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राजस्थान में मंत्रिमंडल का अब कब होगा विस्तार?:लोकसभा चुनाव के बदले समीकरण से 7 बड़े नेताओं का क्या रहेगा भविष्य, भाजपा-कांग्रेस में बढ़ सकती गुटबाजियां


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राजस्थान में मंत्रिमंडल का अब कब होगा विस्तार?:लोकसभा चुनाव के बदले समीकरण से 7 बड़े नेताओं का क्या रहेगा भविष्य, भाजपा-कांग्रेस में बढ़ सकती गुटबाजियां

राजस्थान में मंत्रिमंडल का अब कब होगा विस्तार?:लोकसभा चुनाव के बदले समीकरण से 7 बड़े नेताओं का क्या रहेगा भविष्य, भाजपा-कांग्रेस में बढ़ सकती गुटबाजियां

जयपुर : राजस्थान में आए लोकसभा चुनाव के नतीजों के बाद बीजेपी और कांग्रेस दोनों ही पार्टियों में सियासी परिस्थितियां करवट बदल सकती हैं। सत्तासीन पार्टी बीजेपी को जहां 11 सीटों का भारी नुकसान हुआ है तो वहीं कांग्रेस ने गठबंधन के साथ मिलकर 11 सीटों पर कब्जा जमाया है। पहले माना जा रहा था कि नतीजों के बाद प्रदेश में भजनलाल कैबिनेट का विस्तार होगा और चुनावी परफॉर्मेंस के आधार पर कई नेताओं को बड़ी जिम्मेदारी सौंपी जा सकती है। नतीजों ने कई नेताओं के मंत्री बनने के समीकरणों को ऊपर-नीचे कर दिया है।

राजनीतिक एक्सपट्‌र्स का आकलन है कि चुनाव परिणाम से कांग्रेस में ही नहीं बीजेपी में भी गुटबाजी हो सकती है। प्रदेश में दोनों ही पार्टियों कांग्रेस और बीजेपी में 7 बड़े नेता हैं] जिनके समर्थकों के गुट माने जाते हैं। इस रिपोर्ट में आपको बताएंगे कि मंत्रिमंडल विस्तार की क्या स्थितियां बन रही हैं और सभी गुटबाजी वाले नेताओं का राजनीतिक भविष्य क्या होगा?

मंत्रिमंडल विस्तार कब?

एक्सपट्‌र्स का कहना है कि पहले चर्चा थी कि प्रदेश में नतीजों के बाद मंत्रिमंडल विस्तार हो जाएगा। लेकिन किसी को इस बात का अनुमान नहीं था कि भाजपा इतनी सीटें खो देगी और कांग्रेस गठबंधन 25 में से 11 पर कब्जा जमा लेगा। सभी मानकर चल रहे थे कि भाजपा को ज्यादा से ज्यादा 5 सीटों का नुकसान होगा और उसके बाद परफॉर्मेंस के आधार पर मंत्रिमंडल में नाम हटेंगे-जुड़ेंगे या प्रमोशन-डिमोशन होगा।

लेकिन राजस्थान के चुनावी नतीजों ने सभी को चौंका दिया। अब बीजेपी आलाकमान केंद्र में सरकार बनाने और मंत्रिमंडल के गठन में बिजी रहेगा। वहीं पूर्ण बहुमत नहीं मिलने के कारण पिछले दो बार की तरह कम्फर्टेबल जोन में भी नहीं है। बीजेपी आलाकमान के सामने पहली प्राथमिकता है कि अपने सभी सहयोगी दलों को राजी रखते हुए सरकार बना ले और उसके बाद केंद्र में बिना कोई झंझट के सरकार अपना कार्य करती रहे। बीजेपी आलाकमान का राजस्थान पर फिलहाल उतना ध्यान नहीं है, जितना पहले था।

राजस्थान में अभी मुख्यमंत्री सहित 25 मंत्री हैं। पोर्टफोलियो के हिसाब से अभी 5 मंत्री और बनाए जा सकते हैं।
राजस्थान में अभी मुख्यमंत्री सहित 25 मंत्री हैं। पोर्टफोलियो के हिसाब से अभी 5 मंत्री और बनाए जा सकते हैं।

कम से कम छह महीने आगे खिसकी बात

केंद्र में बदली परिस्थितियों में राजस्थान में मंत्रिमंडल विस्तार अब इतनी जल्दी नहीं होने वाला। एक्सपट्‌र्स के अनुसार बहुत हद तक संभव है कि मंत्रिमंडल विस्तार अब इन परिस्थितियों में 6 महीने के भीतर तो नहीं होगा। अभी भजनलाल शर्मा की टीम में न नए सदस्य आएंगे और न पहले से शामिल मंत्रियों को छेड़ा जाएगा। पहले आलाकमान तय करेगा कि राजस्थान से जीते सांसदों में से कम से कम दो या तीन को चुन कर प्रधानमंत्री मोदी की टीम में शामिल किया जाए।

