संविधान सभा में एकमात्र दलित महिला थी स्वतंत्रता सेनानी दक्षयानी वेलायुधन – धर्मपाल गाँधी, लेखक

दक्षयानी वेलायुधन एक भारतीय राजनीतिज्ञ, शोषित वर्गों की नेता, क्रांतिकारी महिला, स्वतंत्रता सेनानी, प्रथम दलित महिला स्नातक, महिला सशक्तिकरण की प्रतीक और संविधान सभा में सबसे युवा और एकमात्र दलित महिला थी। संविधान सभा में उनकी उपस्थिति क्रांतिकारी से कम नहीं थी। उन्होंने हाशिए पर पड़े समुदायों के अधिकारों की जोरदार वकालत की, सामाजिक न्याय, सांप्रदायिक सद्भाव, आर्थिक उत्थान, मानवीय गरिमा, लैंगिक समानता और जाति उन्मूलन के लिए अथक प्रयास किये। वह एक साहसी, निडर और क्रांतिकारी महिला थीं। दक्षयानी वेलायुधन ने जातिगत बाधाओं को ध्वस्त करते हुए स्वतंत्र भारत की दिशा निर्धारित करने में अग्रणी भूमिका निभाई। दक्षयानी वेलायुधन का जन्म दक्षिण भारत के पुलाया समुदाय में हुआ था, जो घोर जातिगत भेदभाव का शिकार था। पुलाया समाज की महिलाओं को ज्यादा ही भेदभाव का सामना करना पड़ता था। उन्हें सड़क पर चलने और सार्वजनिक कुएं से पानी भरने की आजादी नहीं थी। पुलाया समाज की महिलाएं ऊपरी वस्त्र नहीं पहन सकती थीं। उस समाज और समय में वे विद्रोह की प्रतीक तथा न्याय, गरिमा, बंधुता, समानता, समता जैसे संवैधानिक मूल्यों की प्रहरी बनींं। दक्षयानी वेलायुधन ने वर्षों से चली आ रही कुप्रथा के ख़िलाफ़ खड़े होने का साहस दिखाया। वह अपने समाज की पहली महिला थी, जिसने कमर के ऊपर कपड़ा पहना और शिक्षित होकर भारत के संविधान निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। भारतीय इतिहास के पन्नों में दक्षयानी वेलायुधन जैसी चमक बहुत कम लोगों में देखने को मिलती है। एक ऐसी क्रांतिकारी महिला जिसने सामाजिक मानदंडों को चुनौती देते हुए देश के लोकतांत्रिक ढांचे में अपना नाम दर्ज कराया। सामाजिक न्याय और दलित सशक्तिकरण के लिए अथक योद्धा रहीं दक्षयानी का योगदान पीढ़ी दर पीढ़ी प्रेरित करता रहेगा।

दक्षयानी वेलायुधन का जन्म 4 जुलाई 1912 में कोचीन के बोलपट्टी द्वीप पर एर्नाकुलम जिले के कनयन्नूर तालुका के मुलवुकाड गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम कुंजन था। दक्षयानी का जन्म दलित समाज से ताल्लुक रखने वाले पुलाया समाज में हुआ था। उस दौर में पुलाया समाज पर तरह-तरह की पाबंदियां लगी हुई थी। पुलाया समाज के पुरुष और महिलाएं अपने शरीर के ऊपरी हिस्से पर कपड़े नहीं पहन सकते थे। सभी महिलाएं अर्ध-नग्न रहती थीं, उन्हें स्तन ढकने का भी अधिकार नहीं था। पुलाया समाज के लोग अपने बाल नहीं कटवा सकते थे। उन्हें स्कूलों में जाने की अनुमति नहीं थी। उन पर मुख्य रास्तों और सड़क पर चलने की पाबंदी थी। उन लोगों पर सार्वजनिक स्थलों पर खड़े होने और बाजार में जाने की पाबंदी थी। उन्हें चुपचाप दूर जाना पड़ता था और एक ऊंची जाति के लिए रास्ता बनाना पड़ता था। वे अस्पतालों में प्रवेश नहीं कर सकते थे। वे अछूत और अगम्य थे। उन लोगों की गतिविधियों पर हिंसक, क्रूर भेदभावपूर्ण नियमों का प्रभाव था, जिसके तहत पुलाया समाज को ऊंची जाति के लोगों से कई कदम की दूरी बनाए रखना पड़ता था। उन पर यह पाबंदियां अंग्रेजों द्वारा नहीं लगाई गई, बल्कि यहां के क्रूर लोगों द्वारा लगाई गई थी। दक्षयानी बदलाव की संतान थी। वह एक ऐसे देश में बड़ी हो रही थी, जो कट्टरपंथी सामाजिक आंदोलनों से जूझ रहा था। 