“शिक्षा है अनुभवों की यात्रा, न कि अंकों की दौड़”
"शिक्षा है अनुभवों की यात्रा, न कि अंकों की दौड़"

आज के युग में शिक्षा को एक ऐसे प्रतियोगिता के रूप में देखा जाने लगा है, जिसमें केवल अच्छे अंक प्राप्त करने वाले बच्चों को ही इंटेलिजेंट या प्रतिभाशाली माना जाता है। यह धारणा धीरे-धीरे समाज में फैल चुकी है कि किसी छात्र का मूल्य उसकी परीक्षा के परिणामों से ही निर्धारित होता है। लेकिन क्या सच में शिक्षा का उद्देश्य सिर्फ अच्छे अंक प्राप्त करना ही है? क्या हमारी शिक्षा का वास्तविक उद्देश्य बच्चों को जीवन की सच्ची समझ और सशक्त बनाना नहीं होना चाहिए? यदि हम शिक्षा को केवल अंक प्राप्त करने के रूप में देखेंगे, तो हम उन बच्चों को अवमूल्यित करेंगे जिनकी क्षमताएं अकादमिक क्षेत्र से बाहर हैं। यह बच्चों के आत्मसम्मान को प्रभावित कर सकता है और वे खुद को कमजोर महसूस कर सकते हैं। इसलिए, यह आवश्यक है कि हम शिक्षा को एक व्यापक दृष्टिकोण से देखें, जिसमें प्रत्येक बच्चे की अलग-अलग प्रतिभाओं और क्षमताओं को सम्मान दिया जाए।
आज की शिक्षा व्यवस्था में अंक ही सफलता की एकमात्र कसौटी बन गए हैं। जब माता-पिता बच्चों की रिपोर्ट कार्ड देखते हैं, तो पहला सवाल होता है- “कितने अंक आए?” लेकिन क्या किसी रिपोर्ट कार्ड में बच्चे की रचनात्मकता, उसकी करुणा, नेतृत्व क्षमता या समस्याओं को सुलझाने की योग्यता मापी जा सकती है? परीक्षा में कितने नंबर आए, ग्रेड क्या है, रैंकिंग कितनी है—ये सवाल बच्चे से ज्यादा माता-पिता और शिक्षक को बेचैन करते हैं। लेकिन क्या शिक्षा का उद्देश्य केवल अच्छे अंक लाना है? क्या हम भूल रहे हैं कि हर बच्चा अद्वितीय होता है, उसकी सीखने की गति और तरीका अलग होता है? एक शिक्षक के रूप में मैंने देखा है कि कई बार जिन बच्चों के अंक कम आते हैं, वे जीवन में सबसे ज़्यादा सफल होते हैं, क्योंकि उनमें वह जिज्ञासा और साहस होता है जो किताबों से आगे देखने की प्रेरणा देता है।
थॉमस एडिसन, अब्दुल कलाम और सचिन तेंदुलकर – क्या इनका मूल्य उनके स्कूली अंकों से लगाया जा सकता है?
