहीद हो गये।
अमर शहीद जतीन्द्रनाथ दास का जन्म 27 अक्टूबर 1904 को कलकत्ता ब्रिटिश भारत में एक साधारण बंगाली परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम बंकिम बिहारी दास और माता का नाम सुहासिनी देवी था। जतीन्द्रनाथ नौ वर्ष के थे, तभी उनकी माता का स्वर्गवास हो गया। 16 वर्ष की उम्र में 1920 में जतीन्द्रनाथ ने मैट्रिक की परीक्षा पास की। जब जतीन्द्रनाथ अपनी आगे की शिक्षा पूर्ण कर रहे थे, तभी महात्मा गाँधी ने ‘असहयोग आन्दोलन’ प्रारम्भ कर दिया। जतीन्द्रनाथ भी युवावस्था में इस आन्दोलन में कूद पड़े। विदेशी कपड़ों की दुकान पर धरना देते हुए वे गिरफ़्तार कर लिये गये। उन्हें 6 महीने की सज़ा हुई। लेकिन जब चौरी-चौरा की घटना के बाद गाँधीजी ने आन्दोलन वापस ले लिया तो निराश जतीन्द्रनाथ ने आगे की पढ़ाई पूरी करने के लिए कॉलेज में एडमिशन ले लिया। कॉलेज का यह प्रवेश जतीन्द्रनाथ के जीवन में निर्णायक सिद्ध हुआ। एक युवक के माध्यम से जतीन्द्रनाथ प्रसिद्ध क्रान्तिकारी शचीन्द्रनाथ सान्याल के सम्पर्क में आये और क्रांतिकारी दल ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ के सदस्य बन गये। अपने सम्पर्कों और साहसपूर्ण कार्यों से उन्होंने दल में महत्त्वपूर्ण स्थान बना लिया और अनेक क्रांतिकारी कार्यों में भाग लिया। इस बीच जतीन्द्रनाथ ने बम बनाना भी सीख लिया था। 1925 में जतीन्द्रनाथ को ‘दक्षिणेश्वर बम कांड’ और ‘काकोरी कांड’ के सिलसिले में गिरफ़्तार किया गया, किन्तु प्रमाणों के अभाव में मुकदमा न चल पाने पर वे नज़रबन्द कर लिये गये।
जेल में दुर्व्यवहार के विरोध में उन्होंने 21 दिन तक जब भूख हड़ताल कर दी तो बिगड़ते स्वास्थ्य को देखकर सरकार को उन्हें रिहा करना पड़ा। जेल से बाहर आने पर जतीन्द्रनाथ दास ने अपना अध्ययन और राजनीति दोनों काम जारी रखे। 1928 के ‘कलकत्ता कांग्रेस अधिवेशन’ में वे ‘कांग्रेस सेवादल’ में नेताजी सुभाषचंद्र बोस के सहायक थे। वहीं पर उनकी मुलाकात सरदार भगत सिंह से हुई। अंग्रेज अधिकारी सांडर्स की हत्या के बाद सरदार भगत सिंह क्रांतिकारी दुर्गा भाभी के साथ कलकत्ता आ गये थे। भगवती चरण वोहरा के साथ उन्होंने भेष बदलकर कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में भाग लिया। यहां पर सरदार भगत सिंह ने बंगाल के कई क्रांतिकारियों से मुलाकात की और उन्हें हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन से जुड़ने के लिए प्रेरित किया। सरदार भगत सिंह के अनुरोध पर जतीन्द्रनाथ दास बम बनाने के लिए आगरा चले गये। 8 अप्रैल 1929 को सरदार भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने जो बम केन्द्रीय असेम्बली में फेंके, वे उन्हीं के द्वारा बनाये हुए थे। 14 जून 1929 को जतीन्द्रनाथ गिरफ़्तार कर लिये गये और उन पर ‘लाहौर षड़यंत्र केस’ में मुकदमा चलाया गया। जेल में क्रांतिकारियों के साथ राजबन्दियों के समान व्यवहार न होने के कारण क्रांतिकारियों ने 13 जुलाई 1929 से आमरण अनशन आरम्भ कर दिया। जतीन्द्रनाथ भी इसमें सम्मिलित हुए। उनका कहना था कि एक बार अनशन आरम्भ होने पर हम अपनी मांगों की पूर्ति के बिना उसे नहीं तोड़ेंगे। अपनी भूख हड़ताल शुरू करने से पहले, जतीन्द्रनाथ दास ने अपने सहयोगियों से कहा कि भूख हड़ताल भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ एक ऐसी लड़ाई है, जो इंच दर इंच मौत फाँसी पर मरने से ज्यादा कठिन है।
जतीन्द्रनाथ दास ने कहा-