20वीं सदी की शुरुआत में केरल के समाज में उथल-पुथल ने उसके जीवन को परिभाषित और आकार दिया। उसके जन्म से पहले ही, केरल के दो सबसे बड़े समाज सुधारकों, श्री नारायण गुरु और अय्यंकाली ने ऐसे आंदोलन शुरू कर दिए थे, जो केरल के ज़हरीले जातिवादी समाज को खत्म करने की ओर अग्रसर थे। उन्होंने सविनय अवज्ञा आंदोलन का आयोजन किया, जिसने दलित वर्गों के लिए आवागमन और स्कूल में प्रवेश पर प्रतिबंधों को चुनौती दी। उन्होंने सत्याग्रह मार्च का आयोजन किया और महिलाओं और पुरुषों को उनके निम्न वर्ग के संकेत के रूप में उन पर लगाए गए प्रथाओं को त्यागने के लिए प्रोत्साहित किया। प्रतिबंधों में उच्च वर्ग के लिए चिह्नित सड़कों पर चलना, उच्च वर्ग के सामने सिर झुकाकर चलना, जाति को दर्शाने के लिए हार पहनना और बहुत कुछ शामिल था। पुलाया समुदाय से ताल्लुक रखने वाली दक्षयानी वेलायुधन शिक्षित होने वाली पहली पीढ़ी के लोगों में से थीं। वह अपने समुदाय की पहली महिला थीं, जिसने बरसों से चली आ रही कुप्रथा के ख़िलाफ़ खड़े होकर शरीर के ऊपरी हिस्से पर कपड़ा पहना और पढ़ने के लिए स्कूल जाने का साहस दिखाया। उन्होंने भारत में पहली अनुसूचित जाति की महिला स्नातक होने का गौरव हासिल किया। दक्षयानी अपने समाज की ऊपरी वस्त्र पहनने वाली पहली महिला थी, जो दलित महिलाओं की गरिमा को छीनने वाली जातिवादी परंपरा के ख़िलाफ़ एक सरल लेकिन शक्तिशाली विद्रोह था। यह साहसिक दावा सिर्फ एक व्यक्तिगत बयान से कहीं ज्यादा था, यह एक शक्तिशाली सामाजिक कार्य था, जिसने सदियों से चले आ रहे व्यवस्थागत उत्पीड़न और जातिगत हिंसा को चुनौती दी। इसके जरिए, उन्होंने बड़े पैमाने पर भेदभाव के दौर में शारीरिक स्वायत्तता और मानवीय गरिमा के दावे का प्रतीक बनाया।दक्षयानी के नाम से कई विशिष्ट उपलब्धियां जुड़ी हुई हैं; जिनमें कोचीन विधान परिषद की सदस्य और भारत की संविधान सभा की सबसे युवा महिला सदस्यों में से एक होना शामिल है। उन्होंने 1935 में विज्ञान वर्ग से बीएससी की डिग्री हासिल की और तीन साल बाद मद्रास विश्वविद्यालय से शिक्षक प्रशिक्षण पाठ्यक्रम पूरा किया। उनकी पढ़ाई कोचीन राज्य सरकार की छात्रवृत्ति से समर्थित थी। 1935 से 1945 तक उन्होंने त्रिचूर के त्रिपुनिथुरा के सरकारी हाई स्कूलों में एक शिक्षिका के रूप में काम किया। इस दौरान वह महात्मा गांधी के संपर्क में आई और राष्ट्रीय आंदोलन का हिस्सा बन गई। वह जातिगत गुलामी को खत्म करने, सभी के लिए समानता और सार्वजनिक स्थानों के लोकतंत्रीकरण के लिए आंदोलनों में भाग लेती रहीं। यह विद्रोह, धैर्य और दृढ़ शक्ति उनके जीवन का एक बड़ा हिस्सा रही। दक्षयनी वेलायुधन के जीवन से कई ऐसी बातें जुड़ी हैं, जो पहली बार हुई हैं। सबसे पहले वह भारत की पहली दलित महिला स्नातक थीं। अपने समाज में कमर्शियल पर कपड़ा पहनने वाली पहली महिला थी। अपने राज्य की पहली महिला विधायक और भारत की संविधान सभा में एकमात्र दलित महिला थी।