माता-पिता से मेरी विनम्र प्रार्थना है – अपने बच्चों को अंक नहीं, उनके प्रयासों से परखिए। हर बच्चा एक कलाकार है, एक खोजकर्ता है। यदि हम उस पर नंबरों का बोझ डाल देंगे, तो वह अपनी उड़ान कैसे भर पाएगा? हम शिक्षक और अभिभावक मिलकर बच्चों में यह विश्वास भर सकते हैं कि “तुम विशेष हो, तुम्हारी पहचान सिर्फ अंकों से नहीं है। तुम्हारी मेहनत, तुम्हारा दृष्टिकोण और तुम्हारा सपना ही तुम्हारी सबसे बड़ी ताकत है।”
शिक्षा का असली उद्देश्य
शिक्षा केवल पुस्तकों से ज्ञान प्राप्त करना नहीं है, बल्कि यह एक संपूर्ण व्यक्तित्व निर्माण की प्रक्रिया है। शिक्षा हमें सोचने, समझने, सवाल करने और अपनी पहचान खोजने की शक्ति देती है। यह हमें केवल डॉक्टर या इंजीनियर नहीं बनाती, बल्कि संवेदनशील, नैतिक और जिम्मेदार नागरिक भी बनाती है। आज के प्रतिस्पर्धी समाज में जहां हर कदम पर एक नया चुनौती है, वहां हमें बच्चों को यह समझाने की जरूरत है कि असफलताएं भी जीवन का हिस्सा हैं। सफलता और असफलता दोनों ही जीवन के मूल्यवान शिक्षक होते हैं। जो बच्चा अपने असफलताओं से सीखता है, वही सच में अपने जीवन का विजेता होता है। अच्छे अंक केवल एक मापदंड हो सकते हैं, लेकिन जीवन में सफलता पाने के लिए महत्वपूर्ण गुण जैसे सृजनात्मकता, धैर्य, सहानुभूति, और टीमवर्क भी बहुत जरूरी हैं। हमारा समाज यह मानता है कि शिक्षा में उत्कृष्टता केवल अंक प्राप्त करने से आती है, लेकिन हमें यह समझना होगा कि शिक्षा का उद्देश्य बच्चों को एक अच्छे इंसान बनाना है, जो न केवल अपने लिए, बल्कि समाज के लिए भी उपयोगी हो। इसलिए, बच्चों को केवल अंक नहीं, बल्कि जीवन की सही दिशा में शिक्षा प्रदान करें।
अंकों की सीमाएं
अंक केवल किसी एक दिन की परख होते हैं। वे यह नहीं दर्शाते कि बच्चा कितनी मेहनत कर रहा है, वह कितनी रचनात्मक सोच रखता है, या वह कितनी सहानुभूति और ईमानदारी से जी रहा है। जब हम बच्चों की योग्यता को सिर्फ अंकों से तौलते हैं, तो हम उनकी क्षमताओं को सीमित कर देते हैं।
बच्चों का मनोबल और मानसिक स्वास्थ्य
जब बार-बार बच्चों की तुलना दूसरों से की जाती है, और अंकों के आधार पर उन्हें अच्छा या खराब कहा जाता है, तो उनका आत्मविश्वास टूटता है। वे खुद को कमतर समझने लगते हैं। यह मानसिक स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव डालता है, जो आगे चलकर आत्मग्लानि, तनाव और डिप्रेशन का कारण बन सकता है।
माता-पिता और शिक्षकों की भूमिका
माता-पिता और शिक्षक बच्चों के जीवन के सबसे महत्वपूर्ण मार्गदर्शक होते हैं। उनकी भूमिका केवल अंक पूछने की नहीं, बल्कि बच्चे की प्रतिभा को पहचानने और उसे प्रोत्साहित करने की होनी चाहिए। बच्चों को यह विश्वास दिलाना चाहिए कि वे जितने भी अंक लाएं, वे मूल्यवान हैं और उनकी क्षमताएं अंकों से कहीं बड़ी हैं। बच्चों की तुलना किसी और से नहीं, उनके कल के खुद से करें। उनकी छोटी-छोटी उपलब्धियों पर खुश होकर उन्हें आगे बढ़ने की प्रेरणा दें। उनसे संवाद करें, केवल परिणामों के समय नहीं, बल्कि हर दिन।
“नंबरों से बड़ी ज़िंदगी”
क्लास 8वीं और 10वीं के रिजल्ट का दिन था। घर में घनिष्ठ और लावण्या दोनों चुपचाप अपने-अपने कमरों में बैठे थे। बाहर ड्रॉइंग रूम में पापा-मम्मी बार-बार मोबाइल पर कुछ देख रहे थे, और चेहरे पर चिंता की लकीरें थीं।
पापा (गुस्से में):
“घनिष्ठ, सिर्फ 80%? इतने नंबरों से कुछ नहीं होने वाला! इतने महंगे स्कूल में पढ़ा रहे हैं, और ये रिजल्ट?”