इस बीच राजस्थान सरकार प्रदेश में बजट पेश करने को लेकर बिजी हो जाएगी। बीजेपी आलाकमान को राजस्थान को लेकर चिंता जरूर बढ़ गई होगी। जहां बीजेपी की सरकार नहीं रहते हुए पिछली बार सभी 25 सीटें (एक गठबंधन) हासिल कर लीं, इस बार सरकार बनने के बाद भी 11 सीटें हाथ से निकल गईं। जब बीजेपी आलाकमान को संतोष हो जाएगा कि केंद्र में सरकार पर कोई दिक्कत नहीं होने वाली, तब राजस्थान में मंत्रिमंडल विस्तार किया जाएगा।

पार्टियों में गुटबाजी बढ़ने की आशंका: कांग्रेस में पहले से ही, भाजपा में फिर उठाएगी सिर

एक्सपट्‌र्स का मानना है कि लोकसभा रिजल्ट ने यहां दोनों ही पार्टियों में गुटबाजी बढ़ने की आशंका को बढ़ा दिया है। कांग्रेस में गहलोत और पायलट पहले से ही दो धड़े माने जाते हैं। दोनों के बीच गुटबाजी का नजारा लोकसभा चुनाव के दौरान और नतीजे आने के बाद भी देखने को मिल रहा है। इधर, बीजेपी में विधानसभा चुनाव के बाद गुटबाजी थमी नजर आई थी। अब रिजल्ट कुछ इस तरह के आए हैं कि गुटबाजी को लेकर कार्यकर्ताओं और समर्थकों के बीच फिर चिंता उठ खड़ी हुई है।

बीजेपी के कौन से नेताओं पर रहेंगी नजरें?

1. वसुंधरा राजे, पूर्व मुख्यमंत्री

वसुंधरा राजे अभी पार्टी में राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं।
वसुंधरा राजे अभी पार्टी में राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि बीजेपी के पास पूरे राजस्थान में प्रभाव रखने वाली एकमात्र नेता वसुंधरा राजे हैं। मुख्यमंत्री रहते हुए वसुंधरा राजे के पास भरपूर समर्थक विधायक थे। लेकिन राजे को विधानसभा चुनाव के पहले से ही साइड लाइन करने की प्रक्रिया शुरू कर दी थी। हालांकि टिकट प्रक्रिया में आलाकमान ने उन्हें जरूर साथ रखा। वे अपने कुछ समर्थकों को भी टिकट दिलाने में कामयाब रहीं। लेकिन बीजेपी के प्रचार अभियान में उन्हें कोई बड़ी भूमिका में नहीं रखा गया।

इधर, आलाकमान की ओर से लोकसभा चुनाव में भी उन्हें कोई प्रभावी भूमिका नहीं दी गई। लेकिन अपने बेटे दुष्यंत सिंह के लिए झालावाड़-बारां सीट पर भरपूर प्रचार किया। वे पांचवीं बार जीते भी। आलाकमान ने राजे और उनके समर्थक बड़े नेताओं के बजाय सीएम सहित अधिकतर नए कैबिनेट मंत्री बनाने में अनुभव की जगह नए चेहरों को तवज्जो दी।

एक्सपट्‌र्स के अनुसार ये रिजल्ट बताता है कि नई टीम बनाने के चक्कर में पुराने अनुभवी चेहरों को नहीं भूलना चाहिए। नहीं तो वसुंधरा राजे के समर्थक नेता मुखर हो सकते हैं। ऐसे में विधायक कालीचरण सराफ, प्रताप सिंह सिंघवी और टिकट कटने वाले नेताओं में राजपाल सिंह शेखावत, अशोक परनामी जैसे समर्थकों को जिम्मेदारी वाले पद देने होंगे।

2. राजेंद्र राठौड़, पूर्व नेता प्रतिपक्ष

राजेंद्र राठौड़ अभी की विधानसभा में हार काफी चर्चा में रही थी।
राजेंद्र राठौड़ अभी की विधानसभा में हार काफी चर्चा में रही थी।

कांग्रेस ने भाजपा पर जब भी गुटबाजी का आरोप लगाया है, तब राठौड़ गुट का भी जिक्र किया है। राठौड़ विधानसभा चुनाव हारे, तो बात चली कि उन्हें राज्यसभा से मौका दिया जा सकता है। पार्टी ने उन्हें राज्यसभा के लिए उम्मीदवार नहीं बनाया। फिर लोकसभा चुनाव में उन्हें टिकट देने की चर्चा चलती रही, लेकिन कहीं से भी टिकट नहीं दिया गया।

