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चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी भर्ती विशेषांक : राजस्थान के प्रमुख लोकनाट्य


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चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी भर्ती विशेषांक : राजस्थान के प्रमुख लोकनाट्य

राजस्थान की पारंपरिक नृत्य पूरी तरह से रंगीन और जीवंत हैं और उनका अपना महत्व और महत्व है। राजस्थान में, लोक नृत्य किसी उत्सव और उत्सव के आकर्षण हैं।

संकलनकर्ता किशोर सिंह चौहान उदयपुर विशेषज्ञ इतिहास और कला संस्कृति

चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी भर्ती विशेषांक : राजस्थान के प्रमुख लोकनाट्य : लोक नाट्य की परम्परा बहुत पुरानी है। लोक नाट्य की कथाएं, संवाद व गीत लोकमानस में प्रचलित व उनकी रुचि के अनुरूप होते हैं। ये जनसामान्य के मनोरंजन के लिए उन्हीं के द्वारा मंचित किये जाते हैं। वर्तमान में ऐतिहासिक, पौराणिक व लोक कथाओं के साथ-साथ राजनीति, शासन व्यवस्था व अद्यतन घटनाक्रम को भी इनके द्वारा व्यक्त किया जाता है।

राजस्थान के लोकनाटय बहुरूपी और बहुरंगी हैं। अरावली के पर्वतीय क्षेत्र में भीलों मीणों, बनजारी सहरियों और गरासियों की रंगमयी संस्कृति की झलक देखने को मिलती है। इनका प्राकृतिक परिवेश तथा देवी-देवताओं में आस्था जीवन्त नृत्यों, नाट्‌यों तथा रंगीन परिधान में डूबी संस्कृति का कारण है।

राजस्थान के मरूस्थलीय क्षेत्रों में कठिन परिश्रम करने वाले लोगों के मनोरंजन का कार्य नट मिरासी, भाट व भाण्ड नामक पेशेवर जातियों के लोग करते हैं। इनके वार्तालाप व्यंग्य विनोद प्रधान होत हैं।

अलवर, भरतपुर क्षेत्र के लोक नाट्‌यों में राजस्थान, हरियाणा और उत्तरप्रदेश की लोक संस्कृतियों का मिला-जुला रूप दिखाई देता है। धौलपुर, सवाईमाधोपुर आदि क्षेत्रों के लोक नाट्‌यों पर ब्रजभूमि की संस्कृति का प्रभाव स्पष्ट झलकता है। राजस्थान में लोक नाट्यों के निम्नांकित रूप प्रचलित हैं-

ख्याल

ख्याल 18वीं सदी की शुरुआत से ही राजस्थान के लोक नाट्यों में शामिल थे। इन ख्यालों की विषय-वस्तु पौराणिक या वीराख्यान से संबंधित होती है, जिनमें ऐतिहासिक तत्व भी होते हैं। भौगोलिक अंतर के कारण इन ख्यालों ने विभिन्न रूप ग्रहण कर लिये है। इनमें भाषागत के स्थान पर शैलीगत भिन्नता पायी जाती है। इन ख्यालों में से कुछ की विशेषताएं निम्न प्रकार हैं-

(1) कुचामनी ख्याल

कुचामनी ख्याल का प्रवर्तन प्रसिद्ध लोक नाट्यकार लच्छीराम ने किया। ख्याल परम्परा में उन्होंने अपनी शैली का समावेश किया। लच्छीराम द्वारा रचित ख्यालों में से चाँद नीलगिरी, राव रिडमल तथा मीरा मंगल प्रमुख हैं। उगमराज भी कुचामनी ख्याल के प्रमुख खिलाड़ी है। इस शैली की विशेषताएं निम्नांकित हैं-

  • इसका रूप ऑपेरा जैसा है।
  • इसमें लोकगीतों की प्रधानता है।
  • इसका प्रदर्शन खुले मंच पर किया जाता है।
  • इनमें स्त्री चरित्रों का अभिनय पुरुष पात्रों द्वारा किया जाता है।
  • इस ख्याल में संगत के लिए ढोल वादक, शहनाई वादक, ढोलक व सारंगी वादक मुख्य सहयोगी होते हैं।
  • इन ख्यालों की भाषा सरल होती है तथा सामाजिक व्यंग्य पर आधारित विषय चुने जाते हैं।

(2) शेखावाटी ख्याल

चिड़ावा निवासी नानूराम इस शैली के मुख्य ‘खिलाड़ी रहे हैं। उनके स्वरचित ख्यालों में प्रमुख है-हीर राँझा, हरीचन्द, भर्तृहरि, जयदेव कलाली, ढोला मरवण और आल्हादेव। इस लोक नाट्य शैली की मुख्य विशेषताएं इस प्रकार हैं-

