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भारत की आजादी के लिए जीवन समर्पित करने वाली महान स्वतंत्रता सेनानी थीं: नेली सेनगुप्त


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आर्टिकल

भारत की आजादी के लिए जीवन समर्पित करने वाली महान स्वतंत्रता सेनानी थीं: नेली सेनगुप्त

दुनिया में कुछ ऐसे भी महान लोग हुए हैं, जिन्होंने जाति व धर्म से बाहर निकलकर अपने मुल्क की सरहदों को पार कर मानवता और स्वतंत्रता के लिए कार्य किया। ऐसे महान लोगों को याद करना और उनके जीवन से प्रेरणा लेना बहुत जरूरी है। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के दौरान महात्मा गाँधी के विचारों से प्रेरित होकर कुछ विदेशी लोग भी हमारे समर्थन में आ गये थे। उस दौरान कुछ विदुषी महिलाएं भी देशवासियों के हक के लिए काम करने भारत आ गईं और यहाँ के लोगों, संस्कृति और समाज की होकर रह गईं। वे अपने देश के शासकों के ख़िलाफ़ मुखर होकर लड़ी और इस देश में रहकर यहीं की मिट्टी में सदा के लिए मिल गईं। ऐसी ही एक संघर्षशील महान वीरांगना का नाम था- नेली सेनगुप्त। अपने लिए तो सभी जीते हैं, पर जीना उसी का है, जो औरों के काम आए..! इस कहावत को नेली ने अपने जीवन में सार्थक किया और विदेशी धरती पर जन्म लेकर हिंदुस्तान की आजादी और हिंदुस्तानियों के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया।

नेली सेनगुप्त भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने वाली स्वतंत्रता सेनानी व कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्ष और पद्म विभूषण से सम्मानित महान सामाजिक कार्यकर्ता थी। नेली सेनगुप्त स्वाधीनता आंदोलन के दौरान 1933 में कांग्रेस अध्यक्ष का पद संभालने वाली तीसरी महिला थीं। उनके पूर्व यह पद 1917 में एनी बेसेंट और 1925 में सरोजिनी नायडू ने सुशोभित किया था। महात्मा गाँधी और सरोजिनी नायडू से प्रेरित होकर नेली सेनगुप्त ने अपने पति यतीन्द्र मोहन सेनगुप्त के साथ स्वाधीनता आंदोलन में भाग लिया। नेली सेनगुप्त उन विदेशी महिलाओं में से एक थीं, जिन्होंने भारत की आजादी के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। अपने माता-पिता और अपने देश को छोड़कर उन्होंने भारतीय संस्कृति को अपनाया और भारत की आजादी के लिए उन्होंने अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया। यहां तक कि अपने पति यतीन्द्र मोहन सेनगुप्त की मृत्यु के बाद भी उन्होंने अपना संघर्ष जारी रखा और भारत को आजादी दिलाने तक उनका संघर्ष जारी रहा। नेली सेनगुप्त ने 1920 में महात्मा गाँधी द्वारा शुरू किये गये असहयोग आंदोलन में अपने क्रांतिकारी जीवन की शुरुआत की थी और जीवन भर उनका संघर्ष जारी रहा। 1933 में कलकत्ता अधिवेशन में उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष बनने का गौरव हासिल हुआ। उन्हें 1940 और 1946 में निर्विरोध ‘बंगाल असेंबली’ का सदस्य भी चुना गया था। वह भारतीय नागरिक के रूप में पैदा नहीं हुई थीं, फिर भी स्वतंत्रता संग्राम के प्रति नेली सेनगुप्त का जो जुनून था, वह इतिहास की किताबों में लिखे जाने लायक था।