दक्षयानी की शादी भी किसी क्रांति से कम नहीं थी। उन्होंने 1940 में गांधीजी के वर्धा आश्रम में रमन वेलायुधन से शादी की थी। रमन वेलायुधन पहली संसद के सदस्य थे। वे पूर्व राष्ट्रपति केआर नारायणन के चाचा भी थे। एक दलित लड़की दक्षयानी की शादी वर्धा आश्रम में महात्मा गांधी और कस्तूरबा गांधी की मौजूदगी में हुई। यह उस दौर में बहुत बड़ी बात थी। शादी की रस्म एक कुष्ठ रोगी द्वारा संपन्न करवाई गई।
दक्षयानी वेलायुधन के पांच सन्तान थी:- डॉ. रेघु (श्रीमती इंदिरा गांधी के डॉक्टर), प्रहलादन, ध्रुवन, भागीरथ और मीरा वेलायुधन। अपने संघर्ष के शुरुआती दिनों को याद करते हुए, दक्षयनी ने कहा था, “मैं कॉलेज में बीएससी केमिस्ट्री या किसी भी विज्ञान विषय के लिए एकमात्र छात्रा थी। उच्च शिक्षा प्राप्त करना ‘शुद्ध भाग्य’ था। (प्रयोगशाला में) एक उच्च जाति के शिक्षक ने मुझे प्रयोग नहीं दिखाए- मैंने दूर से देखकर चीजें सीखीं और 1935 में उच्च द्वितीय श्रेणी के साथ स्नातक की उपाधि प्राप्त की। जुलाई 1935 में, मुझे त्रिचूर जिले के पेरिंगोथिकारा हाई स्कूल में एल-2 शिक्षक के रूप में नियुक्त किया गया।” ऐसी कठोर वास्तविकताओं का सामना करना महत्वपूर्ण है, जिनका सामना देश भर में दलितों को अभी भी करना पड़ रहा है। दलित महिलाओं के संघर्ष और उत्थान के प्रति बौद्धिक जिज्ञासा पैदा करने के लिए दक्षयानी वेलायुधन के जीवन और संघर्ष का अध्ययन किया जाना चाहिए। दलित आंदोलन आज गलत तरीके से अतीत में अटका हुआ है। संविधान को एक बुनियादी दस्तावेज के रूप में देखते हुए, देश भर के दलितों को भारत में स्वामित्व की भावना होनी चाहिए, न केवल अंबेडकर के योगदान के कारण बल्कि दक्षयानी वेलायुधन, बाबू जगजीवन राम और कई अन्य नेताओं की कड़ी मेहनत के कारण भी, जिन्होंने दलितों के लिए एक सुरक्षित, संरक्षित और सुनहरा भविष्य सुनिश्चित किया।
दलित समुदाय और अपने परिवार के भीतर प्रतिरोध के ये क्षण इस बात के लिए भी जिम्मेदार हो सकते हैं कि उन्होंने दुनिया में खुद को कैसे स्थापित किया। दक्षयानी के मामा और बड़े भाइयों ने जातिवाद के खिलाफ़ पुलाया महाजन सभा का नेतृत्व किया। अपने अनुभवों व समाज और अपनी जाति के साथ संबंधों को लिखते हुए, उन्होंने लिखा, “बोलघाटी में समुद्र में बंधी देशी नावों के साथ बैठक आयोजित की गई थी- समुद्र की कोई जाति नहीं होती। कोच्चि में, महाराजा ने अछूतों को ‘ज़मीन पर’ बैठक आयोजित करने की अनुमति नहीं दी थी। मछुआरों की मदद और समर्थन से बड़ी संख्या में कटमरैन को एक साथ जोड़कर बेड़ा बनाया गया था।” यह केरल में बैकवाटर्स पर प्रसिद्ध बैठक बन गई, दक्षयानी ने इसके बारे में विस्तार से लिखा था। उन्होंने आंदोलन के नाम पर अपनी जीवनी का नाम भी तय किया; ‘समुद्र की कोई जाति नहीं होती’।
