राजस्थान में मिली 4500 साल पुरानी तांबा पिघलाने की मशीन:गुजरात तक सिल्लियों के रूप में भेजा जाता था; ASI की खुदाई में हथियार और ज्वेलरी भी मिली
राजस्थान में मिली 4500 साल पुरानी तांबा पिघलाने की मशीन:गुजरात तक सिल्लियों के रूप में भेजा जाता था; ASI की खुदाई में हथियार और ज्वेलरी भी मिली
खेतड़ी : राजस्थान के झुंझुनूं जिले खेतड़ी उपखंड के बांसियाल ग्राम में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) की खुदाई में 4,500 साल पुराने तांबे के औजार, आभूषण, क्रूसिबल और कार्नेलियन मनके मिले हैं। विशेषज्ञों का दावा है कि यहीं से तांबे का व्यापार हड़प्पा सभ्यता तक पहुंचता था। यह ARCEB प्रोजेक्ट का सर्वे 2 सालों से चल रहा है और खुदाई पिछले 15-20 दिनों से जारी है। खुदाई टीम के अनुसार, रोज हड्डियां, बर्तन, मोती और अन्य पुरातात्विक सामग्री मिल रही हैं।
मगर 6 दिसंबर को की गई खुदाई में क्रूसिबल (धातु गलाने का पात्र) मिला है। यह सबसे अहम खोज मानी जा रही है, क्योंकि इससे पता चलता है कि उस समय यहां तांबे को गलाकर उसकी सिल्लियां (Ingots) बनाई जाती थीं। क्रूसिबल की खासियत है कि यह उच्च तापमान को सहन करता है और खुद पिघलता नहीं है। यह मिट्टी, सिरेमिक या धातु मिश्रधातु से बनाया जाता था।
एक्सपर्ट का दावा है कि यही से ताम्बे का व्यापार होता था जो हड़प्पा सभ्यता के लोगों तक पहुंचाया जाता था। भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) की खुदाई में तांबे के औजार, आभूषण, क्रूसीबल, मनके और कार्नेलियन पत्थर के मोती मिले हैं।
विभाग के अनुसार, 4500 साल पहले यहां तांबे के अयस्क को पिघलाकर उससे सिल्लियां बनाई जाती थीं। फिर इन्हीं तांबे की सिल्लियों को हड़प्पा की बस्तियों तक भेजा जाता था। इस खोज से अब यह साफ हो गया है कि हड़प्पा सभ्यता वाले लोग झुंझुनूं के इस इलाके से तांबा लेकर औजार और आभूषण बनाते थे, और यहां व्यापार भी होता था।
यह ARCEB प्रोजेक्ट का सर्वे 2 सालों से चल रहा है और खुदाई पिछले 15-20 दिनों से चल रही है। यहां से व्यापार गुजरात तक फैला था।

बांसियाल में 4,500 साल पुराने पुरातात्विक प्रमाण मिले
झुंझुनूं से करीब 65 किलोमीटर दूर बांसियाल गांव में हुई खुदाई में लाइम-प्लास्टर की दीवारें, तांबे की रिंग, हड्डी से बने औजार, सेमी-प्रेशियस स्टोन के मनके और लाल मिट्टी के मृद्भांड मिले हैं। ये अवशेष बताते हैं कि यहां संगठित और उन्नत जीवन शैली मौजूद थी।


मिले क्रूसीबल – जहां तांबा पिघलकर बनता था
शोधकर्ताओं डॉ. ईशा प्रसाद और डॉ. श्वेता सिन्हा देशपांडे के अनुसार खुदाई में तांबे को गलाने वाले क्रूसीबल (धातु गलाने का पात्र) के अनेक दुर्लभ टुकड़े मिले हैं। क्रूसीबल में तांबे के अयस्क को अत्यधिक तापमान पर पिघलाया जाता था और फिर शुद्ध तांबे को अलग कर सिल्लियों (ingots) का रूप दिया जाता था। यह तकनीक दिखाती है कि उस समय धातु विज्ञान काफी विकसित था।
हड़प्पा सभ्यता से जुड़ी तकनीक मिली
एक्सपर्ट के अनुसार, हड़प्पावासी तांबा, कांसा, सोना और चांदी जैसी धातुओं का उपयोग करते थे। क्रूसिबल का उपयोग वे-
- औजार और हथियार बनाने में
- आभूषण और मनका निर्माण में
- रत्नों (जैसे कार्नेलियन) को गर्म करके रंग चढ़ाने मेंकरते थे।
यह मिलना बताता है कि उस समय लोगों को धातु विज्ञान का गहरा ज्ञान था और वे जानते थे कि ऐसा पात्र किस धातु से बनाया जाए, जो तांबा पिघलाए पर खुद न पिघले। यह तकनीक उस समय की उन्नत धातुकर्म क्षमता (Metallurgy) को दिखाती है।

