जैसलमेर : पीले बलुआ पत्थरों, नक्काशीदार झरोखों और बालकॉनी, महीन कारीगरी का बेजोड़ नमूना जैसलमेर की विश्व प्रसिद्ध पटवा हलवेलियों को निहारने लाखों लोग हर साल जैसलमेर आते हैं। गुमानचंद बाफना ने अपने पांच बेटों को उपहार में देने के लिए साल 1805 में इन हवेलियों का निर्माण करवाया था। इनको बनाने में करीब 50 साल लगे थे। आज दुनिया भर से लाखों लोग इन्हें देखने के लिए आते हैं। ये हवेलियां एक बार फिर सुर्खियों में हैं। कारण यह कि इन हवेलियों की तारीफ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने की है। उन्होंने इन हवेलियों को इंजीनियरिंग की मिसाल बताए हुए नेचुरल एयरकन्डीशनिंग का बेजोड़ नमूना बताया है।
गौरतलब है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 8 दिसंबर को दिल्ली के लाल किले में ‘इंडिया आर्ट, आर्किटेक्चर एंड डिजाईन बियनाले 2023’ का उदघाटन किया। उद्घाटन के मौके पर प्रधानमंत्री ने अपने संबोधन में जैसलमेर की पटवा हवेली की तारीफ की। प्रधानमंत्री ने कहा ” आप में से कुछ लोग जैसलमेर में पटवों की हवेली गए होंगे। पांच हवेलियों के इस समूह को इस तरह बनाया गया था कि वो नेचुरल एयरकंडिशनिंग कि तरह काम करता है। ये सारा आर्किटेक्चर न केवल लॉन्ग सस्टेनिंग होता था, बल्कि एनवायरमेंट सस्टेनेबल भी होता था। यानी पूरी दुनिया के पास भारत के आर्ट एंड कल्चर से बहुत कुछ जानने, सीखने के लिए अवसर है”।
ऐसे अस्तित्व में आई पटवा हवेलियां
गाइड नरेंद्र छंगाणी ने बताया कि धनी व्यापारी गुमान चंद बाफना ने इस हवेली परिसर का निर्माण कराया। पहली हवेली 1805 में बनाई गई थी। अपनी सारी भव्यता के साथ पूरा हवेली परिसर 50 सालों के दौरान विकसित हुआ। ये 5 हवेलियों का समूह है जो देखने में एक जैसी ही दिखाई देती है। पटवा हवेली का इतिहास अठारहवीं शताब्दी की शुरुआत का है। पटवा अपने व्यापार और व्यवसाय को स्थापित करने के लिए संघर्ष कर रहे थे। बताया जाता है कि जैन मंदिर के एक पुजारी की सलाह पर, पटवा भाइयों ने कभी न लौटने के इरादे से जैसलमेर छोड़ दिया। किवदंती है कि पटवा उसके बाद बेहद सफल रहे और उनका व्यवसाय बैंकिंग और वित्त, चांदी, ब्रोकेड (जरी वस्त्र) और अफीम व्यापार में फैला हुआ था।
आखिरकार, पटवा इतनी ऊंचाइयों तक पहुंचे कि उन्हें राज्य के घाटे को पूरा करने के लिए बुलाया जाने लगा। इससे कबीले अपने पुराने निवास स्थान में वापस आ गए। परिवार के तत्कालीन मुखिया गुमान चंद पटवा ने अपने पांच बेटों में से प्रत्येक को एक अलग हवेली उपहार में देने का फैसला किया। इस प्रकार जैसलमेर किले के सामने पांच हवेलियां बनीं।
पटवों की हवेली की वास्तुकला
जैसलमेर में पत्थर की कारीगरी का काम करने वाले मदद अली ने बताया कि पटवा हवेली वास्तुकला का बेहतरीन नमूना है। ये जैसलमेर के पीले पत्थर और लकड़ी से बने अपने पोर्टिको पर सुंदर जाली के काम के लिए जाना जाता है। इसमें एक शानदार अपार्टमैंट है, जिसे सुंदर भित्ति चित्रों से चित्रित किया गया है। पटवों की हवेली अपने दीवार चित्रों, जटिल पीले बलुआ पत्थर-नक्काशीदार झरोखों और बालकॉनियों, प्रवेश द्वारों और दरवाजों के लिए प्रसिद्ध है। ये एक खूबसूरत हवेली है जो अपनी जालीदार हवेलियों के लिए जानी जाती है, इन सभी 5 हवेलियों में पांच मंजिला इमारत है।
2 से 3 हजार कारीगरों ने किया निर्माण
60 साल में बनी ये 5 हवेलियां अपनी बेहतरीन पत्थर पर नक्काशी के लिए आज भी प्रसिद्ध हैं जिन्हें देखने हर साल लाखों सैलानी जैसलमेर आते हैं। 5 मंजिला इमारतों में 2 अंडरग्राउंड भी हैं जिनमें स्टोर हुआ करते थे। हर हवेली में 20 से 22 कमरे हैं। हर हवेली में 60 से अधिक बालकॉनियों साथ हाँ। पत्थर की बालकानियों में कई खिड़कियां हैं जिनमें महीन कारीगरी की गई है। मदद अली ने बताया कि सिलावटों ने इस हवेली का निर्माण किया था। 60 साल चले हवेलियों के काम में करीब दो से तीन हजार कारीगर लगे थे। उन्हीं कारीगरों से ही मदद अली के पुरखों ने ये काम सीखा।