एक्सपट्‌र्स के अनुसार राजेंद्र राठौड़ के संपर्क में विधायक रहते तो हैं, लेकिन इतने कट्टर समर्थक नहीं है। इस कारण कहा जा सकता है कि राठौड़ का कोई गुट नहीं है। वे पूरे राजस्थान में पहचान रखने वाले नेताओं में एक हैं। विधानसभा चुनाव रिजल्ट के बाद से उठे विवाद ने और चूरू में भाजपा की हार ने उन्हें निराश किया है। ऐसे में वे पार्टी में खुद के लिए कुछ मांगने की स्थिति में नहीं है।

एक्सपट्‌र्स का मानना है कि अकेले राठौड़ जिम्मेदार नहीं हैं, बल्कि शेखावाटी में हजारों परिवार सेना से जुड़े हुए हैं और इस पूरे क्षेत्र में ‘अग्निवीर’ योजना का खासा विरोध देखा गया है। इसका भी नुकसान बीजेपी को हुआ है। उनके अनुसार अनुभवी नेता अपने समय को पहचानता है और जल्दबाजी कर खुद का नुकसान नहीं करवाते हैं।

3. सतीश पूनिया, पूर्व प्रदेशाध्यक्ष

सतीश पूनिया शेखावाटी से आते हैं। हाल ही में उन्हें हरियाणा का चुनाव प्रभारी नियुक्त किया गया था।
सतीश पूनिया शेखावाटी से आते हैं। हाल ही में उन्हें हरियाणा का चुनाव प्रभारी नियुक्त किया गया था।

सतीश पूनिया जब प्रदेश अध्यक्ष थे, तब कांग्रेस उनको भी गुटबाजी के लिए निशाना बनाती थी। पूनिया को विधानसभा चुनाव से पहले प्रदेश अध्यक्ष पद से हटा दिया गया था। जब लोकसभा चुनावों में प्रचार सिर पर था, तब उन्हें भाजपा ने हरियाणा का प्रभारी बनाकर भेजा। पार्टी के आदेश पर उन्होंने राजस्थान की बजाय हरियाणा में अधिक समय बिताया। पूनिया तब हरियाणा के प्रभारी बने, जब बीजेपी वहां उम्मीदवारों के नाम घोषित कर चुकी थी। ऐसे में उनकी प्रत्याशी चयन में भूमिका नहीं रही।

पूनिया को देरी से जिम्मेदारी मिली, लेकिन बीजेपी के प्रदर्शन को लेकर रणनीति में उनकी भूमिका रही। फिर भी किसान आंदोलन सहित कई मुद्दों पर बीजेपी के विरोध के बावजूद वहां 5 सीटें खाते में आ गईं। इधर शेखावाटी की सभी सीटों पर बीजेपी को नुकसान उठाना पड़ा।

एक्सपट्‌र्स के अनुसार, प्रदेश अध्यक्ष रहते हुए पूनिया ने राजस्थान में अपनी नई टीम बनाई थी। पूनिया चूंकि शेखावाटी से ही आते हैं और अगर वे राजस्थान में सक्रिय रहते तो जाट बेल्ट में समाज (जाट) को साधने में भूमिका निभाते। बीजेपी को शायद इससे फायदा मिल सकता था। लोकसभा चुनाव के बाद एक बार फिर पूनिया को राजस्थान में बड़ी भूमिका में देखे जाने की चर्चाएं चल रही हैं।

4. ओम बिरला, पूर्व लोकसभा स्पीकर

ओम बिरला ने कोटा लोकसभा से तीसरी बार चुनाव जीता है।
ओम बिरला ने कोटा लोकसभा से तीसरी बार चुनाव जीता है।

केंद्र में सरकार बनाने के लिए बीजेपी अपने दम पर पूरा बहुमत नहीं ला पाई है। पिछली सरकार में ओम बिरला लोकसभा अध्यक्ष रहे। एक्सपट्‌र्स मानते हैं कि सहयोगी दलों के साथ सरकार बनाने के कारण उनका इस पद पर अब बने रहना मुश्किल है।

विधानसभा चुनाव के समय उनके चेहरे को भी संभावित सीएम के चेहरों में शामिल किया जाता था। तब उनके गुट को लेकर भी चर्चा चलती थी। उन्हें मोदी और शाह के नजदीकियों में माना जाता रहा है। इस कारण उन्होंने कभी राजनीतिक विवाद खड़ा नहीं किया। बिरला गुट केवल कांग्रेस के आरोपों तक ही सीमित हैं।

अब कांग्रेस खेमे के नेताओं की बात…

1. अशोक गहलोत, पूर्व मुख्यमंत्री

पार्टी ने तीन बार के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को अमेठी और रायबरेली सीट का प्रभारी बनाकर भेजा था। दोनों ही सीटें कांग्रेस ने जीत ली हैं।
पार्टी ने तीन बार के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को अमेठी और रायबरेली सीट का प्रभारी बनाकर भेजा था। दोनों ही सीटें कांग्रेस ने जीत ली हैं।