औजार, आभूषण और मनके भी मिले
खुदाई में तांबे के औजार, कलाकृतियां, आभूषण और कार्नेलियन पत्थर के मनके मिले हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि उस समय तांबे के बदले मनकों का लेनदेन होता था। इससे खेतड़ी क्षेत्र और हड़प्पा सभ्यता के बीच व्यापार की पुष्टि होती है।
ताम्र–पाषाण कालीन संस्कृति के अवशेष
राजस्थान पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग के अधीक्षक (उत्खनन) डॉ. विनीत गोधल ने बताया कि बांसियाल में मिले छोटे तांबे के उपकरण ताम्र–पाषाण कालीन संस्कृति से जुड़े हुए हैं। अवशेषों से यह भी पता चलता है कि यह क्षेत्र एक समृद्ध धातु-केंद्र था, जहां तकनीकी ज्ञान और कारीगरी दोनों उच्च स्तर की थीं।

इतिहास में पहले से दर्ज है खेतड़ी का तांबा
खेतड़ी में आज भी बड़ी मात्रा में तांबे का भंडार है और हिंदुस्तान कॉपर लिमिटेड (HCL) यहां खनन करती है। इतिहासकार बताते हैं कि अबुल फजल की प्रसिद्ध पुस्तक ‘आईन-ए-अकबरी’ में भी खेतड़ी के तांबे का उल्लेख मिलता है। शोधकर्ता इसे गणेश्वर सभ्यता से भी जोड़ रहे हैं।
शोधकर्ताओं का मानना है कि यह स्थल प्रारंभिक अंतर-सांस्कृतिक संपर्कों का प्रमुख केंद्र रहा होगा, जिसे गणेश्वर सभ्यता की कड़ी के रूप में भी देखा जा रहा है।

पहली बार घरेलू संरचनाओं के स्पष्ट प्रमाण
सिंबायोसिस स्कूल फोर लिबरल आर्ट्स, सिंबायोसिस इंटरनेशनल (डीम्ड यूनिवर्सिटी) में कार्यरत शोधकर्ता डॉ. ईशा प्रसाद और डॉ. श्वेता सिन्हा देशपांडे ने बताया कि बांसियाल में खुदाई पहली बार बस्ती के भीतर की संरचनाओं के साक्ष्य मिले हैं। इसमें में झोपड़ी जैसी संरचना, प्लेटफॉर्म और बर्तनों के हैंडल मिले हैं। यह खोज बताती है कि यहां व्यवस्थित बस्तियां थीं जहां लोग हड्डी के औजार, तांबे के उपकरण और आभूषण बनाकर उपयोग करते थे।
बस्ती के पास गोलाकार गड्ढे मिले हैं जहां लोग कचरा दबाकर रखते थे। इन गड्ढों में हड्डियां और मिट्टी के बर्तनों के टुकड़े मिले हैं। खास बात यह है कि ये लोग कचरे को ढककर रखते थे, जो योजनाबद्ध जीवन शैली का संकेत है। मिले कार्नेलियन मनके गुजरात में बनते थे, जिससे स्पष्ट है कि यहां के लोगों का व्यापार गुजरात तक था।

इसके साथ ही मिट्टी के मृद्भांड मिले हैं, उन पर लाल रंग किया हुआ है। यानि उनको रंग की समझ थी। भोजन बनाने व खाने के लिए अधिकांश बर्तन मिट्टी के काम लेते थे। मिट्टी के बर्तनों पर काले रंग से कलाकृति बनाई गई है।
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