नेली सेनगुप्त का जन्म कैंब्रिज (इंग्लैंड) में 12 जनवरी 1886 को हुआ था। उनके पिता का नाम फ़्रेडरिक विलियम ग्रे और माता ऐडिथ हेनेरिअता ग्रे थीं। उनके पिता एक क्लब में काम करते थे। उन्होंने इंग्लैंड से ही अपनी शिक्षा प्राप्त की थी। जब चटगाँव (बंगाल) के निवासी यतीन्द्र मोहन सेनगुप्त अध्ययन के लिए इंग्लैंड गए तो नेली को उनसे प्यार हो गया और उन्होंने अपने माता-पिता के विरोध के बावजूद वर्ष 1909 में चटगाँव निवासी यतींद्र मोहन सेनगुप्त से शादी कर ली। यतीन्द्र मोहन सेनगुप्त जब वकालत की पढ़ाई पूरी करने के बाद भारत लौटे तो नेली भी उनके साथ भारत आ गई। विदेश में वकालत की पढ़ाई करने के बाद यतीन्द्र एक सफल वकील बन गये। उन्होंने वर्ष 1911 में फरीदपुर में बंगाल प्रांतीय सम्मेलन के प्रतिनिधि के रूप में कार्य किया। यतींद्र मोहन सेनगुप्त कलकत्ता में एक सफल वकील के रूप में जाने जाते थे। वे 1925 में कलकत्ता के मेयर चुने गये। अपने जनहित के कार्यों से वे इतने लोकप्रिय बन गये थे कि उन्हें पांच बार कलकत्ता का मेयर चुना गया। वे कलकत्ता के मेयर रहने के साथ ही बंगाल विधान सभा के सदस्य भी रहे। इसके अलावा वे बंगाल में महात्मा गाँधी के प्रमुख कार्यकर्ता थे। पंडित मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में हुए 1928 के कलकत्ता अधिवेशन के स्वागताध्यक्ष यतीन्द्र मोहन सेनगुप्त ही थे। जब महात्मा गाँधी ने प्रथम देशव्यापी असहयोग आंदोलन शुरू किया तो दोनों पति-पत्नी यतीन्द्र मोहन सेनगुप्त और नेली सेनगुप्त ने राष्ट्रीय आंदोलन में बढ़ चढ़कर भाग लिया। उन्होंने देश की आजादी के साथ मजदूरों के हितों के लिए भी कार्य किया। आसाम- बंगाल की रेल हड़ताल के सिलसिले में जब यतीन्द्र मोहन गिरफ्तार हुए तो उनके बाद नेली सेनगुप्त ने मोर्चा संभाल लिया। उन्होंने खद्दर (खादी) बेचने पर लगा प्रतिबंध तोड़ा, जिस कारण अंग्रेज पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार किया और जेल में डाल दिया।

