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जर्मनी की डॉक्टर ने गांव को बनाया अपना घर:30 साल पहले आई, ऊंटपालकों की परेशानियां देखकर यहीं रुकी, उनके लिए खोली कैमल डेयरी


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जर्मनी की डॉक्टर ने गांव को बनाया अपना घर:30 साल पहले आई, ऊंटपालकों की परेशानियां देखकर यहीं रुकी, उनके लिए खोली कैमल डेयरी

जर्मनी की डॉक्टर ने गांव को बनाया अपना घर:30 साल पहले आई, ऊंटपालकों की परेशानियां देखकर यहीं रुकी, उनके लिए खोली कैमल डेयरी

बाली (पाली) : जर्मनी एक वैटरनरी डॉक्टर। नाम इल्से कोहलर रोल्फसन। तीस साल पहले राजस्थान के एक छोटे से गांव में आई और फिर यहां ऐसा मन लगा कि वापस नहीं लौटी। जब भारत आई थी तो केवल जर्मनी बोलती थी, लेकिन आज अच्छी तरह से हिंदी और मारवाड़ी बोलती हैं।

ऐसा क्या है जो जर्मनी की ये डॉक्टर भारत की बन गई? अब वे क्यों नहीं लौटना चाहती? किस मकसद के साथ वे एक छोटे से गांव में रह रही हैं?

यह सब जानने हम पहुंचे राजस्थान के पाली जिले में बाली के निकट राजपुरा सादड़ी। अरावली की पहाड़ियों से घिरा ये गांव विकास से कोसो दूर है। आधुनिक सुविधाओं के नाम पर यहां कुछ नहीं है। रोल्फसन ऊंटों के बीच बैठी थी। कुछ ग्रामीण भी वहां आए हुए थे। जिन्हें रोल्फसन ऊंटों की बीमारियों और ऊंटी के दूध की उपयोगिता के बारे में बता रही थीं।

रोल्फसन 1990 में पहली बार भारत आई थी।
रोल्फसन 1990 में पहली बार भारत आई थी।

दरअसल, रोल्फसन जब 30 साल की थी तब रिसर्चर थी। अपनी रिसर्च के लिए वे अफ्रीका के भी कई देशों में गई, लेकिन वहां मन नहीं लगा। इसके बाद 1990 में भारत आई। जहां वे राजपुरा सादड़ी गांव पहुंची। इस गांव में बड़ी संख्या में रायका समाज के लोग ऊंट पालते थे, लेकिन उन्हें न तो ये पता था कि ऊंटपालन को कैसे लाभदायक बनाया जा सकता है और न ही ऊंटों की बीमारियों के इलाज की जानकारी थी। कई पशुपालकों के ऊंटों की मौत हो जाती थी और उन्हें बड़ा नुकसान होता था। ये सब देखकर रोल्फसन ने इन ग्रामीणों की मदद करना शुरू किया। धीरे–धीरे समय बीता और वे इस गांव की होकर रह गई। अब वापस लौटना भी नहीं चाहती।

दैनिक भास्कर रिपोर्टर ने उनसे बात की, जिसमें उन्होंने अपने पूरे सफर के बारे में बताया–

रोल्फसन का कहना है कि राईका समाज से वे इतना जुड़ गई कि उनके प्यार के कारण वापस अपने देश ही नहीं जा पाई।
रोल्फसन का कहना है कि राईका समाज से वे इतना जुड़ गई कि उनके प्यार के कारण वापस अपने देश ही नहीं जा पाई।

रिसर्च करने भारत आई थी रोल्फसन

मैं जब भारत आई थी तो 37 साल की थी। आज तीस साल से ज्यादा हो गए मुझे यहां आए। मैं केवल यहां ग्रामीण परिवेश पर रिसर्च करने आई थी लेकिन इस गांव में आकर मैंने लोगों की तकलीफें देखी। यहां के ज्यादातर लोग ऊंट पालते थे। मैंने देखा कि वे बहुत मुश्किलों में थे। बीमारियों से उनके ऊंट मर जाते थे। ऊंट इनकी खेती और सामान यहां वहां ले जाने में काम आते थे। ऊंट के बिना इनका जीवन मुश्किल था। ऐसे में जब किसी के ऊंट की बीमारी से मौत हो जाती तो वह बहुत तकलीफ में आ जाता था।

स्कॉलरशिप से ऊंट पालकों को एक हजार इंजेक्शन बंटवाए

मैं वेटरनरी डॉक्टर थी तो लोग सहायता मांगते थे। मेरे से जो हो पाता मैं कर देती, लेकिन फिर मैंने सोचा कि इन लोगों को ज्यादा मदद की जरुरत है। सबसे पहले तो मैंने अमेरिकी स्कॉलरशिप, जर्मन एंबेसी और दोस्तों से कुछ रुपए इकट्ठा किए और ऊंट पालकों को एक हजार इंजेक्शन बंटवाए। ताकि वे ऊंटों को लगवा सके। इससे ऊंटों को कई बीमारियों से बचाया जा सकता था।

