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सामयिक: दो धड़े बन गए हैं, एक जो इजरायल का पक्षधर है और दूसरा फिलिस्तीन का


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आर्टिकलराज्यविदेश

सामयिक: दो धड़े बन गए हैं, एक जो इजरायल का पक्षधर है और दूसरा फिलिस्तीन का

अमरीका में फिलिस्तीन के पक्ष में चल रहे छात्र-आंदोलन ने 1968 की याद दिलाई

द्रोण यादव अधिवक्ता एवं ‘अमरीका बनाम अमरीका’ पुस्तक के लेखक

अमरीका के विभिन्न शहरों और विश्वविद्यालयों में कुछ दिन से फिलिस्तीन के पक्ष में विद्यार्थी आंदोलन कर रहे हैं। उनकी मांग है कि अमरीकी सरकार व अमरीकी विश्वविद्यालयों को उन सभी कंपनियों से अपने सरोकार समाप्त कर लेने चाहिए जिनका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से इजरायल-फिलिस्तीन युद्ध में योगदान है। विद्यार्थियों के इस प्रदर्शन ने हाल ही में तब बड़ा रूप ले लिया जब हजारों की तादाद में विद्यार्थी कोलंबिया यूनिवर्सिटी के ऐतिहासिक ‘हेमिल्टन हॉल’ पर काबिज हो गए। हालात इतने गंभीर हो गए कि न्यूयॉर्क पुलिस डिपार्टमेंट के भारी दस्ते ने जबरन विद्यार्थियों को बाहर धकेला और कई विद्यार्थियों को गिरफ्तार भी किया।

अमरीका की राजनीति में समय-समय पर होने वाले छात्र-आंदोलनों ने अपनी एक विशेष भूमिका निभाई है। वर्ष 1968 में यही हेमिल्टन हॉल इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गया था, जब विद्यार्थियों ने अमरीका के वियतनाम पर हमला के खिलाफ आवाज उठाई थी। इसी के चलते कोलंबिया यूनिवर्सिटी के तत्कालीन डीन, हेनरी कॉलेमैन को एक रात के लिए उनके ही दफ्तर में घेर लिया था, आंकड़ों की मानें तो उन प्रदर्शनों के दौरान न्यूयॉर्क के इतिहास की सबसे बड़ी गिरफ्तारियां थीं।

इजरायल-फिलिस्तीन युद्ध में भले ही अमरीका सीधे रूप से शामिल न हो, लेकिन इस युद्ध में अमरीका की भूमिका को पूर्ण रूप से नकारा भी नहीं जा सकता। यही वजह है कि अमरीका में प्रदर्शन हो रहे हैं। गाजा में हो रही हिंसा और अमरीका में उसे रोकने के लिए हो रहे प्रदर्शनों का अमरीकी चुनाव पर असर स्वाभाविक लगता है।

नतीजा यह निकाला कि कोलंबिया यूनिवर्सिटी को वियतनाम-वॉर पर शोध कर रहे पेंटागन इंस्टीट्यूट से अपने संबंध समाप्त करने पड़े और इसके बाद छात्र-आंदोलनों को रोकने के लिए प्रशासन ने कई सुधार किए। 1968 के बाद भी कई अवसर ऐसे हुए जब हेमिल्टन हॉल अलग-अलग विषयों पर ऐसे विरोध प्रदर्शनों का केंद्र बना, वर्ष 1972,1985, 1992 और 1996 में हुए प्रदर्शन इसका उदाहरण हैं।

अमरीका में छात्र आंदोलनकारियों द्वारा किए जा रहे प्रदर्शनों ने चुनाव की ओर बढ़ते अमरीका में राजनीतिक सरगर्मियां भी बढ़ा दी हैं और इस मुद्दे को लेकर अमरीका में दो धड़े बन गए हैं, एक जो इजरायल का पक्षधर है और दूसरा फिलिस्तीन का। न्यूयॉर्क पुलिस के पूर्व प्रमुख माइकल सोलोमन ने हाल ही में कहा भी कि फिलिस्तीन नाम का देश न पहले कभी था और न है। उन्होंने हमास को इस पूरे घटनाक्रम का दोषी ठहराया। माइकल का यह भी कहना है कि, प्रदर्शन कर रहे विद्यार्थियों को न केवल गिरफ्तार कर लेना चाहिए बल्कि शैक्षिक संस्थानों को इन्हें निष्कासित भी कर देना चाहिए। वहीं दूसरी ओर अमरीका के विभिन्न विश्वविद्यालयों में आंदोलनरत छात्रों की मांग सरल है, वे चाहते हैं कि शैक्षणिक संस्थानों का तुरंत प्रभाव से उन कंपनियों से सरोकार खत्म हो जिनके योगदान से इस युद्ध को ताकत मिल रही है, ताकि जितना जल्दी हो सके इस युद्ध को रोका जा सके।