सविनय अवज्ञा आंदोलन के दिनों में, वह अपने पति के साथ दिल्ली और अमृतसर में राजनीतिक दौरों पर जाती थीं। जब यतीन्द्र मोहन की तबियत खराब हो गई, तो नेली ने अपना राजनीतिक काम जारी रखा। आगे की राजनीतिक गतिविधि में शामिल होने के परिणामों की चेतावनी दिए जाने के बावजूद, उन्होंने दिल्ली में एक प्रतिबंधित बैठक में भाषण दिया और उन्हें गिरफ्तार कर चार महीने के लिए जेल भेज दिया गया। देश की आजादी के लिए हमारे स्वतंत्रता सेनानियों ने कितनी यातनाएं झेली और कितने कष्ट उठाये, यह सब स्वतंत्रता सेनानियों के जीवन संघर्ष को पढ़ने के बाद ही ज्ञात होता है। नेली सेनगुप्त एक महान वीरांगना थी, जिन्होंने भारत की आजादी के लिए अपने ही देश (ब्रिटेन) के लोगों के खिलाफ बगावत कर दी और अल्पायु में विधवा होने के पश्चात भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और भारत की आजादी के लिए उनका संघर्ष अनवरत जारी रहा। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान 1933 में यतीन्द्र मोहन सेनगुप्त की रांची जेल में मृत्यु हो गई। पति की मृत्यु नेली के जीवन की बड़ी त्रासदी थी। नेली और यतीन्द्र के शिशिर और अनिल नाम के दो बेटे भी थे। यतीन्द्र मोहन सेनगुप्त की मृत्यु के बाद बहुत से लोगों को लगा कि यह नेली के संग्राम का भी अंत है। क्योंकि शायद अब उनके लिए इस स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने की कोई वजह नहीं बची। पर लोग इस बात से अनजान थे, कि नेली सिर्फ़ अपने पति की वजह से इस संग्राम का हिस्सा नहीं थीं। वे ग़लत के खिलाफ़ थीं; उन्हें पता था कि भारत पर ब्रिटिश सरकार के अत्याचार और जुल्मों का अंत होना ज़रूरी हैं। इसलिए, पति की मौत के बाद नेली ने भारत की स्वतंत्रता को ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया। त्रासदी और कारावास का सामना करने के बावजूद इस ब्रिटिश महिला ने भारत की स्वतंत्रता के लिए लड़ना बंद नहीं किया। वह भारतीय नागरिक के रूप में पैदा नहीं हुई थीं, फिर भी स्वतंत्रता संग्राम के प्रति नेली सेनगुप्त का जो जुनून था, वह हकीकत में इतिहास की किताबों में लिखे जाने लायक था।

नमक सत्याग्रह, सविनय अवज्ञा आंदोलन के दौरान कांग्रेस के कई वरिष्ठ नेताओं को जेल में डाल दिया गया था। कांग्रेस के निर्वाचित अध्यक्ष पंडित मदन मोहन मालवीय को 1933 के कलकत्ता अधिवेशन से पहले गिरफ्तार कर लिया गया था। उनकी जगह नेली सेनगुप्ता को चुना गया, इस तरह वह कांग्रेस की निर्वाचित होने वाली तीसरी महिला और दूसरी यूरोपीय मूल की महिला बन गईं। पार्टी और देश के लिए उनके योगदान के लिए उन्हें पार्टी द्वारा अध्यक्ष चुना गया था। स्वाधीनता आंदोलन के दौरान कांग्रेस अधिवेशन की अध्यक्षता करना बहुत बड़ी बात थी। वह 1933 और 1936 में कलकत्ता नगर निगम के लिए एल्डरमैन के रूप में भी चुनी गईं। वह 1940 और 1946 में चटगांव से बंगाल विधान सभा के लिए कांग्रेस के टिकट पर भी चुनी गईं। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान उन्होंने विदेशी सैनिकों के दुर्व्यवहार की ओर ध्यान आकर्षित किया। नेली सेनगुप्ता उन अंग्रेज महिलाओं में से एक थीं, जो भारत के लोगों के लिए अपना जीवन समर्पित करने आईं। एक बाहरी व्यक्ति होते हुए भी उन्होंने खुद को एक सच्ची भारतीय देशभक्त साबित किया। वह सभी बेहतरीन गुणों का एक अनूठा संयोजन थीं। वह एक समर्पित पत्नी, एक संत माँ और एक सक्रिय राजनीतिक नेता थीं। हालाँकि उन्हें अपनी मूल परंपरा विरासत में मिली थी, लेकिन उन्होंने प्राच्य सभ्यता की सच्ची त्याग की भावना को भी प्राप्त किया। वह उन्नीसवीं सदी के पुनर्जागरण की एक वास्तविक प्रतिनिधि थीं।

नेली सेनगुप्त जैसे महान स्वतंत्रता सेनानियों की बदौलत 15 अगस्त 1947 को भारत देश आजाद हुआ। आजादी के साथ देशवासियों को विभाजन की त्रासदी का भी सामना करना पड़ा। विभाजन की त्रासदी हिंदुस्तान के दिल पर गहरा ज़ख्म था।

