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यह एकता बनी रहे : .. राजीव शर्मा ..


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आर्टिकल

यह एकता बनी रहे : .. राजीव शर्मा ..

यह एकता बनी रहे : .. राजीव शर्मा ..

यह एकता बनी रहे : हाल में प्राइवेट टेलीकॉम कंपनियों द्वारा अपनी सेवाओं की क़ीमतों में बढ़ोतरी किए जाने के बाद बीएसएनएल की माँग बढ़ गई है। सोशल मीडिया पर बीएसएनएल के चर्चे हैं। ऐसा लग रहा है कि बीएसएनएल का वही ‘सुनहरा दौर’ लौटकर आने वाला है। कई लोग कह रहे हैं कि उन्होंने बीएसएनएल में सिम पोर्ट करवा ली है या निकट भविष्य में करवाएँगे। वजह साफ़ है- प्राइवेट टेलीकॉम कंपनियों ने जिस तरह सेवाओं की क़ीमतों में बढ़ोतरी की है, वह आम लोगों की जेब पर बहुत भारी पड़ेगी।

लेखक : राजीव शर्मा, कोलसिया, झुंझुनूं, राजस्थान

आज हर सामान्य परिवार में चार या इससे ज़्यादा मोबाइल फ़ोन होना आम बात है। अगर सभी सिम प्राइवेट कंपनियों की हों तो परिवार के बजट पर असर पड़ेगा। यह कहना पूरी तरह सही नहीं है कि हर व्यक्ति इंटरनेट पर ‘टाइम पास’ ही करता है। ऐसे बहुत लोग हैं (जिनमें ख़ुद को शामिल कर सकता हूँ), जिनका पूरा कामकाज इंटरनेट पर आधारित है। कई विद्यार्थी पढ़ाई में इसका उपयोग करते हैं।

यहाँ मेरा उद्देश्य किसी कंपनी की प्रशंसा या निंदा करना नहीं है। मैं तथ्यों पर बात करूँगा। लोग बीएसएनएल में पोर्ट करवा रहे हैं। बिल्कुल कराएँ, आपका अधिकार है। मैं भी सोच रहा हूँ कि एक सिम को पोर्ट करवा लूँ। मेरा सवाल है- हम प्राइवेट टेलीकॉम कंपनियों की ओर गए ही क्यों थे? क्या प्राइवेट कंपनियों के बाज़ार में आने से पहले सबकुछ बढ़िया था?

मैं भी चाहता हूँ कि बीएसएनएल मज़बूत हो। किसी समय यह कंपनी सच में बहुत मज़बूत थी। उसके बाद ऐसा क्या हुआ कि पूरे मैदान पर प्राइवेट कंपनियों का दबदबा हो गया? मुझे याद आता है, पहले, गाँवों में बीएसएनएल के टेलीफ़ोन होते थे। जिन लोगों के घरों में बीएसएनएल का कनेक्शन होता, वे ‘बड़े आदमी’ और ‘पैसेवाले’ समझे जाते थे। उसका कनेक्शन लेने की प्रक्रिया भी आसान नहीं होती थी। दफ़्तरों के चक्कर लगाने पड़ते थे। कनेक्शन हो गया तो कोई-न-कोई समस्या आती रहती थी। अक्सर सुनने में आता कि उनका फोन तो ‘डेड’ पड़ा है। बिल भी ‘ज़ोरदार’ आता था। इंटरनेट सेवा बहुत महँगी थी।

यहाँ प्राइवेट कंपनियों ने बाज़ार को समझा और नए- नए ऑफ़र लाकर अपना विस्तार करने लगीं। लोगों ने उन्हें हाथोंहाथ लिया। कुछ समस्याएँ वहाँ भी थीं, लेकिन उन कंपनियों ने पिछले अनुभवों से सबक़ लिया। इस तरह गाँव-ढाणियों तक प्राइवेट कंपनियाँ छा गईं।

उसके कुछ ही साल बाद में लेखन के क्षेत्र में आया था। एक वकील बाबू ने मुझे अपने अख़बार के संपादकीय विभाग में कुछ ज़िम्मेदारियाँ दी थीं। उनके दफ़्तर का फ़ोन और इंटरनेट कनेक्शन बीएसएनएल का था, जिसमें हर हफ़्ते कोई-न-कोई दिक़्क़त आती रहती थी। इससे कामकाज बाधित होता था। मैं वकील बाबू से कहता तो वे किसी को बीएसएनएल दफ़्तर भेजते थे।

एक दिन फिर दिक़्क़त आ गई। वकील बाबू के घर पर कोई कार्यक्रम भी था। उन्होंने अपने सहयोगियों को आवाज़ दी। पता चला कि कोई टेंट वाले की मदद कर रहा है, कोई आलू छील रहा है, कोई पनीर लाने बाज़ार गया है। जब कोई नहीं मिला तो वकील बाबू ने मुझसे कहा, ‘बालक! आज तू चला जा।’

मैंने एक प्रार्थनापत्र लिखा और बीएसएनएल के दफ़्तर चला गया। वहाँ ज़्यादातर बुजुर्ग लोग बैठे थे, जिनके चेहरों से गंभीरता टपक रही थी। कहीं कोई उत्साह नहीं था, बिल्कुल ठंडा माहौल! किसी की यह जानने में रुचि ही नहीं थी कि यह लड़का प्रार्थनापत्र लेकर क्यों ‘भटक’ रहा है? जिसके पास भी जाओ, वह दूसरे बाबू के पास भेज देता।