  • प्रभावी पद संचालन ।
  • सम्प्रेषणीय शैली में भाषा और मुद्रा में गीत गायन।
  • वाद्य में प्रायः हारमोनियम, सारंगी, शहनाई, बाँसुरी, नक्कारा तथा ढोलक का प्रयोग होता है।

शेखावाटी इलाके में नानूराम के शिष्य दूलिया राणा के ख्याल बहुत लोकप्रिय हैं। गीतमय संवाद उनके ख्यालों को साहित्यिक तथा रंगमंच के अनुकूल बनाते हैं। दूलिया राणा के परिवार के लोग ही इन ख्यालों में होने वाले व्यय का वहन करते हैं।

(3) जयपुरी ख्याल

गुणीजनखाना के कलाकार जयपुरी ख्यालों में भाग लेते थे। इस ख्याल की कुछ निजी विशेषताएं है, जो इसे अन्य ख्यालों से भिन्न बनाती हैं, वे हैं-

  • स्त्री पात्रों की भूमिका का निर्वहन स्त्रियां भी करती हैं।
  • इस ख्याल में नये प्रयोगों की अत्यधिक संभावनाएं हैं।
  • इसमें समाचार पत्रों, कविता, संगीत, नृत्य, गान व अभिनय का सुन्दर समावेश मिलता है।
  • इस शैली के कुछ लोकप्रिय ख्याल जोगी-जोगन, कान-गूजरी, मियाँ-बीबू, पठान, रसीली तम्बोलन आदि हैं।

(4) हेला ख्याल

हेला ख्याल दौसा, लालसोट व सवाईमाधोपुर क्षेत्र का प्रसिद्ध लोकनाट्य है। इस ख्याल के प्रमुख प्रेरक शायर हेला थे। बम (बड़ा नगाड़ा) के प्रयोग के साथ इस ख्याल का प्रारम्भ होता है। साथ में नौबत बजाया जाता है। इस ख्याल की प्रमुख विशेषता ‘हेला देना’ (लम्बी टेर में आवाज देना) है।

(5) कन्हैया ख्याल

कन्हैया ख्याल करौली, सवाई माधोपुर, धौलपुर, भरतपुर व दौसा क्षेत्र का प्रसिद्ध लोकनाट्य है। इस ख्याल में कही जाने वाली मुख्य कथा को ‘कहन’ तथा मुख्य पात्र को ‘मेड़िया’ कहते हैं।

(6) तुर्रा कलंगी ख्याल

मेवाड़ के शाह अली और तुकनगीर नामक संत पीरों ने 400 वर्ष पूर्व तुर्रा कलंगी की रचना की। ‘तुर्रा को ‘शिव’ और ‘कलंगी’ को ‘पार्वती’ का प्रतीक माना जाता है। तुकनगीर ‘तुर्रा के तथा शाह अली ‘कलंगी’ के पक्षकार थे। इनके शिव-शक्ति संबंधी विचारों को लोगों तक पहुंचाने का मुख्य माध्यम काव्यमय रचनाएं थीं, जिन्हें ‘दंगल’ के नाम से जानते हैं। इसके संवादों को ‘बोल’ कहते हैं और ये काव्यत्मक होते हैं। तुर्रा कलंगी के सर्वप्रथम खेले गए ख्याल का नाम ‘तुर्रा कलंगी का ख्याल’ था। इसकी प्रकृति गैर व्यावसायिक है। इसमें 20 फुट ऊँचा रंगमंच बनाकर उसकी राजस्थानी शैली में भरपूर सजावट की जाती है। इस लोकनाट्य में दर्शक के भाग लेने की सर्वाधिक संभावनाएं होती हैं। इसमें चंग बजाया जाता है।

इस ख्याल के मुख्य केन्द्र घोसूण्डा, चित्तौड़, निम्बाहेड़ा तथा नीमच (मध्य प्रदेश) हैं। इन स्थानों पर इस ख्याल के सर्वश्रेष्ठ कलाकार सोनी जयदयाल, चेतराम, हमीद बेग, ताराचंद तथा ठाकुर ओंकारसिंह आदि हैं।

गवरी

वादन, संवाद, प्रस्तुतिकरण और लोक-संस्कृति के प्रतीकों में मेवाड़ के भीलों की ‘गवरी’ अनूठी है। इसमें पौराणिक कथाओं, लोक-गाथाओं और लोक जीवन की विभिन्न झाँकियों पर आधारित नृत्य नाटिकाएं होती हैं। गवरी एक धार्मिक लोकनाट्य है जो शिव भस्मासुर की कथा पर आधारित है।