इस भूख हड़ताल की घोषणा करके, हम अपने आप को एक ऐसी लड़ाई में शामिल कर रहे हैं, जिसे लड़ना मुश्किल होगा, यहां तक कि गोलीबारी से भी कठिन। इंच दर इंच रेंगना गोलियों से मौत या फाँसी से मौत मिलने से ज्यादा कठिन है। लड़ाई शुरू करने के बाद पीछे हटना क्रांतिकारियों की गरिमा के खिलाफ होगा। आधे रास्ते में वापस जाने की तुलना में लड़ाई में शामिल न होना बेहतर है।”
अनशन पर बैठे क्रांतिकारियों द्वारा लाहौर जेल में यूरोप के कैदियों के साथ भारतीय राजनीतिक कैदियों के लिए समानता की माँग की गई। जेल में भारतीय कैदियों की स्थिति दयनीय थी। जेल में भारतीय कैदियों को जो वर्दी पहनने के लिए दी जाती थी, उसे कई दिनों तक नहीं धोया जाता था और रसोई क्षेत्र में चूहे और तिलचट्टे घूमते रहते थे, जिससे भोजन खाने के लिए असुरक्षित हो जाता था। भारतीय कैदियों को न तो अखबार जैसी कोई पढ़ने की सामग्री दी जाती थी और न ही लिखने के लिए कागज। एक ही जेल में ब्रिटिश कैदियों की स्थिति बिल्कुल अलग थी। अपनी माँगों को लेकर जतीन्द्रनाथ दास के नेतृत्व में क्रांतिकारियों ने अनशन जारी रखा। राजगुरु, सुखदेव, बटुकेश्वर दत्त, भगत सिंह आदि सभी क्रांतिकारियों ने भूख हड़ताल में भाग लिया। अनशन तुड़वाने के लिए जेल अधिकारियों ने उनके सामने अच्छा खाना भी पेश किया, लेकिन उन्होंने खाने से इंकार कर दिया। कुछ समय के बाद जेल अधिकारियों ने नाक में नली डालकर बलपूर्वक अनशन पर बैठे क्रांतिकारियों के के पेट में दूध डालना शुरू कर दिया। जतीन्द्रनाथ को 21 दिन के पहले अपने अनशन का अनुभव था। उनके साथ यह युक्ति काम नहीं आई। नाक से डाली नली को सांस से खींचकर वे दांतों से दबा लेते थे। अन्त में पागलखाने के एक डॉक्टर ने एक नाक की नली दांतों से दब जाने पर दूसरी नाक से नली डाल दी, जो जतीन्द्रनाथ के फेफड़ों में चली गई।
उनकी घुटती साँस की परवाह किये बिना उस डॉक्टर ने काफी दूध उनके फेफड़ों में भर दिया। इससे उन्हें निमोनिया हो गया। इसके बाद कर्मचारियों ने उन्हें धोखे से बाहर ले जाना चाहा, लेकिन जतीन्द्रनाथ अपने साथियों से अलग होने के लिए तैयार नहीं हुए। जतीन्द्रनाथ ने कहा इस अनशन में या तो हमारी जीत होगी या फिर मौत। जेल प्रशासन ने उन्हें और अन्य स्वतंत्रता कार्यकर्ताओं को जबरन खाना खिलाने के कई उपाय किये, लेकिन सफल नहीं हो पाये। अंततः, जेल प्राधिकरण ने उनकी बिना शर्त रिहाई की सिफारिश की, लेकिन सरकार ने सुझाव को खारिज कर दिया। यह देखकर जेल प्रशासन ने उनके छोटे भाई किरणचंद्र दास को उनकी देखरेख के लिए बुला लिया; पर जतिंद्रनाथ दास ने उसे इसी शर्त पर अपने साथ रहने की अनुमति दी कि वह उनके संकल्प के बीच नहीं आयेगा। इतना ही नहीं, यदि उनकी बेहोशी की अवस्था में जेल अधिकारी कोई खाना, दवा या इंजैक्शन देना चाहें, तो वह ऐसा नहीं होने देगा।
हड़ताल का 63वाँ दिन था। बताया जाता है कि उस दिन जतिन दास के चेहरे पर एक अलग ही तेज था। उन्होंने सभी साथियों को साथ में बैठकर गीत गाने के लिए कहा। अपने छोटे भाई को पास में बैठाकर खूब लाड़ किया। उनके एक साथी विजय सिन्हा ने उनका प्रिय गीत ‘एकला चलो रे’ और फिर ‘वन्देमातरम्’ गाया। गीत पूरा होते ही संकल्प के धनी जतीन्द्रनाथ दास का सिर एक ओर लुढ़क गया। एक महान क्रांतिकारी इस दुनिया से विदा हो गया। वह दिन था 13 सितंबर 1929 और सिर्फ 24 साल की उम्र में भारत माँ का यह सच्चा सपूत अपने देश के लिए कुर्बान हो गया। हालांकि, अंग्रेजों ने खूब चाहा कि जतीन्द्रनाथ की मौत का ज्यादा तमाशा न बनें