“हम एक दूसरे को आहिस्ता-आहिस्ता जानते हैं। उसके लिए ज़रूरी है दूसरे को जानने की इच्छा। अजनबी को अपना बनाने की इच्छा ही आदमी में आदमीयत पैदा करती है।
‘मेरे घर आके तो देखो!’ इस बुलावे में अजनबी के प्रति उत्सुकता के भाव को जगाने की कोशिश है। तुम्हारा मेरे बारे में क्या ख़याल है? क्या तुम मुझे जानते भी हो? जब मैं तुम्हें अपने घर बुलाता हूँ तो तुम्हें ख़ुद में शामिल करना चाहता हूँ। ख़ुद को, थोड़ा ही सही, तुम्हारे सामने खोलना चाहता हूँ। जब मैं तुम्हें अपने घर बुलाती हूँ तो तुम पर भरोसा करती हूँ। इस न्योते में ही यह यक़ीन भी है कि इस दावत को क़बूल किया जाएगा।
“किसी को अपना मेहमान करना इतना आसान नहीं। वैसे ही हर कोई मेजबान भी नहीं हो सकता। दोनों में किसी से जुड़ने की इच्छा होनी चाहिए।
“देश या देस या वतन में घर या पड़ोस की कैफ़ियत होनी चाहिए। उसमें खुलापन होना चाहिए जैसे वह हर किसी गुजरने वाले को दावत दे रहा हो।
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