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गिद्धों के लिए क्यों नहीं छोड़ी टाटा की पार्थिव देह:अंतिम संस्कार कैसे हुआ; पारसियों के ‘टावर ऑफ साइलेंस’ न जाने की क्या वजहें


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गिद्धों के लिए क्यों नहीं छोड़ी टाटा की पार्थिव देह:अंतिम संस्कार कैसे हुआ; पारसियों के ‘टावर ऑफ साइलेंस’ न जाने की क्या वजहें

गिद्धों के लिए क्यों नहीं छोड़ी टाटा की पार्थिव देह:अंतिम संस्कार कैसे हुआ; पारसियों के ‘टावर ऑफ साइलेंस’ न जाने की क्या वजहें

रतन नवल टाटा का अंतिम संस्कार हो गया। पारसियों के पारंपरिक दखमा की बजाय उनका दाह संस्कार हुआ। सबसे पहले पार्थिव शरीर को प्रेयर हॉल में रखा गया। वहां पारसी रीति से ‘गेह-सारनू’ पढ़ा गया। रतन टाटा के पार्थिव शरीर के मुंह पर एक कपड़े का टुकड़ा रख कर ‘अहनावेति’ का पहला पूरा अध्याय पढ़ा गया। ये शांति प्रार्थना की एक प्रक्रिया है। इसके बाद इलेक्ट्रिक अग्निदाह से अंतिम संस्कार किया गया।

एक्सप्लेनर में जानेंगे पारसियों का पारंपरिक ‘टावर ऑफ साइलेंस’ क्या है, जिसमें पार्थिव देह को गिद्ध जैसे मांसाहारी पक्षियों के लिए छोड़ा जाता है। रतन टाटा का अंतिम संस्कार इस तरीके से न करने की क्या वजहें हैं…

सवाल-1: पारसी समुदाय क्या है, जिससे ताल्लुक रखते हैं रतन नवल टाटा?

जवाबः 7वीं सदी के ईरान को पर्शिया के नाम से जाना जाता था। तब वहां सासानी साम्राज्य का शासन था और जोरोस्ट्रायनिज्म वहां का राज धर्म था। ईरान के अंतिम बादशाह याजदेगार्द को अरबों ने 641 ईस्वी में नेहावंद की जंग में हरा दिया।

अरबों के अत्याचार से बचने के लिए पारसी वहां से भागने लगे। कुछ लोग खुरासान की पहाड़ियों में जाकर बस गए। वहां भी अत्याचार नहीं रुका, तो वहां से तीन नावों में सवार होकर गुजरात के काठियावाड़ में दीव द्वीप पर पहुंच गए। यहां से वो वलसाड पहुंचे।

तब गुजरात के इस इलाके के राजा जाधव राणा ने कुछ शर्तों के साथ पारसियों को यहां रहने की इजाजत दी। जहां पारसियों ने संजान नाम का छोटा सा नगर बसाया।

पारसी समुदाय आगे चलकर भारत के सबसे पढ़े-लिखे और अमीर लोगों का समूह बना। दुनिया में पारसियों की आबादी 1.5 से 2 लाख के बीच है। भारत में 60-70 हजार पारसी रहते हैं, सिर्फ 40-45 हजार पारसी मुंबई में रहते हैं। 1940 के दशक में भारत में पारसियों की आबादी 1 लाख थी, जो 2011 में घटकर 60 हजार रह गई थी। 2050 तक इनकी आबादी घटकर 40 हजार रह जाने का अनुमान है।

पारसी समुदाय के चमकते सितारों में उद्योगपति टाटा समूह से लेकर रॉकस्टार फ्रेडी मर्करी तक शामिल हैं। भारत के स्वतंत्रता संग्राम में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेने वाले फिरोजशाह मेहता, दादा भाई नौरोजी और भीकाजी कामा भी पारसी ही थे।

सवाल-2: पारसियों के अंतिम संस्कार का पारंपरिक तरीका क्या है?

जवाबः पारसियों के अंतिम संस्कार की परंपरा 3 हजार साल पुरानी है। पारसियों के कब्रिस्तान को दखमा या ‘टावर ऑफ साइलेंस’ कहते हैं। ‘टावर ऑफ साइलेंस’ गोलाकार खोखली इमारत के रूप में होता है।

किसी व्यक्ति की मौत के बाद शव को नहला-धुलाकर टावर ऑफ साइलेंस में खुले में छोड़ दिया जाता है। पारसियों की अंत्येष्टि की इस प्रक्रिया को दोखमेनाशिनी (Dokhmenashini) कहा जाता है। इसमें शवों को आकाश में दफनाया (Sky Burials) जाता है, यानी शव के निपटारे के लिए उसे टावर ऑफ साइलेंस में खुले में सूरज और मांसाहारी पक्षियों के लिए छोड़ दिया जाता है।

टावर्स ऑफ साइलेंस की ये तस्वीर 1880 की है। उसकी दीवारों पर गिद्ध बैठे नजर आ रहे हैं। यहां गैर पारसियों को आने की इजाजत नहीं है।
टावर्स ऑफ साइलेंस की ये तस्वीर 1880 की है। उसकी दीवारों पर गिद्ध बैठे नजर आ रहे हैं। यहां गैर पारसियों को आने की इजाजत नहीं है।

सवाल-3: क्या आज भी पारसियों का अंतिम संस्कार ऐसे ही होता है या इसमें बदलाव हुए हैं?