रक्षाबंधन के दूसरे दिन भादवा कृष्णा प्रतिपदा को खेड़ा देवी से भोपा गवरी मंचन की आज्ञा लेता है। इसके बाद पात्रों के वस्त्र बनते हैं। पात्र मंदिरों में ‘धोक’ देकर नव-लाख देवी-देवता, चौसठ योगिनी और बावन भैंरू को स्मरण करते हैं। गवरी सवा महीने तक खेली जाती है। इस अवधि में शराब, माँस और हरी सब्जी का निषेध होता है। जिस गाँव से गवरी आरम्भ होती है वह इसका खर्च वहन करता है।

गवरी का मुख्य पात्र बूडिया होता है। ‘राईयां’ स्त्री रूप में पार्वती और विष्णु की प्रतीक होती है। झामट्या लोकभाषा में कविता पाठ करता है। कुटकडिया उसे दोहराते हुए सूत्रधार का काम करता है। बूडिया कुटकडिया के संवाद में पूरक बनता है। अन्य पात्र ‘खेला’ कहलाते हैं। गवरी में केवल पुरुष पात्र होते हैं। इसमें गणपति, भमरिया, भेआवड़, मीणा, कान-गूजरी, जोगी, खाड़लिया भूत, लाखा बणजारा, नटड़ी तथा माता और शेर के खेल होते हैं।

रम्मत

होली के अवसर पर जितने प्रकार के लोकानुरंजन राजस्थान में प्रचलित हैं उनमें ‘रम्मत का विशिष्ट स्थान है। रम्मत जैसलमेर, फलौदी तथा बीकानेर में मुख्य रूप से आयोजित होती है। इसमें राजस्थान के सुविख्यात लोक नायकों एवं महापुरुषों पर रचित काव्य रचनाओं को रंगमंच के ऊपर मंचित किया गया है। मनीराम व्यास, तुलसीराम, फागू महाराज, सूआ महाराज, तेज कवि (जैसलमेरी) आदि रम्मतों के प्रमुख रचयिता है। तेज कवि जैसलमेरी ने रम्मत का अखाड़ा श्रीकृष्ण कम्पनी के नाम से चालू किया। सन् 1943 में उन्होंने ‘स्वतंत्र बावनी की रचना की और उसे महात्मा गाँधी को भेंट कर दी।

रम्मत की सर्वाधिक उल्लेखनीय विशेषता है- उसकी साहित्यिकता। इस व्यावसायिकता के युग में रम्मत आज भी सामुदायिक लोकनाट्य का रूप लिए हुए है। रम्मत की मूल ऊर्जा टेरिये होते हैं। रम्मत की मंच योजना खुले मोहल्ला या मंडी (बाजार के चौक) में होती है। बड़े-बड़े लकड़ी के पाटों पर राजा-रानी के बैठने के लिए छतरीनुमा सिंहासन बनाया जाता है। मुख्य मंच के चारों ओर दर्शक बैठते हैं। ऊँचे मंच पर वादक नगाडा, तबला, झांझ, चिमटा, तंदुरा, ढोलक, हारमोनियम आदि लेकर एक कोने में बैठते हैं। टेरिये के बोल के साथ पात्र नाचते हुए अपनी कला प्रदर्शित करते हैं।

बीकानेर की रम्मतों में आचार्यों की चौक की अमरसिंह राठौड़ की रम्मत, बिस्सों की चौक की चौबेल नौटंकी की रम्मत, कीकाणी व्यासों के चौक की जमनादास जी की रम्मत प्रसिद्ध हैं।

तमाशा

तमाशा जयपुर का प्रसिद्ध लोक नाट्य है। यह महाराजा प्रतापसिंह के काल में शुरू हुआ। नट्ट परिवार परम्परागत रूप से आज भी तमाशा का लोक मंचन करता है। फूलजी भट्ट, गोपीकृष्ण भटट व वासुदेव भट्ट इस परम्परा को जीवित रखे हुए हैं। ‘गोपीचन्द’ तथा ‘हीर रांझा मुख्य तमाशे हैं। तमाशे का आयोजन खुले मंच पर होता है, जिसे ‘अखाड़ा’ कहते हैं। संगीत, नृत्य और गायन, इन तीनों की तमाशे में प्रधानता होती है।

“स्वांग”