लकड़ी की सीलिंग और क्रॉस वेंटिलेशन की सुविधा
मदद अली ने बताया कि जैसलमेर में भीषण गर्मी पड़ती है। गर्मी में उस समय बचने के लिए इंजीनियरिंग का ऐसा बेजोड़ नमूना बनाया गया जिनमें बाहर से आती गरम हवाएं बारीक खिड़कियों से अंदर आते ही क्रॉस वेंटिलेशन में ठंडी हो जाती थीं। छत के बीच का हिस्सा खुला रखा जाता था ताकि आंगन से आसमान साफ नजर आता था। इससे हवेली के अंदर की गरम हवा ऊपर निकल जाती थी और खिड़की से आने वाली गरम हवा अंदर आते ही ठंडी हवा में तब्दील हो जाती थी। छत की सीलिंग लकड़ी की होती थी ताकि छत ठंडी रहती थी। मदद अली बताते हैं कि हाथों से इतनी बेहतरीन कारीगरी अब मशीनों से होती है मगर उस समय किया गया पत्थर पर इतना बारीक काम आज भी हम सबके लिए काफी आश्चर्यजनक है।
5 में से 2 सरकारी बाकी निजी
जैसलमेर के मशहूर गाइड नरेंद्र छंगाणी ने बताया कि 1947 के बाद भारत-पाकिस्तान अलग हो गए और व्यापार के रास्ते बंद हो गए। तब यहां के सेठ इन हवेलियों को छोड़कर पलायन कर अलग-अलग राज्यों में जाकर बस गए। इन हवेलियों की देखरेख करने वाला भी कोई नहीं था। तब यहां कबूतरों और चमगादड़ों ने अपना बसेरा बना लिया था। ये सभी हवेलियां 5 मंजीला हैं जबकि 2 मंजीला जमीन के नीचे यानी तहखाने हैं जिनमें आज तक कोई भी नहीं गया। 1976 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने इन हवेलियों को सरकारी संरक्षण में ले लिया, हालांकि 2 आज भी निजी हाथों में हैं जबकि बाकी तीन सरकारी संरक्षण में हैं। इसके बाद से धीरे-धीरे इनकी दशा सुधारने के प्रयास होते रहे हैं। 1983-84 में इन हवेलियों को पर्यटकों के लिए खोल दिया गया।
क्या बोले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी
अपने भाषण में प्रधानमंत्री बोले “कला का कोई भी स्वरूप क्यों न हो, उसका जन्म प्रकृति के, नेचर के निकट ही होता है। यहां भी मैंने जितना देखा कहीं ना कहीं नेचर का एलीमेंट उस आर्ट के साथ जुड़ा हुआ है, उससे बाहर एक भी चीज नहीं है। इसीलिए, आर्ट बाय नेचर, प्रो नेचर और प्रो एनवायरमेंट और प्रो क्लाइमेट है। जैसे दुनिया के देशों में रिवर फ्रंट की बहुत बड़ी चर्चा होती है कि भई फलाने देश में ढिकाना रिवर फ्रंट वगैरह-वगैरह। भारत में हजारों वर्षों से नदियों के किनारे घाटों की परंपरा है। हमारे कितने ही पर्व और उत्सव इन्हीं घाटों से जुड़े होते हैं।
इसी तरह, कूप, सरोवर, बावड़ी, स्टेप वेल्स की एक समृद्ध परंपरा हमारे देश में थी। गुजरात में रानी की वाव हो, राजस्थान में अनेक जगहों पर दिल्ली में भी, आज भी कई स्टेप वेल्स आपको देखने को मिल जाएंगे। और जो रानी की वाव है उसकी विशेषता ये है कि पूर उल्टा टेंपल है। इसी तरह, भारत के पुराने किलों और दुर्गों का वास्तु भी दुनिया भर के लोगों को हैरान करता है। हर किले का अपना आर्किटैक्चर है, अपना साइन्स भी है।
मैं कुछ दिन पहले ही सिंधु दुर्ग में था, जहां समंदर के भीतर बहुत ही विशाल किला निर्मित है। हो सकता है, आप में से कुछ लोग जैसलमेर में भी पटवों की हवेली भी गए होंगे। पांच हवेलियों के इस समूह को इस तरह बनाया गया था कि वो नेचुरल एयरकंडिशनिंग कि तरह काम करता है। ये सारा आर्किटैक्चर न केवल लॉन्ग सस्टेनिंग होता था, बल्कि एनवायरमेंट ससटेनेबल भी होता था। यानि पूरी दुनिया के पास भारत के आर्ट एंड कल्चर से बहुत कुछ जानने, सीखने के लिए अवसर है”।