दक्षयानी के जीवन में संघर्ष के बाद एक समय ऐसा आया जब वह अपने समाज के लिए समानता, न्याय और आत्मसम्मान की आवाज बन गई। यह वही समय था जब वह अपने समाज वंचित वर्ग के लिए कुछ कर सकती थी। यह मौका था, 1945 में दक्षयानी वेलायुधन को कोचीन विधान परिषद में राज्य सरकार द्वारा नामित किया गया। इसके बाद 1946 में उन्हें भारत की संविधान सभा के लिए चुना गया। 34 वर्षीय दक्षयानी वेलायुधन संविधान सभा की सबसे युवा सदस्य और एकमात्र दलित महिला थीं। संविधान सभा के 299 सदस्यों में कुल 15 महिलाएं थीं। सुचेता कृपलानी, सरोजिनी नायडू, राजकुमारी अमृत कौर, विजय लक्ष्मी पंडित, अम्मू स्वामीनाथन, कमला चौधरी, बेगम एजाज रसूल, लीला रॉय, हंसा मेहता, रेणुका रे, दुर्गाबाई देशमुख, पूर्णिमा बनर्जी, एनी मस्कारीन, मालती चौधरी आदि संविधान सभा के सदस्यों के साथ मिलकर दक्षयानी वेलायुधन ने संविधान को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। संविधान सभा में उनके प्रभावशाली भाषणों से सभी का ध्यान आकर्षित होता था। अपनी जाति के कारण कॉलेज में विज्ञान के प्रयोग में शामिल न हो पाने से लेकर संविधान सभा का हिस्सा बनने तक, दक्षयानी वेलायुधन ने अद्वितीय प्रतिरोध किया। संविधान सभा में अपने पहले भाषण में उन्होंने महात्मा गांधी को नमन करते हुए नए भारत के ‘हरिजनों’ के लिए अपनी आशा व्यक्त की। हालांकि, यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि महात्मा गांधी की कट्टर अनुयायी होने और ‘हरिजन’ शब्द का इस्तेमाल करने के बावजूद, उनका मानना था कि सिर्फ़ इस शब्दावली से अस्पृश्यता को खत्म नहीं किया जा सकता। उनके अनुसार, “स्वतंत्र समाजवादी भारतीय गणराज्य हरिजनों को स्वतंत्रता और समानता का दर्जा दे सकता है।” लेकिन जैसा कि उन्होंने देखा, इस समानता के लिए हरिजनों के आर्थिक उत्थान की आवश्यकता थी, जिनका ‘तथाकथित कम्युनिस्टों’ द्वारा शोषण किया जा रहा था। इस प्रकार, उनके अनुसार, आर्थिक उत्थान और नैतिक सुरक्षा उपायों के परिणामस्वरूप ‘हरिजन समुदाय’ का ‘सामाजिक’ उत्थान हो सकता था। यह केवल स्वतंत्र समाजवादी भारतीय गणराज्य में ही संभव था।
दक्षयानी का दृढ़ विश्वास था कि लोकतंत्र केवल संवैधानिक ग्रंथों में नहीं होना चाहिए, बल्कि लोगों के दैनिक जीवन में गहराई से समाहित होना चाहिए। संविधान सभा में कह गये उनके शब्द कार्रवाई के लिए शाश्वत आह्वान करते हैं:- “हमें यह सुनिश्चित करना है कि संविधान की भावना को न केवल कानून के शब्दों द्वारा संरक्षित किया जाए, बल्कि हमारे दैनिक जीवन में निरंतर अभ्यास द्वारा भी संरक्षित किया जाए।” यह भावना उनके इस विश्वास को रेखांकित करती है कि सच्ची समानता केवल एक कानूनी प्रावधान नहीं है, बल्कि एक जीवंत वास्तविकता है, जिसे निरंतर प्रयास और सचेत अभ्यास के माध्यम से विकसित किया जा सकता है।
एक तेजतर्रार वक्ता, दक्षयानी वेलायुधन का संविधान सभा में कार्यकाल दो उद्देश्यों से परिभाषित था। पहला उद्देश्य एक दस्तावेज तैयार करने से आगे बढ़कर भारत के लोगों को “जीवन का एक नया ढांचा” प्रदान करना था। दूसरा उद्देश्य अस्पृश्यता को अवैध और कानून द्वारा दंडनीय बनाने के अवसर का उपयोग करना था।