उस वक्त मुझे न तो हिंदी आती थी और न ही मारवाड़ी। सबकुछ मैं इशारों से ही समझती थी और उन्हें समझाती थी। फिर मेरी मदद मेरे साथ आए जोधपुर के हनुवंतसिंह राठौड़ भी करने लगे। उन्होंने ट्रांसलेटर का काम किया। धीरे-धीरे हिंदी और राजस्थानी भाषा सीखी। मैंने ग्रामीणों को ऊंटों की बीमारियों और इलाज के बारे में ही नहीं बताया बल्कि ऊंट के दूध से बनने वाले उत्पादों की भी जानकारी दी।

इस मदद ने मुझे मन की खुशी तो दी ही, लेकिन साथ ही इस गांव से भी जोड़ दिया। गांव वाले मुझे अपना परिवार मानने लगे। मेरा भी इनके साथ लगाव बढ़ गया और फिर मैं कभी यहां से वापस जा ही नहीं पाई।

ऊंटों को बचाने के लिए साल 2005 में सादड़ी से जैसेलमेर तक 800 किलोमीटर की रैली निकाली।
ऊंटों को बचाने के लिए साल 2005 में सादड़ी से जैसेलमेर तक 800 किलोमीटर की रैली निकाली।

छोटे से गांव में रहने पर लोग मुझे पागल कहते थे

इस दौरान कई लोग मुझे पागल भी कहते। उनका कहना होता था कि जर्मनी जैसे देश को छोड़कर ये यहां ऊंटों पर काम कर रही है, लेकिन मैंने कभी उनकी परवाह नहीं की। अपने काम में लगी रही। बहुत सारे ग्रामीणों का साथ मिलता गया और अब हम काफी आगे निकल गए हैं। यहां तक कि अब ग्रामीण ऊंटनी का दूध और दूसरे प्रोडेक्ट बेचकर मुनाफा कमाते हैं। सादड़ी में खोली कैमल डेयरी

रोल्फसन ने बताया– ऊंटपालन को बढ़ावा देने और ग्रामीणों की आर्थिक स्थिति मजबूत बनाने के लिए 1996 में जोधपुर के हनुवंतसिंह राठौड़ के साथ मिलकर सादड़ी कस्बे में भारत की पहली कैमल डेयरी खोली। जहां ऊंटनी के दूध से उत्पाद भी बनाने शुरू कर दिए। जिनमें घी, चीज, साबुन आदी शामिल है। फिर 2009 में ऊंट के मींगणों से पेपर बनाने का प्लांट लगाया गया। ऊंट की उन से शॉल, दरी, कॉरपेट आदी बनाने के लिएकच्चा माल भी तैयार किया। अब हमारी कैमल करिश्मा कंपनी की मदद से हम ऊंट के दूध को इकट्ठा कर दिल्ली, बेंगुलुरु, मुंबई और हैदराबाद भेज रहे हैं। जिसकी काफी डिमांड है। इससे पशुपालकों को महीने के 25 से 30 हजार रुपए की इनकम हो रही है।

भारत में घट रही ऊंटों की संख्या

रोल्फसन बताती हैं कि संयुक्त राष्ट्र ने 2024 को अंतरराष्ट्रीय ऊंट वर्ष घोषित किया है। ये एक अच्छी पहल है, लेकिन अभी इस दिशा में और काम करने की जरुरत है। भारत में तो ऊंटों की संख्या लगातार घट रही है, यहां 90 प्रतिशत ऊंट कम हो चुके हैं। जबकि बाकी देशा में 50 साल में 3 गुना ऊंट बढ़े हैं।

उन्होंने कहा कि राजस्थान में कानून के तहत ऊंटों को बाहर नहीं बेचा जा सकता, जिसके कारण ऊंट पालकों को इनकम नहीं हो रही है। पहले हरियाणा, बिहार, मध्यप्रदेश तक ऊंटों को बेच रहे थे। अब ये मुमकिन नहीं है। इसलिए इस नियम को बदलना चाहिए।

रोल्फसन को तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने नारी शक्ति राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित किया। इसके अलावा नई दिल्ली स्थित जर्मनी के दूतावास में जर्मनी के राष्ट्रपति ने जर्मनी के राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया।
रोल्फसन को तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने नारी शक्ति राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित किया। इसके अलावा नई दिल्ली स्थित जर्मनी के दूतावास में जर्मनी के राष्ट्रपति ने जर्मनी के राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया।

भारत व जर्मन राष्ट्रपति ने किया सम्मानित

ऊंट संरक्षण के लिए किए गए कार्यों को लेकर 8 मार्च 2017 को रोल्फसन को तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने नारी शक्ति राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित किया। इसके अलावा नई दिल्ली स्थित जर्मनी के दूतावास में 16 मई 2018 को जर्मनी के राष्ट्रपति ने वहां के राष्ट्रीय पुरस्कार (ऑर्डर ऑफ द क्रॉस ऑफ मेरिट) से सम्मानित किया। वे 2004 में स्विट्जरलैंड का रोलेक्स अवॉर्ड, मारवाड़ रत्न समेत कई सम्मान प्राप्त कर चुकी हैं। डॉ. इल्से रोल्फसन जुड़वा बेटे-बेटी की मां है। दोनों बच्चों की शादी हो चुकी है। इल्से के पति, बेटा और बेटी का परिवार भी अक्सर राजस्थान आता रहता है।

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