
नदी का नांद कहाँ कोई समझ पाया
उसकी कल कल की आवाज में बसा है
जैसे आने वाले कल के न होने का साया
अपने उद्गम से ही जैसे पर्वत पिता से बिछोह का उसे है दर्द घना
तभी तो आवाज भी हो गई है भारी उसकी,
रस्ते में बढ़ता जा रहा है गाद दिन दूना, रात चौगुना
वो पिता के लग गले ऐसे जा रही है जैसे जाती हो कोई
नवविवाहिता पहली दफ़ा ससुराल
रूहासी हो गई है उसकी आवाज गला भी भरा भरा
वो मुड़कर नहीं देखना चाहती पिता को रोते हुए की
किस लालची समाज में बेटी को दिया ब्याह
पिता का भी गिर जाता है चोटी नुमा भाग
जैसे रख रहा हो वो अपनी पगड़ी जंवाई के पैरो में
मेरी बिटिया को रखना नाजों से, वो पली है पर्वत छांव में
उसे आदत नहीं है मलिन वस्त्र धारण करने की
उसे गाद नुमा ,कचरे प्लास्टिक की साड़ी न पहनाना
फिर तू बनाएगी गाद से गोखुर झीलें
आके नीचे समतल मैदान
तेरे मातृत्व को नमन ऐ नदी
तेरे छाती से निकले स्वच्छ दूधिया जल से
तू देती है अनाज मनुष्य को
तू ओढ़ाती है खेतों को उपजाऊ मिट्टी की चद्दर
हे तरंगिनि! तरंग सी गाती चलती हो तुम मधुर संगीत
किसने सिखाया तुम्हे दर्द में मुस्कुराना
किसने दी यह सीख रूपी रीत
अब तुम गाने के बजाय गले की खराश से हो परेशान
पर तुम ही बताओ कहाँ से लाए ऐसी खांसी की दवा
तुम हो भागीरथी प्रयासों का परिणाम
कर तपस्या भगीरथ आज पछताया होगा
नीलकंठ भी जटा खोल के तुझे पृथ्वी पे गिरा के ओ
सुरपगा ,ओ जाह्नवी बिन तेरे तांडव कर रोया होगा
हे मानव रूपी दानव तुम अपने घर ,उद्योगों के गंदे काले
कारनामे, नदी में बहा उजले करना चाहते हो
पर तुम्हें क्या पता सरिता भी है, चतुर अधिक
वो बाढ़ रूपी छलनी से छान के तुम्हारा सारा काला चिट्ठा
ला देती है तट पे चारों और, तुम्हारा सामान लौटाने ही
आती है वो तुम्हारी बस्ती में
फिर तुम कोसोगे गंडक, ब्रह्मपुत्र और कोसी को
मां गंगा और यमुना मौसी को
नर्मदा, गोदावरी जैसी बूढ़ी दादियों को
तुमने कर कलुषित ,कर दिया प्रदूषित
तू सदियों से रहीं है सभ्यता की जननी
सिंधु , हड़प्पा, कालीबंगा और मिस्र जैसी न जाने
कितनी सभ्यताएं तेरे किनारे पे ही फैली फूली
अपने काले कृत्यों से सरस्वती को
छिपा दिया तुमने पाताल लोक में
अब नित नए करते हो खोज, लाने उसे धरती पे ,
कहते हो रेगिस्तान में नदी सी सरंचना है
यहाँ चट्टानों में समाए है जीवाश्म
कितनी करते हो तुम प्रपंच प्रार्थना
कोलोराडो,अमेजॉन नदियों को तुमने
कर सीमित न जाने कितना किया है पाप ।
‘उमा’ सच कहूँ, आपगा, शैलजा को तूने नाम
आपदा देके, खुद को दिया हैं सभ्यता उजड़ने का श्राप
– उमा व्यास (एसआई, राज.पुलिस) कार्यकर्ता, श्री कल्पतरु संस्थान