जब इजरायल-फिलिस्तीन पर चल रहे युद्ध को लोग दूर से देख कर बस अफसोस जता रहे हैं, तब विद्यार्थियों के इन प्रदर्शनों से अमन की उम्मीद नजर आती है। आशावादी और उदार राजनीतिक विचार रखने वाले लोगों का मानना है कि दुनिया के सबसे ताकतवर देश अमरीका के चुनावों के करीब विद्यार्थियों की यह जागरूकता आवश्यक बदलाव की क्षमता रखती है। चूंकि विद्यार्थियों के इन विरोध प्रदर्शनों ने इजराइल-फिलिस्तीन युद्ध की चर्चाओं को एक नई हवा दी है तो निश्चित ही अमरीकी वोटर की नजर न केवल राष्ट्रपति जो बाइडेन के फैसले पर रहेगी बल्कि रिपब्लिकन पार्टी के संभावित प्रत्याशी डॉनल्ड ट्रम्प को भी लोग इस पर सुनना चाहेंगे और संभवत: इसका असर चुनावों में भी देखने को मिलेगा। अमरीका में हो रहा यह विद्यार्थी आंदोलन इसलिए भी चर्चा योग्य है क्योंकि न केवल अमरीका बल्कि भारत सहित अनेक देशों में ऐस आंदोलन प्रभावी साबित हुए हैं और इन आंदोलनों ने देश की राजनीति को नई दिशा दी है। भारत में भी सीएए-एनआरसी के प्रदर्शनों के दौरान विद्यार्थियों की सक्रियता को देश ने देखा और आज भी जब देश में लोकसभा चुनाव चल रहे हैं, विद्यार्थियों-नौजवानों से जुड़े मुद्दे जैसे अग्निवीर, बेरोजगारी उठाए जा रहे हैं।

विद्यार्थियों का समय-समय पर विभिन्न मुद्दों पर आंदोलनरत हो जाना इस बात का परिचायक है कि शैक्षणिक संस्थान विद्यार्थियों को शिक्षा और डिग्री दिलवाने तक सीमित नहीं है, बल्कि विद्यार्थियों को राजनीतिक, सामाजिक और मानसिक रूप से जागरूक रखने व ताकत प्रदान करने का माध्यम भी हैं। अमरीका में हो रहे इस छात्र-आंदोलन का क्या राजनीतिक प्रभाव रहेगा यह अभी देखना बाकी है लेकिन प्रशासन और पुलिस की कार्रवाई से इतना तो साफ नजर आ रहा है कि प्रशासन को 1968 में हुए छात्र-आंदोलन का भूत सता रहा है, जब अमरीका द्वारा वियतनाम पर किए गए आक्रमण का विरोध किया गया। ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि 1969 में निक्सन के राष्ट्रपति चुने जाने के बाद उन्होंने अपने पहले कार्यकाल में वियतनाम वार के विरुद्ध हो रहे प्रदर्शनों को रोकने का प्रयास किए और कहा कि अमरीका यह युद्ध तब ही जीत पाएगा जब वह एकजुट दिखाई देगा। अंतत: निक्सन का दूसरा चुनाव करीब आते-आते उन्होंने अमरीकी फौज को वापस बुलाने का फैसला किया, जो कि कहा जाता है कि उनकी दूसरी जीत के बड़े कारणों में से एक था। इजरायल-फिलिस्तीन युद्ध में भले ही अमरीका सीधे रूप से शामिल न हो, लेकिन यहां पूर्ण रूप से अमरीका की भूमिका को नकारा भी नहीं जा सकता। अत: गाजा में हो रही हिंसा और अमरीका में उसे रोकने के लिए हो रहे प्रदर्शनों का अमरीकी चुनाव पर असर स्वाभाविक लगता है।

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