जवाबः आमतौर पर पारसी समुदाय अंतिम संस्कार के लिए टावर ऑफ साइलेंस में शव को खुले में छोड़ देते हैं। गिद्ध जैसे मांसाहारी पक्षी उस शव का मांस खा लेते हैं, लेकिन गिद्धों की आबादी तेजी से घटने से पारसी समुदाय के अंतिम संस्कार यानी दखमा को करना आसान नहीं रह गया।

एक्सपर्ट्स के मुताबिक,

गिद्धों की प्रजातियों की आबादी पिछले कुछ सालों में करीब 99% तक घटी है। गिद्धों की आबादी घटने से मुंबई में रहने वाले कई पारसी अपने प्रियजनों की मौत के बाद उनके शवों के सम्मानपूर्वक निपटारे को लेकर चिंतित थे। नई पीढ़ी के कई पारसी नहीं चाहते कि उनके प्रियजन का शरीर कई दिनों तक खुले में रहे।

सवाल-4: अब पारसियों के पास अंतिम संस्कार के कौन से विकल्प हैं?

जवाबः मुंबई में पारसियों के पास अब अंतिम संस्कार के 3 विकल्प हैं…

पहला- पारंपरिक दखमा यानी टावर ऑफ साइलेंस के जरिए अंतिम संस्कार करना।

दूसरा- शवों को दफनाना।

तीसरा- शवों का दाह संस्कार करना।

रतन टाटा का अंतिम संस्कार तीसरे विकल्प के जरिए वर्ली स्थित श्मशान घर में दाह संस्कार के जरिए किया जाएगा। इससे पहले सड़क हादसे में जान गंवाने वाले इंडस्ट्रियलिस्ट साइरस मिस्त्री का पारसी परंपरा के बजाय वर्ली के इलेक्ट्रिक क्रिमैटोरियम में अंतिम संस्कार किया गया था।

पारसी धार्मिक शिक्षा केंद्र के प्रिंसिपल डॉ. रमियर पी करनजिया का कहना है कि साइरस मिस्त्री के निधन से करीब दो महीने पहले उनके पिता की मृत्यु हुई थी। उनका अंतिम संस्कार टावर्स ऑफ साइलेंस में हुआ था।

सवाल-5: क्या है पारसियों के अंतिम संस्कार से जुड़ी जेआरडी टाटा की कहानी?

जवाबः मुंबई में पारसियों के लिए अंतिम संस्कार की वैकल्पिक व्यवस्था के लिए पहले प्रार्थना हॉल की नींव 1980 के दशक में प्रसिद्ध उद्योगपति जेआरडी टाटा की वजह से पड़ी थी। एक ऐसा प्रार्थना हॉल, जहां पारसियों के अंतिम संस्कार के लिए शवों को दफनाने या दाह संस्कार की व्यवस्था हो।

1980 के दशक में जेआरडी टाटा ने अपने भाई बीआरडी टाटा के निधन के बाद मुंबई के म्यूनिसिपल कमिश्नर जमशेद कांगा से पूछा था कि उनके भाई के अंतिम संस्कार के लिए मुंबई में कौन सा श्मशान घर बेहतर रहेगा। दरअसल, प्रसिद्ध उद्योगपति होने की वजह से उनके अंतिम संस्कार में कई गणमान्य लोग आने वाले थे।

उस समय कुछ श्मशान घर बंद थे और उन्हें अपग्रेड किया जा रहा था, जबकि बाकी जर्जर हालत में थे। इस स्थिति से निपटने के लिए दादर में एक श्मशान घर को साफ कराया गया, लेकिन जब जमशेद कांगा जेआरडी टाटा को सांत्वना देने वहां गए, तो उनसे कहा गया कि मुंबई में श्मशान घर की सुविधाएं और बेहतर होनी चाहिए।

प्रसिद्ध उद्योगपति जेआरडी टाटा ने 1980 के दशक में अपने भाई बीआरडी टाटा का अंतिम संस्कार दखमा के बजाय दादर स्थित श्मशान घर में किया था।
प्रसिद्ध उद्योगपति जेआरडी टाटा ने 1980 के दशक में अपने भाई बीआरडी टाटा का अंतिम संस्कार दखमा के बजाय दादर स्थित श्मशान घर में किया था।