स्वतंत्र भारत के सभी निवासियों के लिए एक मजबूत, साझा राष्ट्रीय पहचान की अडिग समर्थक, उन्होंने अलग निर्वाचन क्षेत्र या आरक्षण का समर्थन नहीं किया। उनका मुख्य लक्ष्य जाति या समुदाय की बाधाओं से मुक्त भारत का निर्माण करना था। वे मानती थी कि दलितों को हरिजन या कुछ और नाम से पुकार लेने पर उनके कष्टों का समाधान नहीं होने वाला है। उन्हें न्याय, सम्मान, सुरक्षा और समान अवसर चाहिएं। संदर्भ है कि संविधान सभा की पहली बैठक में उन्होंने कहा था कि संविधान का कार्य इस बात पर निर्भर करेगा कि लोग भविष्य में किस तरह का जीवन जिएंगे। मैं आशा करती हूं कि समय के साथ ऐसा कोई समुदाय इस देश में न बचे, जिसे अछूत कहकर पुकारा जाए।
अगस्त 1947 में दिए गए एक भावुक भाषण में दक्षयानी वेलायुधन ने कहा:- “जब तक अनुसूचित जातियां, या हरिजन या उन्हें जिस भी नाम से पुकारा जाए, वे अन्य लोगों के आर्थिक गुलाम हैं, तब तक अलग निर्वाचन क्षेत्र या संयुक्त निर्वाचन क्षेत्र या इस तरह के प्रतिशत के साथ किसी अन्य प्रकार के निर्वाचन क्षेत्र की मांग करने का कोई मतलब नहीं है। व्यक्तिगत रूप से कहूं तो मैं किसी भी जगह किसी भी तरह के आरक्षण के पक्ष में नहीं हूं।”
गांधी और अंबेडकर दोनों की कट्टर अनुयायी होने के बावजूद, दाक्षयानी ने अपने विश्वासों के बल पर उन दोनों को चुनौती देने में कभी संकोच नहीं किया। उदाहरण के लिए, उन्होंने संविधान में सत्ता के अत्यधिक केंद्रीकरण के खिलाफ बात की और अधिक विकेंद्रीकरण की वकालत की। संविधान सभा और अंतरिम संसद सदस्य के रूप में अपने कार्यकाल के बाद के वर्षों में, दक्षयानी वेलायुधन धीरे-धीरे सक्रिय चुनावी राजनीति से दूर हो गईं और उन्होंने अपना शेष जीवन वंचित वर्ग के लोगों के उत्थान के लिए काम करने में समर्पित कर दिया। जाति की दीवार को ध्वस्त करने वाली एक अविश्वसनीय रूप से साहसी महिला, दक्षायनी वेलायुधन ने स्वतंत्र भारत की दिशा तय करने में अग्रणी भूमिका निभाई। उन्होंने न केवल दलित समुदाय बल्कि पूरे देश को दिखाया कि चाहे कितनी भी मुश्किलें क्यों न हों, अपनी जमीन पर अड़े रहना और अपना सिर ऊंचा रखना कितना महत्वपूर्ण है। विपरीत परिस्थितियों में हार न मानने वाली दृढ़ निश्चयी क्रांतिकारी महिला दक्षयानी ने किसी भी तरह के भेदभाव को अपने रास्ते में नहीं आने दिया। दक्षयानी ने यह सुनिश्चित करने के लिए भी काम किया कि अस्पृश्यता को समाप्त किया जाए, उन्होंने इस पर न केवल हतोत्साहित करने बल्कि इसे असंवैधानिक बनाने पर जोर दिया। उन्होंने दलित महिला के रूप में अपने अनुभवों से हाशिए पर पड़े समुदायों के संघर्षों को उजागर किया और ऐसे प्रावधानों के लिए जोर दिया जो सभी के लिए सामाजिक न्याय और सम्मान की गारंटी देंगे। उनके प्रयासों से, समानता, गैर-भेदभाव और सामाजिक न्याय जैसे मौलिक अधिकार भारत के संविधान का अभिन्न अंग बन गये। दक्षयानी वेलायुधन ने संविधान सभा में दलितों के लिए अलग निर्वाचन क्षेत्र को अस्वीकार कर दिया, इसके बजाय एकीकरण के लिए तर्क दिया। उन्होंने संविधान सभा में अपने भाषण में कहा, “अलग निर्वाचन क्षेत्र हमें केवल विभाजित करेंगे,” उन्होंने जोर देकर कहा कि भारत को एकता की जरूरत है, न कि अधिक विभाजन की। वह प्रतीकात्मकता के खतरे के बारे में स्पष्ट थीं, जानती थीं कि वास्तविक समानता दान से नहीं बल्कि प्रणालीगत परिवर्तन से आती है।