और उन्होंने हर संभव प्रयास किया कि उनका अंतिम-संस्कार आनन-फानन में कर के यह किस्सा खत्म किया जाये। उन्होंने ट्रेन से उनके पार्थिव शरीर को कलकत्ता रवाना किया। पर देश की एक और वीरांगना थी, जिसने जतिंद्रनाथ दास की मौत को जाया ना जाने दिया। ये थीं महान क्रांतिकारी दुर्गा भाभी, जिन्होंने जेल से बाहर आने के बाद जतीन्द्रनाथ की शव-यात्रा का कलकत्ता तक नेतृत्व किया। हर एक स्टेशन पर ट्रेन रोकी गयी। हर जगह लोगों ने जुलुस निकाला और इस स्वतंत्रता सेनानी के दर्शन किये।
कानपुर में पंडित जवाहरलाल नेहरू और गणेश शंकर विद्यार्थी के नेतृत्व में लाखों लोगों ने महान क्रांतिकारी के अंतिम दर्शन कर श्रद्धांजलि अर्पित की। हावड़ा में नेताजी सुभाष चंद्र बोस के नेतृत्व में पचास हजार से ज्यादा लोग महान क्रांतिवीर के अंतिम दर्शनों के लिए खड़े थे। हावड़ा रेलवे स्टेशन पर नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने जतीन्द्रनाथ दास का ताबूत प्राप्त किया और अंतिम संस्कार जुलूस को शमशान घाट तक ले गये। महान देशभक्त आत्मबलिदानी जतीन्द्रनाथ दास के अंतिम संस्कार में लाखों लोगों ने भाग लिया। जतिन दास की मौत से अंग्रेज प्रशासन हिल गया। जेल प्रशासन ने फौरन क्रांतिकारियों की माँगें मान ली। देश भर में अंग्रेजी हुकूमत की भारी आलोचना हुई। पंडित मोतीलाल नेहरू की अगुवाई में कांग्रेस ने सेंट्रल असेंबली में कैदियों के साथ दुर्व्यवहार का मुद्दा उठाया। महात्मा गाँधी, पंडित जवाहरलाल नेहरू और नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने सरकार की जमकर आलोचना की। जतिन दास का बलिदान व्यर्थ नहीं गया। उनकी इस शानदार अहिंसात्मक शहादत का उल्लेख पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में किया है।
जतिन दास की शहादत के बाद, वायसराय ने लंदन को सूचित किया कि “लाहौर षड्यंत्र केस के जतीन्द्रनाथ दास, जो भूख हड़ताल पर थे, उनकी आज 13 सितंबर 1929 को दोपहर 1 बजे मृत्यु हो गई। कल रात पाँच भूख हड़ताल करने वालों ने अपनी भूख हड़ताल छोड़ दी। अब केवल भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ही हड़ताल पर हैं।”
देश के लगभग हर नेता ने जतीन्द्रनाथ की मृत्यु पर शोक जताया और श्रद्धांजलि अर्पित की। मोहम्मद आलम और गोपीचंद भार्गव ने विरोध में पंजाब विधान परिषद् से इस्तीफा दे दिया। पंडित मोतीलाल नेहरू ने लाहौर कैदियों की अमानवीयता के खिलाफ निंदा के रूप में केंद्रीय विधानसभा के स्थगन का प्रस्ताव रखा। निंदा प्रस्ताव 47 के मुकाबले 55 वोटों से पारित हुआ। जवाहरलाल नेहरू ने कहा, “भारतीय शहीदों की लंबी और शानदार सूची में एक और नाम जुड़ गया है। आइए हम शहीदों के सम्मान में सिर झुकाएं और संघर्ष जारी रखने के लिए शक्ति की प्रार्थना करें, चाहे यह संघर्ष कितना भी लंबा हो।” चाहे परिणाम कुछ भी हो, जब तक हमारी जीत नहीं हो जाती, संघर्ष जारी रहेगा।”
नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने प्रसिद्ध पौराणिक योगी दधीचि का जिक्र करते हुए जतीन्द्रनाथ दास को “भारत के युवा दधीचि ” के रूप में वर्णित किया, जिन्होंने एक राक्षस को मारने के लिए अपने जीवन का बलिदान दिया था। जतिन दास की शहादत के 50 साल पूरे होने पर भारत सरकार के डाक विभाग ने उनकी याद में एक डाक टिकट जारी किया है। महान क्रांतिकारी शहीद जतीन्द्रनाथ दास को उनके बलिदान दिवस पर आदर्श समाज समिति इंडिया परिवार नमन करता है। धर्मपाल गाँधी अध्यक्ष आदर्श समाज समिति इंडिया