मुंबई के कई श्मशान घरों में से वर्ली में स्थित श्मशान घर में काफी जगह थी और साउथ मुंबई में होने की वजह से पारसियों के लिए सुविधाजनक था। जमेशद कांगा ने वर्ली में ही एक प्रेयर हॉल बनाने की योजना बनाई, लेकिन इससे पहले कि प्रोजेक्ट शुरू हो पाता, उनका ट्रांसफर हो गया।

जमशेद कांगा ने ये मिशन छोड़ा नहीं और मुंबई में प्रभावशाली पारसियों के साथ मिलकर अंतिम संस्कार के वैकल्पिक तरीके की मांग के साथ ‘मृतकों का सम्मान के साथ निपटान’ नामक कैंपेन चलाया था। तब कांगा ने कहा था- ‘टावर ऑफ साइलेंस सिस्टम ठीक से काम नहीं कर रहा है और हमें विकल्प की जरूरत है।’

पारसियों के लिए श्मशान घर बनाने की मांग जोर पकड़ती गई। एक प्रस्ताव टावर ऑफ साइलेंस के पास ही श्मशान घर बनाने का भी रखा गया, लेकिन पारसियों की सबसे बड़ी रिप्रेजेंटेटिव बॉडी बॉम्बे पारसी पंचायत यानी BPP ने इसे स्वीकार नहीं किया।

वैकल्पिक अंतिम संस्कार का रास्ता अपनाने वालों को पारंपरिक पारसियों का विरोध झेलना पड़ा। दरअसल, टावर ऑफ साइलेंस के जरिए शवों के अंतिम संस्कार करने वालों को ही वहां बने प्रेयर हॉल में प्रार्थना की इजाजत दी गई। जिन लोगों ने शवों को कहीं और दफनाया या जलाया था, उन्हें टावर ऑफ साइलेंस के प्रेयर हॉल में जाने से रोक दिया गया। कहीं और शवों को दफनाने और जलाने वाले दो पारसी पुजारियों पर भी प्रार्थना हॉल में जाने पर रोक लगा दी गई।

इसके बाद 2015 में पारसियों के एक समूह ने म्यूनिसिपल कॉर्पोरेशन के साथ मिलकर मुंबई के वर्ली में पारसियों के लिए श्मशान घर बनावाया।

वर्ली श्मशान घर मुंबई के सबसे पुराने श्मशान घरों में से एक है। यहां दखमा के बजाय दफनाने या दाह संस्कार को चुनने वाले पारसियों के लिए प्रेयर हॉल भी बना है।
वर्ली श्मशान घर मुंबई के सबसे पुराने श्मशान घरों में से एक है। यहां दखमा के बजाय दफनाने या दाह संस्कार को चुनने वाले पारसियों के लिए प्रेयर हॉल भी बना है।

जवाब-6: इंदिरा गांधी के पति फिरोज गांधी भी पारसी थे, उनके अंतिम संस्कार का क्या किस्सा है?

जवाबः इंदिरा गांधी के पति फिरोज गांधी भी पारसी थे। फिरोज ने अपनी मौत से पहले अपने दोस्तों से कहा था कि वो हिंदू तरीकों से अपनी अंत्येष्टि करवाना पसंद करेंगे, क्योंकि उन्हें अंतिम संस्कार का पारसी तरीका पसंद नहीं था, जिसमें शव को गिद्धों के खाने के लिए छोड़ दिया जाता है।

8 सितंबर 1960 को फिरोज गांधी की मौत के बाद हुआ भी ऐसा। उनका अंतिम संस्कार दिल्ली के निगमबोध घाट में हिंदू रीति-रिवाज से किया गया था। उस वक्त 16 साल के राजीव गांधी ने फिरोज की चिता को आग लगाई थी।

हालांकि उनके पार्थिव शरीर को दाह संस्कार के लिए ले जाने से पहले कुछ पारसी रस्मों का भी पालन किया गया। जैसे जब फिरोज के शव के सामने पारसी रीति से ‘गेह-सारनू’ पढ़ा गया तो कमरे से इंदिरा और उनके दोनों बेटों के अलावा सब को हटा दिया गया। फिरोज के शव के मुंह पर एक कपड़े का टुकड़ा रख कर ‘अहनावेति’ का पहला पूरा अध्याय पढ़ा गया।

फिरोज गांधी के अस्थि कलश को संगम में प्रवाहित किया गया और बचे हुए भाग को इलाहाबाद की पारसी कब्रगाह में दफनाया गया था। उनकी अस्थियों के कुछ हिस्से को सूरत में फिरोज गांधी की पुश्तैनी कब्रगाह में भी दफनाया गया था।

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