अपने कई समकालीनों के विपरीत, जो एक मजबूत केंद्रीय प्राधिकरण के पक्षधर थे। दक्षयानी ने संविधान के मसौदे में सत्ता के अति- केंद्रीकरण की आलोचना की। उन्होंने विकेंद्रीकृत शासन की वकालत की, और तर्क दिया कि एक न्यायसंगत लोकतंत्र के लिए जमीनी स्तर पर भागीदारी मौलिक थी। उनकी दूरदर्शी दृष्टि आज भी प्रासंगिक है, क्योंकि भारत केंद्रीकृत नियंत्रण और क्षेत्रीय स्वायत्तता के बीच संतुलन बनाना जारी रखता है।
दक्षयानी वेलायुधन ने संविधान सभा में सामाजिक न्याय, सांप्रदायिक सद्भाव, आर्थिक उत्थान और मानवीय गरिमा की पुरजोर वकालत की, तथा स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व पर आधारित भारतीय समाज की कल्पना की। बचपन से ही अस्पृश्यता के साथ दक्षयानी के व्यक्तिगत संबंधों ने विधानसभा में उनके योगदान को आकार दिया। मात्र 34 वर्ष की उम्र में दक्षयानी वेलायुधन ने भारत के संविधान के संविधान को तैयार करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
दक्षयानी वेलायुधन डिप्रेस्ड क्लासेज यूथ्स फाइन आर्ट्स क्लब की अध्यक्ष थीं और 1946-49 तक मद्रास में द कॉमन मैन की प्रबंध संपादक रहीं। बाद में वह महिला जागृति परिषद की संस्थापक अध्यक्ष बनीं। 20 जुलाई 1978 को 66 वर्ष की उम्र में दक्षयानी वेलायुधन की मृत्यु हो गई।
दक्षयानी वेलायुधन का जीवन दृढ़ता, बुद्धि और अटूट साहस की शक्ति का प्रमाण है। उन्होंने न केवल दमनकारी संरचनाओं को ध्वस्त किया, बल्कि एक अधिक समावेशी भारत की नींव भी राखी। आज जब हम उनकी जीवन यात्रा पर विचार करते हैं तो हम उन आदर्शों के प्रति अपनी प्रतिबद्धता की पुष्टि करते हैं, जिनके लिए उन्होंने लड़ाई लड़ी:- शिक्षा, लैंगिक समानता, सामाजिक न्याय और सम्मान। उनकी विरासत इतिहास का सिर्फ एक अध्याय नहीं है; यह आने वाली पीढ़ियों के लिए उठ खड़े होने, प्रतिरोध करने और अपने अधिकारों को पुनः प्राप्त करने का एक स्पष्ट आह्वान है। ऐसी महान क्रांतिकारी महिला के जीवन से हमें प्रेरणा लेनी चाहिए।
पहली और एकमात्र दलित महिला विधायक, दक्षयानी वेलायुधन को सम्मानित करते हुए, 31 जनवरी 2019 को केरल सरकार ने ‘दक्षयानी वेलायुधन पुरस्कार’ की स्थापना की है, जो राज्य में अन्य महिलाओं को सशक्त बनाने में योगदान देने वाली महिलाओं को दिया जायेगा। बजट में पुरस्कार के लिए दो करोड़ रुपये निर्धारित किये गये हैं। संविधान सभा की एकमात्र दलित युवा महिला स्वतंत्रता सेनानी दक्षयानी वेलायुधन को उनकी जयंती पर आदर्श समाज समिति इंडिया परिवार नमन करता है।– धर्मपाल गाँधी, लेखक, अध्यक्ष, आदर्श समाज समिति इंडिया