पहले बीजेपी में वसुंधरा राजे को बीजेपी का चेहरा माना जाता रहा। वैसे ही कांग्रेस में अशोक गहलोत को। पिछली अशोक गहलोत सरकार में जब सियासी संकट आया था, तो गहलोत गुट यानी उनके समर्थकों को आसानी से पहचाना जा सकता था। अधिक समर्थक होने के कारण वे अपनी सरकार बचा पाए थे। वे पिछले दो बार से अपने बेटे वैभव को भले ही लोकसभा चुनाव नहीं जितवा सके, लेकिन इस बार राजस्थान में कांग्रेस का सुधरा हुआ प्रदर्शन उनके खाते में जाएगा।

एक्सपट्‌र्स का मानना है कि लोकसभा परिणाम ने कांग्रेस में जैसा उत्साह है, उससे अशोक गहलोत के समर्थक भी उत्साहित हैं। गहलोत कांग्रेस आलाकमान के नजदीक हैं। इस कारण उन्हें अमेठी के प्रभार जैसी जिम्मेदारी मिली। वहां उन्होंने राहुल गांधी का प्रचार किया और इस बार जीत हासिल हुई। एक्सपट्‌र्स के अनुसार उनके गुट का मनमुटाव पायलट गुट से है। वह समाप्त होता नहीं दिख रहा।

2. सचिन पायलट, पूर्व डिप्टी सीएम

सचिन पायलट को कांग्रेस ने छत्तीसगढ़ में चुनाव प्रभारी नियुक्त किया था।
सचिन पायलट को कांग्रेस ने छत्तीसगढ़ में चुनाव प्रभारी नियुक्त किया था।

कांग्रेस के एक और प्रभावशाली नेता हैं सचिन पायलट। गहलोत के जैसे ही उनका भी प्रभाव पूरे राजस्थान में देखा जा सकता है। उनके समर्थक नेता भी उनके साथ खड़े रहते हैं। इस बार उन्होंने बृजेंद्र ओला, मुरारी लाल मीणा, हरीशचंद्र मीणा सहित पांच समर्थकों को चुनाव मैदान में उतारा था। जयपुर ग्रामीण सीट पर पायलट समर्थक अनिल चोपड़ा ने बीजेपी को जीतने में पसीने छुड़ा दिए।

पायलट का गुट में उनके कट्टर समर्थकों की भरमार है। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के प्रदर्शन ने उनके समर्थकों का उत्साह बढ़ाया है। पायलट के प्रभाव कांग्रेस आलाकमान के सामने और बढ़ जाएगा। एक्सपट्‌र्स के अनुसार कांग्रेस फिलहाल पायलट गुट और गहलोत गुट के बीच बंटी हुई रहेगी।

3. गोविंद सिंह डोटासरा, प्रदेशाध्यक्ष राजस्थान कांग्रेस

गोविंद सिंह डोटासरा शेखावाटी से आते हैं। इस अंचल की सभी सीटों (सीकर, चूरू, झुंझुनूं) पर कांग्रेस प्रत्याशियों ने जीत दर्ज की है।
गोविंद सिंह डोटासरा शेखावाटी से आते हैं। इस अंचल की सभी सीटों (सीकर, चूरू, झुंझुनूं) पर कांग्रेस प्रत्याशियों ने जीत दर्ज की है।

प्रदेश अध्यक्ष होने के नाते कांग्रेस के प्रदर्शन का श्रेय गोविंद सिंह डोटासरा को भी भरपूर मिलता है। उन्हें सियासी संकट के समय अध्यक्ष पद मिला था। उस समय वे गहलोत सरकार में शिक्षा मंत्री थे। उन्होंने गहलोत के खेमे को चुना था। ऐसे में उन्हें अशोक गहलोत का समर्थक माना जाता है।

एक्सपट्‌र्स का मानना है कि जीत के कारण डोटासरा का प्रभाव भी प्रदेश की राजनीति में बढ़ेगा। भजनलाल सरकार पर जिस तरह से वे हमला कर रहे हैं, उस तरह से अभी कोई कांग्रेस नेता नहीं कर रहा है। गुटबाजी के नजरिए से देखा जाए तो डोटासरा का गुट नहीं है। प्रदेश अध्यक्ष होने के नाते गहलोत और पायलट गुट को संभाले रखना उनके लिए चुनौती भरा रहेगा। गहलोत-पायलट बड़े नेता होने के कारण दोनों की गुटबाजी रोकने में भी उनकी कोई भूमिका नहीं रहेगी। जब भी गुटबाजी बढ़ेगी, मामला आलाकमान तक ही जाएगा।

 

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