मम्मी (तंज कसते हुए):
“लावण्या, तुम्हारी सहेली ने 92% लाया है, और तुम…? कहां ध्यान है तुम्हारा पढ़ाई में? बस मोबाइल, टीवी और बातें!”
दोनों भाई-बहन सिर झुकाकर खामोश बैठे थे। उनके दिलों में एक तूफान चल रहा था-निराशा, अपराधबोध, और अकेलापन।
रात को, लावण्या ने देखा कि घनिष्ठ बालकनी में बैठा था, कुछ खोया हुआ।
लावण्या (धीरे से पास आकर):
“क्या सोच रहे हो?”
घनिष्ठ (गहरी सांस लेते हुए):
“सोच रहा हूँ कि अगर मैं नहीं होता तो शायद सबको राहत मिलती। हर कोई नंबरों से तोलता है—क्या मैं सिर्फ एक अंक हु?”
लावण्या (रूंधे गले से):
“ऐसा मत सोचो, भैया। मैंने भी बहुत कोशिश की थी, लेकिन ये नंबर सबकुछ नहीं होते। मम्मी-पापा बस डर गए हैं, समाज की तुलना ने उन्हें भी डरा दिया है।”
घनिष्ठ:
“पर हमें कौन समझेगा?”
लावण्या:
“हम खुद को समझेंगे, और एक-दूसरे को। और मम्मी-पापा को भी समझाना पड़ेगा कि हम परफेक्ट नहीं, इंसान हैं। हमें अपनाने के लिए हमारी परफॉर्मेंस नहीं, प्यार चाहिए।”
थोड़ी देर बाद, दोनों ने तय किया कि वे अपनी भावनाओं को छुपाएंगे नहीं। अगली सुबह उन्होंने मम्मी-पापा से खुलकर बात की।
घनिष्ठ (आंखों में आंसू लिए):
“पापा, मैं कोशिश करता हूँ, लेकिन जब आप सिर्फ नंबरों की बात करते हो तो लगता है जैसे मेरी बाकी बातें मायने ही नहीं रखतीं।”
लावण्या:
“मम्मी, हम डरते हैं असफलता से नहीं, आपके तानों से। हमें आपसे समर्थन चाहिए, तुलना नहीं।”
एक पल को सन्नाटा छा गया। फिर पापा ने चुपचाप घनिष्ठ के सिर पर हाथ रखा।
पापा (धीरे से):
“हमें माफ कर दो… शायद हम डर गए थे। लेकिन अब से नंबरों से पहले तुम्हारी मुस्कान मायने रखेगी।”
निष्कर्ष:
बच्चे अंकों से नहीं, अपने सपनों, संघर्षों और संवेदनाओं से बनते हैं। माता-पिता को यह समझना होगा कि जीवन की दौड़ में जीतना ज़रूरी नहीं, बल्कि साथ चलना ज़रूरी है। बच्चों को आत्महत्या जैसे अंधेरे रास्ते पर जाने से रोकने के लिए, सबसे पहले उन्हें यह विश्वास दिलाना होगा—तुम जैसे हो, वैसे ही अनमोल हो।
शिक्षक और माता पिता बच्चों के लिए प्रेरणा का स्रोत बनें
प्रेरणादायक शिक्षक और माता-पिता वे होते हैं जो बच्चों को सीखने की प्रक्रिया से प्यार कराना जानते हैं। जब बच्चा गलती करता है, तो उसे डांटने की बजाय यह बताना ज़रूरी है कि गलती करना सीखने का हिस्सा है। जब बच्चा अपने मन की बात कहे, तो उसे सुना जाए, टोका नहीं जाए। शिक्षा को अंकों की होड़ से बाहर लाना होगा। हमें एक ऐसी सोच अपनानी होगी जो बच्चों की आत्मा को छू सके, उन्हें खुलकर उड़ने दे, न कि अंकों की सलाखों में कैद कर दे। हर बच्चा चमकता सितारा है बस ज़रूरत है उसे उसकी रौशनी महसूस कराने की। – सुमन मिश्रा, अध्यापिका, चिड़ावा, जिला—झुंझुनूं