लोक-नाट्यों में स्वांग’ की भी एक परम्परा है। स्वांग का अर्थ है किसी विशेष ऐतिहासिक पौराणिक, लोक प्रसिद्ध या समाज में प्रसिद्ध चरित्र तथा देवी-देवताओं की तरह मेकअप करना व वेशभूषण धारण करना। स्वांग गाँवों में अधिक प्रचलित है। इसका कलाकार बहरूपिया कहलाता है। इस विलुप्तप्रायः कला का सबसे नामी कलाकार केलवा का परशुराम है। इसके प्रसिद्ध कलाकार जानकी लाल भांड (भीलवाड़ा) ने भारत उत्सवों में राजस्थान का प्रतिनिधित्व किया है। जानकीलाल को वर्ष 2024 में पद्म श्री पुरस्कार मिला!

क्या आप जानते हैं?

दूल्हे की बारात जब लड़की वाले के यहाँ चली जाती है, तब पीछे से वर पक्ष की महिलाओं द्वारा वर-वधू की नकल के रूप में जो स्वांग प्रदर्शित किया जाता है उसे टूटिया, टूटकी अथवा खोड्या निकालना कहते हैं। इसमें एक महिला वर तथा दूसरी वधू बनती है तथा उनका नकली विवाह कराया जाता है। इसका एकमात्र उद्देश्य असली वर-वधू को आधि-व्याधि से मुक्त रखने की मनोकामना है।

लीला नाट्य

राजस्थानी लोकनाट्यों में लीला नाट्यों की महत्वपूर्ण भूमिका है। रामलीला तथा रासलीला के अतिरिक्त लीलाओं के कुछ और रूप भी प्रचलित हैं, जैसे- रावलों की रामत, समया, गवरी, सनकादिको की लीलाएं, गरासियों की गोर लीलाएं, रामलीला और कृष्ण लीला।

रासलीलाओं में श्रीकृष्ण के बाल्यकाल और किशोरावस्था की लीलाओं का प्रस्तुतीकरण किया जाता है। फुलेरा, जयपुर, असलपुर, हरदोणा, गुण्डा आदि में रासलीला की अनेक मण्डलियां हैं। रामलीला का मुख्य प्रयोजन भगवान राम के जीवन प्रसंगों का जीवन्त चित्रण है। इसके प्रस्तुतीकरण में भरतपुर, पाटूदा तथा बिसाऊ की अपनी अलग पहचान है। रामजीवन से संबंधित महत्वपूर्ण ‘समयों’ (अर्थात् समय) को इस नाट्यशैली में प्रस्तुत किया जाता है। इसमें नृत्य, गीत एवं विभिन्न वाद्यों का प्रयोग किया जाता है।

गोर का आयोजन गरासियों द्वारा वैशाख शुक्ल चतुर्दशी को ‘भख्योर की गणगोर के नाम से किया जाता है। इसमें लकड़ी की गोर एवं हेसर को गरासिया स्त्रिया अपने सिर पर रखकर नृत्य करती हैं। इनके बीच में पुरुष मुखौटा लगाकर तलवारबाजी का प्रदर्शन करता है।

सनकादिकों की लीलाएं राजस्थान में अत्यन्त प्रसिद्ध हैं। इन लीलाओं के प्रमुख अखाड़े घोसुंडा तथा बस्सी हैं। घोसुंडा में राधा-कृष्ण के युगल स्वरूप एवं रासादि लीलाओं का आयोजन किया जाता है। अवतारों के चेहरे विभिन्न प्रकार के मुखौटे धारण किए रहते हैं। बस्सी में ब्रह्मा, गणेश, कालिका, हिरण्यकश्यप, नृसिंहावतार आदि की झांकियां भी प्रदर्शित की जाती हैं।

नौटंकी

धौलपुर, करौली, अलवर, गंगापुर, भरतपुर तथा सवाईमाधोपुर में नौटंकी का खेल प्रचलित है। नौटंकी के नाटकों में रूप बसन्त, नकाबपोश, सत्यवादी हरिश्चन्द्र, राजा भरथरी आदि प्रमुख हैं। हैं। प्रायः विवाह, सामाजिक समारोह, मेलों तथा लोकोत्सवों के मौकों पर इनका आयोजन करवाया जाता है।

चारबेंत

चारबैंत टोंक का प्रसिद्ध लोक नाट्य है। यह संगीत दंगल के रूप में खेला जाता है। इसका प्रारम्भ टोंक के नवाब फैजुल्ला खाँ के शासनकाल में करीम खाँ निहंग द्वारा किया गया। इस लोक नाट्य में गायक डफ बजाता हुआ घुटनों के बल खड़े होकर गाकर अपनी बात कहता है।

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