स्वतंत्रता के बाद नेली सेनगुप्त ने प्रथम भारतीय प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू के विशेष अनुरोध पर, अपने पति के गृहनगर चटगाँव में पूर्वी पाकिस्तान में रहने का विकल्प चुना, पंडित नेहरू ने उन्हें पूर्वी पाकिस्तान में हिंदू अल्पसंख्यकों के हितों की देखभाल करने के लिए कहा था। वह 1954 में पूर्वी पाकिस्तान विधान सभा के लिए निर्विरोध चुनी गईं। वह अल्पसंख्यक बोर्ड की सदस्य थीं और चटगाँव के सामाजिक जीवन में सक्रिय भूमिका निभाती थीं। 1970 के बाद जीवन के अंतिम वर्षों में, वह अपने घर पर बुरी तरह गिरने के कारण घायल हो गई थीं। तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की पहल पर, वह चिकित्सा उपचार और देखभाल के लिए कलकत्ता चली गईं। अपने परिवार के साथ कलकत्ता में रहने के दौरान, पाकिस्तानी सरकार ने शत्रु संपत्ति अधिनियम के तहत शत्रु संपत्ति के रूप में उनके आवासीय भवन और अन्य संपत्तियों को जब्त कर लिया। 1971 में जब बांग्लादेश आज़ाद हुआ, तो वह कलकत्ता में ही रहीं, जबकि 1972 में कुछ समय के लिए चटगाँव लौट आईं। 1972 में उनके कूल्हे की हड्डी टूट गई, उन्होंने कलकत्ता में अपना इलाज जारी रखा, जहाँ उनका ऑपरेशन हुआ और सभी चिकित्सा व्यय भारत सरकार द्वारा वहन किये गये। कलकत्ता में उनका जबरदस्त सार्वजनिक स्वागत किया गया और स्वतंत्रता, मानवता और समाज के लिए उनके आजीवन योगदान के लिए भारत सरकार द्वारा उन्हें 1973 में पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया। 23 अक्टूबर 1973 को कलकत्ता में उनकी मृत्यु हो गई। कलकत्ता में ही उनका अंतिम संस्कार किया गया। नेली की कहानी हमें उन सैकड़ो क्रांतिकारी महिलाओं की याद दिलाती है, जिन्होंने देश की आजादी के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया। लेकिन उन्हें वह सम्मान नहीं मिला, जिसकी वह हकदार थीं।

नेली सेनगुप्त के निधन पर अक्टूबर 1973 में प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने कहा था, ‘इंग्लैंड में जन्म लेने के बावजूद, यह उनकी व्यक्तिगत निष्ठा, भारतीय समाज की सेवा और साहस का ही परिणाम था कि संकट के समय उन्हें कांग्रेस अध्यक्ष जैसा जिम्मेदारी का पद दिया गया था।

नेल्ली सेनगुप्त एक अंग्रेजी महिला होने के बावजूद भारत में आई थी और उन्होंने यहाँ के लोगो की अपनी पूरी जिंदगी भर सेवा की। दूसरे देश की नागरिक होने के बाद भी उन्होंने खुद को एक सच्चा भारतीय देशभक्त साबित किया। वो एक अद्भुत समर्पित महिला थीं, जिनमें एक अच्छी महिला होने के सारे गुण मौजूद थे। एक अंग्रेजी महिला होने के बाद भी उन्होंने भारत में आकर त्याग, बलिदान जैसे महान गुणों को अपने अन्दर ढ़ाल लिया था। उन्नीसवी सदी में जिस नवयुग की शुरुवात हुई थी, उसका सही मायने में उन्होने ही प्रतिनिधित्व किया था। ऐसी महान शख्सियत स्वतंत्रता सेनानी नेली सेनगुप्त को आदर्श समाज समिति इंडिया परिवार नमन करता है।

लेखक – धर्मपाल गाँधी

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