मैं कई जगह धक्के खाकर एक अंकल के पास पहुँचा, जो हाथ में काँच का गिलास लिए चाय पी रहे थे। उन्होंने प्रार्थनापत्र लिया, उसे देखा और बोले- ‘तुम्हारी लिखावट बहुत अच्छी है।’

मैंने कहा- ‘सर, क्या मेरी समस्या का समाधान हो सकता है? काफी समय से यहाँ-वहाँ चक्कर लगा रहा हूँ।’

बोले- ‘तुम्हें सीधे यहीं आना था, चक्कर लगाए ही क्यों

मैंने कहा- ‘मुझे पता नहीं था। अनजान व्यक्ति को कैसे पता होगा?’

उसके बाद उन्होंने अपने उच्चाधिकारियों के लिए ‘कुछ कहा’ और एक तकनीकी वजह बताई, जिससे फ़ोन और इंटरनेट में दिक़्क़त आ रही थी। उन्होंने शाम तक ठीक होने का आश्वासन दिया। (ऐसा हुआ भी।)

वहाँ से दफ़्तर लौटकर मैंने वकील बाबू से कहा कि आए दिन चक्कर लगाने से बेहतर है कि हम किसी प्राइवेट कंपनी का कनेक्शन लें, ताकि काम में बाधा न आए।

उन्होंने कहा, ‘पुराना नंबर है, इसलिए नहीं बदला। अगर भविष्य में ऐसी दिक़्क़त आई तो दूसरा कनेक्शन करवा लेंगे।’

उन्होंने कनेक्शन करवाया या नहीं, मुझे नहीं पता, क्योंकि कुछ दिनों बाद मैं दूसरे अख़बार के संपादकीय विभाग से जुड़ गया था।

यह एक छोटा-सा उदाहरण है, जिससे हम समझ सकते हैं कि भारतीय बाज़ार में प्राइवेट कंपनियाँ अपना दबदबा बनाने में क्यों कामयाब रहीं। साल 2016 में जब जियो का इंटरनेट आया तो उसने कई कंपनियों के सिंहासन हिला दिए थे। लोगों ने भी ‘मुफ़्त इंटरनेट’ के भरपूर मज़े लिए थे। हालाँकि मुझ जैसा सामान्य बुद्धि का व्यक्ति भी यह बात समझ सकता है कि ऐसे ‘मज़े’ हमेशा नहीं रहेंगे, एक दिन ‘पूरी क़ीमत’ वसूली जाएगी। तो वह दिन आ गया! अब प्राइवेट कंपनियों ने क़ीमतें खूब बढ़ा दी हैं।

सवाल है- क्या बीएसएनएल में पोर्ट करवाना चाहिए, चूँकि इसकी सेवाएँ तुलनात्मक रूप से सस्ती हैं? मेरा जवाब है- अगर आपके यहाँ इसकी सेवाएँ ठीक हैं, कामकाज बढ़िया चल सकता है, कभी कोई दिक़्क़त आने पर कर्मचारी ‘समय पर सहयोग’ करते हैं तो आज़माकर देख सकते हैं।

कई लोग कहते हैं कि उनके यहां बीएसएनएल की सेवाएँ बहुत बढ़िया हैं, कभी कोई दिक़्क़त नहीं हुई, तो वहाँ पोर्ट करवाने में फ़ायदा है। इसके उलट, कई लोग यह भी कहते हैं कि उनके यहाँ बीएसएनएल की सेवाएँ बेहतर नहीं हुई हैं, तो वहाँ पोर्ट करवाने से कोई फायदा नहीं है। अगर करवा लेंगे तो परेशान होकर लौटना पड़ेगा।

हाँ, इस मामले में जनता ने जिस तरह ‘एकता’ दिखाई, उसकी तारीफ़ करनी पड़ेगी। यही एकता सरकारी स्कूलों की दशा सुधारने के लिए क्यों नहीं दिखाते? अपने नेताओं से सवाल क्यों नहीं करते? जिस सरकारी स्कूल में आपका बच्चा पढ़ने जाता है, वहाँ कितने नेताओं, सरकारी अधिकारियों-कर्मचारियों और बड़े लोगों के बच्चे पढ़ने जाते हैं? यह पता कीजिए।

अपने विधायक, सांसद से मांग कीजिए कि वे सरकार पर दबाव डालें, ताकि हर जनप्रतिनिधि और सरकारी अधिकारी-कर्मचारी के बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ें। यह नहीं होना चाहिए कि वेतन तो सरकारी ख़ज़ाने से लें, लेकिन अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूलों में भेजें।

उसके बाद सरकारी अस्पतालों का मुद्दा उठाएँ। जनता की एकता बनी रहनी चाहिए। कोई भी नेता इसमें जाति, संप्रदाय, भाषा, प्रांत और अन्य किसी पैंतरेबाज़ी से फूट न डाल पाए।

इस कहानी से यह भी शिक्षा मिलती है कि सरकार हो या कोई कंपनी (प्राइवेट/सरकारी), उसे इतना सिर नहीं चढ़ाना चाहिए कि वह मनमानी करने पर उतर आए।

लेखक : राजीव शर्मा, कोलसिया, झुंझुनूं, राजस्थान

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